पुलिस और सेना का इस्तेमाल करके आम राय को कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है, लेकिन क्या इससे राज्य में लंबे समय के लिए शांति सुनिश्चित की जा सकती है?
केंद्र सरकार का जम्मू कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना और राज्य से पूर्ण राज्य का दर्जा छीनकर इसे केंद्र शासित प्रदेश बना देना संवैधानिक तख्तापलट की तरह है. यह आश्चर्य की बात है भी और नहीं भी.
इस विरोधाभासी बात को ऐसे समझ सकते हैं- भाजपा और उनके पूर्ववर्ती संगठनों ने इस बात को कभी नहीं छुपाया कि इस अनुच्छेद को भंग करना उनकी पार्टी का मूलभूत दर्शन रहा है. इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है.
लेकिन आश्चर्य की बात है- यह देखते हुए कि इस सख्त और आकस्मिक कदम के भारत आतंरिक और बाह्य दोनों तरह के परिणाम सामने आ सकते हैं. उम्मीद है कि शायद सरकार ने इस बारे में परिणामों की नज़र से सोचा है.
यह अपने आप में बेहद अलोकतांत्रिक है कि यह कदम कश्मीर की आम जनता की सहमति के बगैर लिया गया है. पुलिस और सेना का इस्तेमाल करके किसी लोकप्रिय राय को कुछ समय के लिए दबाया जाना संभव हैं, लेकिन क्या इससे राज्य में लंबे समय तक के लिए शांति सुनिश्चित की जा सकती है, यह चिंतन का विषय है.
परेशान करनेवाली बात यह है कि कश्मीरी आमराय को दबाने के लिए जो तर्क सरकार की ओर से दिए जा रहे हैं, वे देश के किसी भी अन्य हिस्से के लिए दिए जा सकते हैं.
कश्मीर की विशिष्टता का प्रतीक
अपने आप में इस प्रस्ताव का कोई खास अर्थ नहीं है. दशकों से अनुच्छेद 370 के अंतर्गत मिली कश्मीरी स्वायत्तता एक मिथक बनकर रह गई है.
यह बक्शी ग़ुलाम मोहम्मद और सैयद मीर क़ासिम की सरकार के समय ही नष्ट हो गई थी, जो 1975 के बेग-पार्थसारथी समझौते के शेख अब्दुल्ला को मुख्यधारा में लाने के बावजूद वापस खड़ी नहीं हो पाई.
असल में 1954 से 1995 के बीच केंद्र सरकार द्वारा अपने संविधान के अनुसार चलने वाले इस राज्य की विशेष शक्तियां छीनने के लिए करीब 200 संवैधानिक आदेश पारित किए गए थे. अनुच्छेद 370, भले ही जितना भी खोखला हो, भारत की नज़र में कश्मीर की विशिष्टता का प्रतीक था.
यह भले ही बेजान रहा हो, लेकिन फिर भी यह कश्मीरी पहचान का महत्वपूर्ण प्रतीक बना रहा. अब जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इसे ख़त्म कर दिया है, इसके त्वरित मनोवैज्ञानिक परिणाम तो होंगे ही, साथ ही लंबे समय तक के लिए राजनीतिक अशांति भी देखने को मिल सकती है.
राज्य के दर्जे को कम करना बेहद अपमान की बात है. भारतीय प्रणाली में किसी राज्य- जिसका कभी अपना प्रधानमंत्री हुआ करता था- का विशेष दर्जा बनाए रखने की बजाय इसे आधे राज्य के दर्जे पर ला दिया गया, जिसे उपराज्यपाल द्वारा चलाया जाएगा.
यहां भी यह सच देखा जाना जरूरी है कि 1990 के दशक से जम्मू कश्मीर को कहीं न कहीं केंद्र सरकार द्वारा ही चलाया जा रहा था, लेकिन फिर भी नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियों के होने से यहां स्थानीय राजनीतिक गतिविधि का एक परदा था, जो स्थिरता बनाए रखने में मददगार था.
अपने फैसलों से सरकार, उसके मुताबिक, कश्मीरियों को मजबूरन एक कड़वी दवाई के लिए मजबूर कर रही है और संभव है कि इसका असर आने वाली कई पीढ़ियों तक रहेगा. वहीं दूसरी तरफ, यह एक नई प्रक्रिया की शुरुआत भी हो सकती है, जहां कश्मीरियों को कहा जाएगा, ‘दोस्तों, आगे बढ़िए! संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों और पाकिस्तान के दिन लद गए हैं. कश्मीर भारत का हिस्सा था और रहेगा और बेहतर होगा कि आप इसकी आदत डाल लें.’
कश्मीर के भारतीय संघ से जुड़ने के क़ानूनी मसले अपने आप में काफी जटिल हैं. इस कदम की संवैधानिकता भी संदेह के दायरे में है क्योंकि अनुच्छेद 370 को केवल राष्ट्रपति द्वारा ख़त्म किया जा सकता है, लेकिन उपधारा 3 के तहत ऐसा केवल राज्य की संविधान सभा- जो 1956 में ही भंग हो चुकी है- की सिफारिश पर ही किया जा सकता है.
ऐसे में किसी ऐसी व्यवस्था की जरूरत है, जिससे इस उपधारा का पालन किया जा सके. इस बात पर कोई शक नहीं है कि जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में इस मसले को लेकर ढेरों याचिकाएं पहुंचने वाली हैं.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक मसला है. दुनिया का कोई भी देश कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानता. वे सभी इसे एक विवादित क्षेत्र के बतौर देखते हैं जिसकी अंतिम स्थिति के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की जरूरत है.
सबसे महत्वपूर्ण, 1948 के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में भी इसी बात पर जोर दिया गया है क्योंकि उनका तर्क है कि किसी अंतिम स्थिति के बारे में कोई भी फैसला बिना वहां के लोगों की सोचे नहीं हो सकता. कोई भी भारत का यह तर्क नहीं मानता कि राज्य के लोगों का लगातार चुनावों में हिस्सा लेना इसी बात को दिखाता है.
इसी के साथ, ताकतवर राष्ट्रों के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून कोई खास मायने नहीं रखते. ग्रीक इतिहासकार थूसीडाइड्स के शब्दों में, ‘ताकतवर वही करते हैं, जो वो कर सकते हैं और कमजोर वही भुगतते हैं, जो उन्हें भुगतना चाहिए.’
अमेरिका जैसा देश ईरान के साथ जेसीपीओए जैसा अंतरराष्ट्रीय करार कूड़े में फेंक सकता है, रूस क्रीमिया पर कब्ज़ा कर सकता है; चीन यूएन कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ सी को मजाक में उड़ाते हुए जबरन समुद्री क्षेत्राधिकार का दावा कर सकता है या लाखों लोगों री-एजुकेशन शिविरों में डाल सकता है; इजराइल सेना की मदद से दूसरे देश पर कब्जा कर सकता है.
तो ऐसे में भारत जम्मू कश्मीर पर अपना रास्ता अख्तियार कर सकता है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस पर नाराजगी नहीं जता सकेगा. पर एक बात स्पष्ट है कि वे भारत के राज्य के अविवादित दावे का निकट भविष्य में तो समर्थन नहीं करेंगे.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस फैसले से घाटी में भारी अलगाव उत्पन्न होगा और निश्चित रूप से कुछ समय के लिए ही सही अलगाववाद को प्रोत्साहन मिलेगा. इसका सबसे खतरनाक पहलू जम्मू कश्मीर पुलिस की प्रतिक्रिया हो सकती है, जो इस समय आतंकवाद से मुकाबला करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.
अगर अलगाववाद की यह भावना समाज के विभिन्न वर्गों में फैलती है, तो आतंक-विरोधी गतिविधियों को संभालना और मुश्किल हो जाएगा.
यह कोई मौका देखकर उठाया गया कदम है या योजनाबद्ध? एक स्तर पर तो यह भाजपा की अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने की सालों से चली आ रही मांग का पूरा होना है.
वहीं दूसरे स्तर पर, यह ऐसे समय का फायदा उठाता है, जहां वैश्विक ताकतें खुद अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अस्थिरता का कारण हैं. इसकी संभावना कम है कि वे ऐसे मामलों में हाथ डालेंगी जहां से वे खुद निकलने की कोशिश कर रही हैं.
इसके साथ ही, जेरुसलम को लेकर अमेरिका के स्टैंड में बदलाव और गोलान हाइट्स को इजराइल के हिस्से के रूप में मान्यता देना दो ऐसे उदाहरण हो सकते हैं, जिसने सरकार को प्रेरित किया हो.
अंधेरे में तीर चलाने जैसा
कई और नाटकीय राजनीतिक फैसलों की तरह यह भी अंधेरे में चलाया गया तीर है, शायद इसको लेने वाले भी इस बात से वाकिफ हैं. लेकिन जिस तरह की राजनीति वे करते हैं, उनका रवैया ‘कुछ अच्छा करने के लिए जोखिम तो उठाना ही होगा’ वाला रहा है.
इसी पैमाने पर उनकी महत्वाकांक्षा अतीत में वापस जाकर भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास को पलट देने की रही है. यक़ीनन, वे नोटबंदी जैसे खराब फैसलों के जिम्मेदार हैं, लेकिन शायद उन्होंने राज्य पर दांव लगाने का यह कदम जानबूझकर, इस विश्वास के साथ उठाया है कि इसे एक वर्ग- जो उनके लिए काफी महत्व रखता है- यानी बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा सिर-आंखों पर लिया जाएगा.
इस फैसले का बीजू जनता दल से लेकर वायएसआर कांग्रेस, यहां तक कि आम आदमी पार्टी द्वारा समर्थन करना भाजपा को हुए राजनीतिक लाभ को दिखाता है.
इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि इस फैसले का पूरे भारत में स्वागत किया जाएगा क्योंकि कश्मीर मुद्दे को लेकर पहले से ही लोग ऊब चुके हैं और उनका रवैया रहा है कि- ‘सत्तर सालों से कुछ नहीं हुआ, शायद यह कोई कड़ा कदम उठाने का समय है.’
लेकिन लोगों को यह बात समझने में कुछ समय लगेगा कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण या नोटबंदी जैसे ‘खतरनाक कदम’ जब उठाए जाते हैं, तब इनकी एक कीमत भी चुकानी पड़ती है, जो शायद बाहर से दिखाई न देती हो.
इसके अलावा जब इसमें आम जनता जुड़ी हुई हो, तब सहमति के माध्यम से कोई रास्ता निकालना बेहतर होता है न कि किसी गुप्त प्रक्रिया से इसे लेना.
(लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में विशिष्ट फेलो हैं.)
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