संसद ने हाल ही में भारतीय चिकित्सा परिषद के स्थान पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग गठित करने वाले विधेयक को मंजूरी दी. भारतीय चिकित्सा संघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. रवि वानखेडेकर का कहना है कि ये फैसला जन विरोधी है. इससे स्वास्थ्य शिक्षा एवं डाक्टरों की गुणवत्ता में कमी आएगी.
नई दिल्ली: चिकित्सा क्षेत्र में सुधार की पहल के तहत संसद ने हाल ही में भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के स्थान पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) गठित करने वाले विधेयक को मंजूरी दी है.
विपक्ष इसे गरीब विरोधी और सामाजिक न्याय और सहकारी संघवाद विरोधी बता रहा है. दूसरी ओर इसमें एक्जिट परीक्षा सहित अन्य प्रावधानों का डाक्टरों का एक बड़ा वर्ग भी विरोध कर रहा हैं और हाल ही वे इसे लेकर हड़ताल पर भी गए.
पेश है इस विषय पर भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) के पूर्व अध्यक्ष एवं वर्तमान सदस्य डॉ. रवि वानखेडेकर से बातचीत.
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग गठित करने के सरकार के निर्णय को आप कैसे देखते हैं?
यह जन विरोधी निर्णय है. स्वास्थ्य सेवा की कमी को पूरा करने में इससे कोई मदद नहीं मिलेगी, साथ ही स्वास्थ्य सेवा की लागत बढ़ेगी, स्वास्थ्य शिक्षा एवं डाक्टरों की गुणवत्ता में कमी आएगी. यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र का भी हनन है.
सरकार का कहना है कि यह चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र में चुनौतियों से निपटने के लिए नई व्यवस्था स्थापित करेगा. आप क्या कहेंगे?
चिकित्सा क्षेत्र में आज गुणवत्तापूर्ण डाक्टरों की कमी और सुदूर क्षेत्रों तक उनकी उपलब्धता न होना एक महत्वपूर्ण विषय है. हाल ही में संसद में जो विधेयक पारित हुआ है, उसकी धारा 32 में सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मी की बात कही गई है. इसके तहत चिकित्सा क्षेत्र में प्रैक्टिस करने वाले चार लाख लोगों को जोड़ने की बात कही गई है.
इनका पंजीकरण किया जायेगा और लाइसेंस भी देने की बात कही गई है. ऐसे में यह झोलाछाप डाक्टरों को बढ़ावा देने जैसा है. अगर इनसे कोई गलती हुई तो कौन जिम्मेदारी लेगा?
पहले मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए जरूरी था कि वहां पहले से कॉलेज हो. इसकी जांच परख को काफी महत्व दिया गया था. लेकिन एनएमसी में प्रावधान किया गया है कि इन चिकित्सा संस्थाओं का चाहे तो निरीक्षण किया जा सकता है. इससे चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता कम होगी और निम्न गुणवत्ता के डाक्टर तैयार होंगे.
सरकार ने पूर्ववर्ती संस्था एमसीआई में भ्रष्टाचार को देखते हुए इंस्पेक्टर राज का अंत करने के लिए इस नये आयोग का गठन किया है. आप इसे कैसे देखते हैं?
अगर चिकित्सा संस्थाओं के निरीक्षण एवं जांच का काम उक्त निकाय पर छोड़ दिया जायेगा, तो इससे तो भ्रष्टाचार बढ़ेगा ही. विधेयक के धारा 29(बी) में लिखा है कि जांच के दौरान अगर कोई कमी पाई गई तो कॉलेज को सिर्फ यह लिखकर देना है कि वह इसे कुछ अवधि में सुधार लेगी.
इसमें एक तरह से दिशानिर्देशों के ‘काल्पनिक अनुपालन’ पर जोर दिया गया है. यह कानून भारतीय चिकित्सा शिक्षा के ‘अंधाधुंध निजीकरण’ को बढ़ावा देने वाला है.
इसमें नेशनल एक्जिट टेस्ट (नेक्स्ट) की परिकल्पना की गई है जो चिकित्सा शिक्षा में सुधार की दृष्टि से लाने की बात कही गई है. कई वर्गो द्वारा इसके विरोध को आप कैसे देखते हैं?
इसमें एमबीबीएस फाइनल परीक्षा को नेक्स्ट का नाम दिया गया है. डॉक्टरों के लिए अंतिम वर्ष की परीक्षा प्रैक्टिकल परीक्षा होती है. डाक्टरों को प्रैक्टिकल परीक्षा के बाद ही लाइसेंस दिया जाता है.
लेकिन अब ऐसी व्यवस्था की जा रही है जिससे देशभर में डाक्टरों को फाइनल परीक्षा में सिर्फ थ्योरी की परीक्षा लेने की बात कही गई है. अब सिर्फ थ्योरी परीक्षा लेकर डाक्टरों को लाइसेंस देना क्या ठीक है?
इसमें महत्वपूर्ण कमी क्या है जिसमें सुधार जरूरी है?
इसके तहत सीटों एवं फीस के संदर्भ में ‘कालेजों को लूट की छूट’ दे दी गई है. इसमें धारा 10 के एक उपधारा में राज्यों में निजी कॉलेजों को 50 प्रतिशत सीट तय करने के लिए सरकार द्वारा सिर्फ दिशानिर्देश तय करने की बात कही गई है.
सरकार के ये दिशानिर्देश सिर्फ सलाह की प्रकृति के होते हैं. अगर 50 प्रतिशत सीट कॉलेजों की होंगी तब यह ‘अमीर बच्चों को आरक्षण देने’ जैसा होगा.
अधिक फीस देकर बनने वाले ऐसे डॉक्टर क्या गांव, देहात में जाएंगे? पहले की व्यवस्था में 15 प्रतिशत सीट प्रबंधन कोटे के तहत और बाकी 85 प्रतिशत सीट राज्य सरकार की शुल्क नियंत्रण समिति के तहत आती थी.