विशेष रिपोर्ट: दिसंबर 2017 में राहुल गांधी के लिए अध्यक्ष पद छोड़ने वाली सोनिया गांधी की मात्र 20 महीने बाद एक बार फिर से अध्यक्ष पद पर वापसी हुई है. बीते हफ्ते हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में उन्हें अंतरिम अध्यक्ष बनाने का फैसला लिया गया.
नई दिल्ली: राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे के तीन महीने बाद भी जब कांग्रेस पार्टी में गैर-गांधी परिवार के किसी सदस्य को अध्यक्ष बनाने पर सहमति नहीं बनी तो बीते हफ्ते सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाने का फैसला लिया गया.
गांधी के इस्तीफे के बाद से अगले अध्यक्ष के चुनाव को लेकर पार्टी में लगातार असमंजस की स्थिति बनी हुई थी. इसको लेकर बीते शनिवार को कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में दिन भर चली गहन चर्चा के बाद यह फैसला लिया गया.
बीते शनिवार को कांग्रेस की शीर्ष समिति की बैठक दो बार हुई. इसमें पार्टी संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, महासचिव प्रियंका गांधी, वरिष्ठ अहमद पटेल, एके एंटनी, गुलाम नबी आजाद, मल्लिकार्जुन खड़गे, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और कई अन्य नेता शामिल हुए.
सुबह हुई पहली बैठक में नेताओं के पांच समूह बनाए गए थे, जिन्होंने देशभर के कांग्रेस नेताओं की राय ली. जिसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के अलावा राज्यों के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता भी मौजूद थे. इन्होंने अपनी रिपोर्ट सीडब्ल्यूसी को सौंप दी.
शाम को जब पार्टी की दूसरी बैठक हुई तो राहुल गांधी ने साफ तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने से इनकार कर दिया. इसके बाद पार्टी नेताओं ने प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाने की मांग उठाई. लेकिन इस पर भी सहमति नहीं बन पाई.
इसके बाद पार्टी नेताओं ने कहा कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी मिलकर पार्टी अध्यक्ष चुनें. लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया. इसके बाद पार्टी नेताओं ने सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाने की मांग उठाई.
इसके बाद कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया कि सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष का पद संभालें, जब तक पूर्ण कालिक अध्यक्ष के लिए नियमित चुनाव नहीं हो जाता है. उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.
दिसंबर 2017 में स्वेच्छा से अध्यक्ष पद छोड़ने के मात्र 20 महीने बाद सोनिया गांधी के एक बार फिर अध्यक्ष बनने से पता चलता है कि 134 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी अब तक के अपने सबसे गहरे संकटों में से एक से जूझ रही है.
सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष के रूप में चुने जाने पर वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘उन्हें अध्यक्ष के रूप में चुनना पार्टी का एक अंदरूनी मामला था. पार्टी ने अपना विवेक इस्तेमाल किया. राजनीतिक नेतृत्व नेहरु-गांधी परिवार के हाथ में है और रहेगा. मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि उन्होंने सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया है.’
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे कहते हैं, ‘नेतृत्व के सवाल पर कांग्रेस एक गतिरोध पर फंसी हुई है. उन्होंने इसका एक तरीका निकाला है, इसके अलावा और भी विकल्प हो सकते थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने वे तरीके क्यों नहीं इस्तेमाल किए ये बहुत ताज्जुब की बात है.’
वे कहते हैं, ‘सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने का मतलब है कि पीछे की ओर लौटना. उनका स्वास्थ्य खराब है, वह बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं हो पाती हैं. इस बार चुनाव अभियान में भी उन्होंने उस तरह से खुल कर हिस्सा नहीं लिया जिस तरह से वह लेती थीं. उनको अध्यक्ष बनाना एक बीच की व्यवस्था है.’
बता दें कि, सोनिया गांधी ने अगस्त 2011 में अपनी बीमारी के लिए अमेरिका में सर्जरी कराई थी. इसके बाद से वह अक्सर अपनी जांच के लिए वहां जाती रहती हैं. इस साल जनवरी में स्वास्थ कारणों से ही उन्हें अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली का दौरा रद्द करना पड़ा था.
वहीं, नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘कांग्रेस की दृष्टि से अंतरिम रूप में वह इस समय सबसे अच्छा चुनाव हैं. वह पार्टी के सभी समूह में स्वीकार्य हैं. यह पुराने और नए नेताओं में समन्वय नहीं होने का नतीजा है. मुकुल वासनिक का नाम पुराने नेताओं की ओर से आया था, लेकिन युवाओं को वह मंजूर नहीं था.’
वे कहती हैं, ‘राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद पार्टी एकदम दिशाहीन हो गई थी. अनुच्छेद 370 पर सभी को पता था कि कुछ होने वाला है लेकिन पार्टी ने तब जाकर अपना रुख साफ किया जब उसके कई नेता पार्टी लाइन से हटने लगे. ऐसी दिशाहिनता कभी नहीं दिखी है. ऐसे समय में यह जरुरी था कि कोई नेतृत्व करे तो सोनिया गांधी सबसे सही चेहरा हैं.’
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद और सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाए जाने से पहले पार्टी के अंदर और बाहर नए और पूर्ण कालिक अध्यक्ष के रूप में लगातार कई नाम चल रहे थे. इन नामों में पार्टी के खास और पुराने नेताओं के साथ युवा नेता भी शामिल थे.
पुराने नेताओं में जहां मुकुल वासनिक का नाम सबसे आगे चल रहा था, वहीं पर मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत, सुशील कुमार शिंदे सहित कई अन्य वरिष्ठ नेताओं के नामों की चर्चा थी.
दुबे कहते हैं, ‘गांधी परिवार अगर चाहेगा तो एक दिन में किसी गैर गांधी व्यक्ति को अध्यक्ष बना सकता है. मुकुल वासनिक का नाम चल रहा था और हम लोगों को एक दिन पहले तक यकीन था कि उन्हें अध्यक्ष बना दिया जाएगा. इसका मतलब है कि गांधी परिवार ही किसी को अध्यक्ष नहीं बनाना चाहता है. अगर तीनों गांधी किसी गैर-गांधी को अध्यक्ष बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं तो उन्हें रोकने वाला कौन है?’
किदवई कहते हैं, ‘मीडिया में कोई भ्रांति रही हो तो अलग बात है लेकिन कांग्रेसजन में यह बात साफ है कि उनके लिए नेहरु-गांधी परिवार का कोई विकल्प नहीं है.’
वे कहते हैं, ‘लोकसभा में जब अधीर रंजन चौधरी को नेता बनाया गया तब शशि थरूर और मनीष तिवारी चुनाव नहीं लड़े, इससे पता चलता है कि कांग्रेस पार्टी के नेताओं में महत्वाकांक्षा ही खत्म हो गई है, तो उसमें सोनिया गांधी क्या करेंगी.’
पार्टी के वृद्ध नेताओं के अलावा कई युवा नेताओं के नामों पर भी जोर-शोर से चर्चा चल रही थी. इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा का नाम सबसे आगे चल रहा था.
किदवई कहते हैं, ‘2019 के चुनाव में पार्टी के नए और पुराने दोनों ही नेता बुरी तरह चुनाव हारे. राजस्थान में अशोक गहलोत का बेटा हारा, सचिन पायलट ने जितने भी लोगों को समर्थन दिया सब धरासाई हो गए, सिंधिया खुद हार गए, कमलनाथ का बेटा जीता लेकिन कांग्रेस मध्य प्रदेश में तमाम सीटें हार गई.’
पार्टी में नए और पुराने नेताओं में मतभेद पर दुबे कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी में ओल्ड गार्ड और न्यू गार्ड की जो भी लड़ाई है वो गांधी परिवार के वफादारों की लड़ाई है. अब इसी चक्कर में हो यह गया है कि गांधी परिवार में मतभेद पैदा हो गया है.
पार्टी में लंबे समय से प्रियंका गांधी को नेतृत्व दिए जाने की मांग की जाती रही है. शनिवार को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के दौरान पार्टी के ही एक नेता जगदीश शर्मा अपने 10-20 कार्यकर्ताओं के साथ प्रियंका गांधी वाड्रा को अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे थे.
हालांकि, अपने इस्तीफे के दौरान ही राहुल गांधी ने साफ कर दिया था कि न तो वह और न ही गांधी परिवार का कोई दूसरा सदस्य इस जिम्मेदारी को संभालेगा. इससे प्रियंका गांधी को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपे जाने की संभावनाओं पर विराम लग गया.
दुबे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि यह संकट गांधी परिवार के भीतर का संकट है. गांधी परिवार में एकता नहीं रह गई है. राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी में जैसे पहले यूनाइटेड फ्रंट होता था, अब वैसा नहीं रह गया है.’
वे कहते हैं, ‘राहुल गांधी ने खुद को एक कदम पीछे खींचा क्योंकि उन्हें लगता है कि जो पारिवारिक समर्थन मिलना चाहिए था, वो पारिवारिक समर्थन उन्हें नहीं मिला. वो तीन राज्यों के मुख्यमंत्री अपने मन के बनाना चाहते थे, लेकिन नहीं बना पाए. बाद में उन्होंने इस्तीफा दिया तो तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वे इस्तीफा चाहते थे तो उनसे इस्तीफा भी नहीं ले पाए. उनका इस्तीफा दिलवाने में उनकी मां और बहन ने मदद भी नहीं की.’
वे कहते हैं, ‘यही कारण था कि जाते-जाते वे कह गए कि किसी गैर-गांधी को अध्यक्ष बनाया जाए. इससे पूरा मामला गड़बड़ हो गया वरना बड़ी आसानी से प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाया जा सकता था. उसी चीज को दोबारा करने के लिए सोनिया गांधी बीच में आई हैं और कुछ दिनों बाद प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बना दिया जाएगा.’
शनिवार को हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के दौरान नए अध्यक्ष के चुनाव को अपने प्रभाव से बचाने और लोकतांत्रिक दिखाने के लिए सोनिया और राहुल गांधी ने खुद को इस पूरी प्रक्रिया से अलग कर लिया था.
कांग्रेस की शीर्ष समिति ने अध्यक्ष के चुनाव को लेकर क्षेत्रीय नेताओं की राय जानने के लिए पांच समूह बनाए थे. हर समूह एक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहा था, जिसमें पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और पूर्वोत्तर शामिल थे.
किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस कार्य समिति की कार्यवाही औपचारिकता थी या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि आप उसे किस चश्मे से देख रहे हैं.’
भाजपा का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘भाजपा की एक राजनीतिक सोच है. वहां एक संघ परिवार है. 2013 में जिन हालात में चुनाव हुआ. वहां तो कोई मतगणना की नहीं गई थी. लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज जैसे नेताओं के रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी को चुना गया था. मोदी ने अमित शाह को अध्यक्ष चुना. उसके लिए भी न कोई चुनाव हुआ और न किसी किस्म की कोई प्रक्रिया हुई. कांग्रेस ने तो 400 लोगों का परामर्श लिया, लेकिन वहां कितने लोगों से परामर्श लिया गया था.’
वहीं, अन्य राजनीतिक दलों का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव अध्यक्ष बन गए, मायावती तो पूरी जिंदगी अध्यक्ष रहने वाली हैं. वामपंथियों में भी पोलित ब्यूरो के लिए कोई चुनाव नहीं होता है.’
वे कहते हैं, ‘तमाम भारतीय राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र कहीं भी नहीं है. इसलिए कांग्रेस को एक हास्य का पात्र बनाना एक अभिजात्य सोच है.’
वे कहते हैं, ‘एक बात तो तय है कि गांधी परिवार के साथ या तो कांग्रेस का पतन होगा या फिर दोबारा वापसी होगी. कांग्रेस वालों ने तय कर लिया है कि इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है.’
चौधरी कहती हैं, ‘कांग्रेस कार्य समिति में कोई और नाम नहीं लिया गया. उसमें केवल राहुल गांधी से इस्तीफा वापस लेने को कहा गया जो कि गैरजरुरी था. अगर राहुल गांधी के नेतृत्व के बाद किसी को भी अध्यक्ष बना दिया जाता तो राहुल के कदम का बड़ा असर देखने को मिल सकता था. उन्होंने एक नैतिक तरीका अपनाया था, जैसा कि नेता कम करते हैं.’
दुबे कहते हैं, ‘सोनिया गांधी पहले भी कांग्रेस को संकट से निकाल चुकी हैं, दो-दो बार चुनाव भी जीतवा चुकी हैं. वो होशियार महिला हैं, शांत होकर फैसले लेती हैं. वो अंदरूनी और बाहरी दोनों राजनीति से अच्छी तरह से बाकिफ हैं. उनके आने से कांग्रेस पार्टी में एक बार फिर से सुसंगति और एकता कायम हो जाएगी.’
1997 में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य बनने वालीं सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहने वाली नेता हैं. वह 1998 से 2017 तक 19 साल तक लगातार अध्यक्ष रह चुकी हैं.
बता दें कि 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद 1998 में सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली थी. इसके बाद 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए उन्होंने चुनाव पूर्व गठबंधन बनाकर एक सफल प्रयोग किया था और भाजपा के इंडिया शाइनिंग के नारे को धूमिल कर दिया था.
फिर 2009 में वे भाजपा के लौह पुरुष कहे जाने वाले फायरब्रांड नेता लालकृष्ण आडवाणी के मजबूत नेतृव और कट्टर हिंदुत्ववादी एजेंडे को हराने में सफल हुईं. यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में जब गठबंधन में दरार आ गई तब उन्होंने उसे भी बड़े ही साहस के साथ संभाला था.
इसके बाद 2003 में जब राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी का हिस्सा बने तो परिवारवाद की राजनीति से इतर जाते हुए पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ देश की जनता में एक युवा और उभरते हुए नेता छवि दिखी. 2004 के लोकसभा चुनाव में वे गांधी परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे.
2007 में पार्टी महासचिव बनाए जाने के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के पुराने ढर्रे से अलग हटकर काम किया और युवाओं को आगे लाने का प्रयास करते रहे. इसके बाद जनवरी 2013 में जयपुर में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था.
ऐसा माना जा रहा था कि 2014 के लोकसभा चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं की लंबे समय की मांग को मूर्त रुप देते हुए उन्हें प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है. हालांकि, 2014 में कांग्रेस पार्टी को लोकसभा चुनावों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और वह मात्र 44 सीटों पर सिमट गई.
दिसंबर 2017 में आखिरकार स्वास्थ कारणों का हवाला देते हुए सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ दिया और राहुल गांधी की ताजपोशी कर दी गई. इसके बाद दिसंबर 2018 में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा का गढ़ माने जाने वाले राज्यों में जीत दर्ज की.
हालांकि, लोकसभा चुनाव 2019 में जहां कांग्रेस पार्टी को एक बार फिर से बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा तो वहीं राहुल गांधी परंपरागत अमेठी सीट से भी चुनाव हार गए. दो जगहों से चुनाव लड़ने वाले राहुल केरल की वायनाड सीट से सांसद चुने गए.
लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद 25 मई को हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में राहुल गांधी ने जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफे की घोषणा कर दी थी. हालांकि, इस दौरान उन्होंने साफ कर दिया कि वे कांग्रेस पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाते रहेंगे.