कश्मीर का मन मरघट बन गया है…

कहा जा रहा है कि लोकतंत्र बहुमत से ही चलता है और बहुमत है, लेकिन ‘बहुमत’ मतलब बहु-मत हों, विभिन्न मत, लेकिन संसद में क्या मतों का आदान-प्रदान हुआ? एक आदमी चीख रहा था, तीन सौ से ज्यादा लोग मेजें पीट रहे थे. यह बहुमत नहीं, बहुसंख्या है. आपके पास मत नहीं, गिनने वाले सिर हैं.

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Indian policemen stand guard in a deserted street during restrictions in Jammu on August 6. Photo : Reuters

कहा जा रहा है कि लोकतंत्र बहुमत से ही चलता है और बहुमत है, लेकिन ‘बहुमत’ मतलब बहु-मत हों, विभिन्न मत, लेकिन संसद में क्या मतों का आदान-प्रदान हुआ? एक आदमी चीख रहा था, तीन सौ से ज्यादा लोग मेजें पीट रहे थे. यह बहुमत नहीं, बहुसंख्या है. आपके पास मत नहीं, गिनने वाले सिर हैं.

Indian policemen stand guard in a deserted street during restrictions in Jammu on August 6.Photo : Reuters
जम्मू में बंद के दौरान सुरक्षाकर्मी. (फोटो: रॉयटर्स)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आधे घंटे से कुछ ज्यादा ही समय तक राष्ट्र को संबोधित किया लेकिन देश यह समझने में असफल रहा कि वे किसे और क्यों संबोधित कर रहे थे. यदि उनके संबोधन का सार ही कहना हो तो कहा जा सकता है कि वे कश्मीरियों के बहाने देश को अपने उस कदम का औचित्य बता रहे थे जिसे वे खुद भी जानते नहीं हैं.

वे ऐसा सपना बेचने की कोशिश कर रहे थे जिसे वे देश में कहीं भी साकार नहीं कर पा रहे हैं. कश्मीर को जिस बंदूक के बल पर आज चुप कराया गया है, उसी बंदूक को दूरबीन बना कर प्रधानमंत्री कश्मीर को देख और दिखा रहे थे. ऐसा करना सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण और देश के लिए अपशकुन है.

प्रधानमंत्री ने नहीं कहा कि ऐसा क्यों हुआ है कि दिन-दहाड़े एक पूरा राज्य ही देश के नक्शे से गायब हो गया- भारतीय संघ के 28 राज्य थे, अब 27 ही बचे ! यह किसी पीसी सरकार का जादू नहीं है कि अचंभित हो कर हम जिसका मजा लें, क्योंकि जादू के खेल में हमें पता होता है कि हम जो देख रहे हैं वह यथार्थ नहीं है, जादू है, माया है.

लेकिन यहां जो हुआ है वह ऐसा यथार्थ है जो अपरिवर्तनीय-सा है, कुरूप है, क्रूर है, अलोकतांत्रिक है और हमारी लोकतांत्रिक राजनीति के दारिद्रय का परिचायक है.

इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल के दौरान भी लोकसभा का ऐसा अपमान नहीं किया था, और न तब के विपक्ष ने ऐसा अपमान होने दिया था जैसा पिछले दो दिनों में राज्यसभा और लोकसभा में हुआ और उन दो दिनों में हमने प्रधानमंत्री को कुछ भी कहते नहीं सुना.

यह लोकतांत्रिक पतन की पराकाष्ठा है. कहा जा रहा है कि लोकतंत्र बहुमत से ही चलता है, और बहुमत हमारे पास है ! लेकिन ‘बहुमत’ शब्द में ही यह मतलब निहित है कि वहां बहु-मत होना चाहिए, विभिन्न मत, सबका विमर्श!

राज्यसभा और लोकसभा में क्या उन दो दिनों में मतों का कोई आदान-प्रदान हुआ ? बस, एक आदमी चीख रहा था, तीन सौ से ज्यादा लोग मेजें पीट रहे थे और बाकी पराजित, सिर झुकाए बैठे थे. यह बहुमत नहीं, बहुसंख्या है. आपके पास मत नहीं, गिनने वाले सिर हैं.

पिछले सालों में हमसे कहा जा रहा था कि कश्मीर का सारा आतंकवाद सीमा पार से पोषित, संचालित और निर्यातित है. इसलिए तो बारंबार हम पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर रहे थ, आप सर्जिकल स्ट्राइक कर रहे थे.

अचानक गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने देश के पैरों तले से वह जमीन ही खिसका दी. अब पाकिस्तान कहीं नहीं है, प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद का असली खलनायक धारा-370 थी, और तीन परिवार थे.

वे दोनों ध्वस्त हो गये हैं और अब आतंकवादमुक्त कश्मीर डल झील की सुखद हवा में सांस लेने को आजाद है. कैसा विद्रूप है! हम भूले नहीं हैं कि यही प्रधानमंत्री थे और ऐसा ही एक सिरविहीन फैसला था नोटबंदी!

उसके आौचित्य की बात कहां से चली थी और कितनी-कितनी बार बदलती हुई कहां पहुंचाई गई थी! नकली मुद्दे इसी तरह खोखले होते हैं. यही कश्मीर के साथ भी होने वाला है.

New Delhi: Union Home Minister Amit Shah speaks during the resolution on Kashmir in the Lok Sabha, in New Delhi, Tuesday, Aug 6, 2019. (LSTV/PTI Photo) (PTI8_6_2019_000028B)
लोकसभा में गृहमंत्री अमित शाह (फोटो: पीटीआई)

कहा जा रहा है कि कुछ मुट्ठी भर लोगों ने और तीन परिवारों ने कश्मीर में सारी लूट मचा रखी थी! मचा रखी होगी, तो उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दें आप; यहां तो आपने तो सारे राज्य को जेल बना दिया!

क्या आपकी सरकार, आपका राज्यपाल, प्रशासन, पुलिस सब इतने कमजोर हैं कि तीन परिवारों का मुकाबला नहीं कर सकते थे?

कल तक तो इन्हीं परिवारों के साथ मिल कर कांग्रेस ने, अटलजी ने और आपने सरकारें चलाई थीं, तब क्या इस लूट में आपसी साझेदारी चल रही थी?

और कौन कह सकता है कि यह पूरा राजनीतिक-तंत्र बगैर लूट के चल सकता है? कौन-सी सरकारी परियोजना है कि जहां आवंटित पूरी राशि उसी में खर्च होती है? कौन-सा राज्य है जो इस या उस माफिया के हाथ में बंधक नहीं है? अब तो माफियाओं की सरकारें बना रहे हैं हम!

कोई यही बता दे कि राजनीतिक दलों की कमाई के जो आंकड़े अखबारों में अभी ही प्रकाशित हुए हैं, उनमें ये अरबों रुपये शासक दल के पास कैसे आए? ऐसा क्यों है कि जो शासन में होता है धन की गंगोत्री उसकी तरफ बहने लगती है?

बात कश्मीर की नहीं है, व्यवस्था की है. महात्मा गांधी ने इस व्यवस्था को वैसे ही चरित्रहीन नहीं कहा था. कश्मीर हमें सौंपा था इतिहास ने इस चुनौती के साथ कि हम इसे अपने भूगोल में समाहित करें.

ऐसा दुनिया में कहीं और हुआ तो मुझे मालूम नहीं कि एक भरा-पूरा राज्य समझौता-पत्र पर दस्तखत कर के किसी देश में सशर्त शरीक हुआ हो. कश्मीर ऐसे ही हमारे पास आया और हमने उसे स्वीकार किया. धारा-370 इसी संधि की व्यवहारिकता का नाम था जिसे अस्थाई व्यवस्था तब ही माना गया था – लिखित में भी और जवाहरलाल नेहरू के कथन में भी.

बहुत कठिन चुनौती थी, क्योंकि इतिहास ने कश्मीर ही नहीं सौंपा था हमें, साथ ही सौंपी थी मूल्यविहीन सत्ता की बेईमानी, नीतिविहीन राजनीति की लोलुपता, सांप्रदायिकता की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कुचालें तथा पाकिस्तान के रास्ते साम्राज्यवादी ताकतों की दखलंदाजी!

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कश्मीर भले स्वर्ग कहलाता हो, वह हमें स्वार्थ के नर्क में लिथड़ा मिला था. और तब हम भी क्या थे ? अपना खंडित अस्तित्व संभालते हुए, एक ऐसे रक्तस्नान से गुजर रहे थे जैसा इतिहास ने पहले देखा नहीं था.

भारतीय उपमहाद्वीप के अस्तित्व का वह सबसे नाजुक दौर था. एक गलत कदम, एक चूक या कि एक फिसलन हमारा अस्तित्व ही लील जाती!  इसलिए हम चाहते तो कश्मीर के लिए अपने दरवाजे बंद कर ही सकते थे. हमने वह नहीं किया.

सैकड़ों रियासतों के लिए नहीं किया, जूनागढ़ और हैदराबाद के लिए नहीं किया, तो कश्मीर के लिए भी नहीं किया. वह साहस था, एक नया ही राजनीतिक प्रयोग था.

आज इतिहास हमें इतनी दूर ले आया है कि हम यह जान-पहचान नहीं पाते हैं कि जवाहरलाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की तिकड़ी ने कैसे वह सारा संभाला, संतुलन बनाया और उसे एक आकार भी दिया.

ऐसा करने में गलतियां भी हुईं, मतभेद भी हुए, राजनीतिक अनुमान गलत निकले और बेईमानियां भी हुईं लेकिन ऐसा भी हुआ कि हम कह सके कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है; और जब हम ऐसा कहते थे तो कश्मीर से भी उसकी प्रतिध्वनि उठती थी. आज वहां बिल्कुल सन्नाटा है. कश्मीर का मन मरघट बन गया है.

हम कश्मीर को इसी तरह बंद तो रख नहीं सकेंगे. दरवाजे खुलेंगे, लोग बाहर निकलेंगे. उनका गुस्सा, क्षोभ सब फूटेगा. बाहरी ताकतें पहले से ज्यादा जहरीले ढंग से उन्हें उकसाएंगी. और हमने संवाद के सारे पुल जला रखे हैं तो क्या होगा?

तस्वीर खुशनुमा बनती नहीं है. शासक दल के लोग जैसा मानस दिखा रहे हैं और अब कश्मीर के चारागाह में उनके चरने के लिए क्या-क्या उपलब्ध है, इसकी जैसी बातें लिखी-पढ़ी व सुनाई जा रही हैं, क्या वे बहुत वीभत्स नहीं हैं?

प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि यह छाती फुलाने जैसी बात नहीं है, नाजुक दौर को पार करने की बात है. लेकिन प्रधानमंत्री इसी बात के लिए तो जाने जाते हैं कि वे कहते कुछ हैं और उनका इशारा कुछ और होता है.

आखिर संसद को रोशन करने की क्या जरूरत थी ? अपने देश के एक हिस्से पर हमें लाचार हो कर कड़ी कार्रवाई करनी पड़ी इसमें जश्न मनाने जैसा क्या था? यह जख्म को गहरा करता है.

जनसंघ हो कि भारतीय जनता पार्टी-  इसके पास देश की किसी भी समस्या के संदर्भ में कभी कोई चिंतन रहा ही नहीं है.

रहा तो उनका अपना एजेंडा रहा है जो कभी, किसी ने, कहीं तैयार कर दिया था, इन्हें उसे पूरा करना है. इसलिए ये सत्ता में जब भी आते हैं, अपना एजेंडा पूरा करने दौड़ पड़ते हैं. उन्हें पता है कि संसदीय लोकतंत्र में सत्ता कभी भी हाथ से निकल सकती है. जनता पार्टी के वक्त या फिर अटल-दौर में, तीन-तीन बार सत्ता को हाथ से जाते देखा है इन्होंने.

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लोकतंत्र सत्ता दे तो भली; सत्ता ले ले, यह हिंदुत्व के दर्शन को पचता नहीं है क्योंकि वह मूल में एकाधिकारी दर्शन है. इसलिए 2012 से इस नई राजनीतिक शैली का जन्म हुआ है जो हर संभव हथियार से लोकतंत्र को पंगु बनाने में लगी है.

इसके रास्ते में आने वाले लोग, व्यवस्थाएं, संवैधानिक प्रक्रियाएं और लोकतांत्रिक नैतिकता की हर वर्जना को तोड़-फोड़ देने का सिलसिला चल रहा है.

2014 से हमारी संवैधानिक संस्थाओं के पतन के एक-पर-एक प्रतिमान बनते जा रहे हैं और हर नया, पहले वाले को पीछे छोड़ जाता है. कश्मीर का मामला पतन का अब तक का शिखर है.

People draw and write messages on a road during a protest against the scrapping of the special constitutional status for Kashmir by the government, in New Delhi, India, August 7, 2019. REUTERS/Anushree Fadnavis
नई दिल्ली में अनुच्छेद 370 हटाने के खिलाफ हुआ एक प्रदर्शन. (फोटो: रॉयटर्स)

भारत में विलय के साथ ही कश्मीर हमें कई स्तरों पर परेशान करता रहा है. आप इसे इस तरह समझें कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हों और उनके आदेश से उनके खास दोस्त शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी हो, उनकी सरकार की बर्खास्तगी हो तो हालात कितने संगीन रहे होंगे!

यह तो भला था कि तब देश के सार्वजनिक जीवन में जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, राममनोहर लोहिया जैसी सर्वमान्य हस्तियां सक्रिय थीं कि जो सरकार और समाज को एक साथ कठघरे में खड़ा करती रहती थीं और सरकारी मनमानी और अलगाववादी मंसूबों के पर कतरे जाते थे. आज वहां भी रेगिस्तान है.

इसलिए भारत के लोगों पर, जो भारत को प्यार करते हैं और भारत की प्रतिष्ठा में जिन्हें अपनी जीवंत प्रतिष्ठा महसूस होती है, आज के शून्य को भरने की सीधी जिम्मेदारी है.

संसद में जो हुआ है वह स्थाई नहीं है. कोई भी योग्य संसद उसे पलट सकती है. अपने प्रभुत्व पर इतराती इंदिरा गांधी का संकटकाल पलट दिया गया तो यह भी पलटा जा सकता है. जो नहीं पलटा जा सकेगा वह है मन पर लगा घाव, दिल में घर कर गया अविश्वास!

इसलिए इस संकट में कश्मीरियों के साथ खड़े रहने की जरूरत है. जो बंदूक और फौज के बल पर घरों में असहाय बंद कर दिए गये हैं, उन्हें यह बताने की प्रबल जरूरत है कि देश का ह्रदय उनके लिए खुला हुआ है, उनके लिए धड़कता है.

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं.)

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