क्या भगवा झंडे के समर्थक संघ और संघ से जुड़े किसी भी व्यक्ति या दल की तिरंगे के प्रति ईमानदारी पर विश्वास किया जा सकता है?
15 अगस्त के मौके पर छठी दफा लाल किले पर नरेंद्र मोदी तिरंगा लहरायेंगे. मुझे पूरा यकीन है कि इस बार मोदी अपने भाषण में कश्मीर पर भारत की चढ़ाई और वहां लाल चौक पर तिरंगा फहराए जाने का लंबा चौड़ा बखान करेंगे. अपनी सरकार की राष्ट्रवादी वीरता का आल्हा-ऊदल की तर्ज़ पर गुणगान करेंगे-वर्तमान की भू-राजनीतिक सच्चाइयों को नकारते हुए.
मुमकिन है कि अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के समय का निर्णय 15 अगस्त के भाषण को ध्यान में रख कर चुना गया- जैसे पुलवामा के बाद बालाकोट में दिए गए जवाब का समय चुनाव के पहले चुना गया.
मोदी सरकार की राय में शायद देश का झंडा सिर्फ शासक के बाहुबली होने का प्रतीक है- देश में भाईचारे, शांति, आर्थिक संपन्नता वगैरह से उसका कोई लेना-देना नहीं है. उनकी राय में राष्ट्र का मतलब है भूखंड और उस पर आधिपत्य- वहां पर बसने वाले लोग और उनकी ख़ुशहाली नहीं…
इस मानसिकता की पृष्ठभूमि के बीच सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री के रूप में मोदी द्वारा तिरंगे का लाल किले पर फहराया जाना विजय और गौरव की भावना जगाता है? या फिर ज़ख्मों पर नमक छिड़कता है? क्या मेरी पीढ़ी वालों के लिए आज के माहौल में इस प्रथा के कोई मायने बचे हैं? क्या आज की पीढ़ी तिरंगे की महत्ता जान पाएगी?
बचपन में छोटे शहर में सुबह-सवेरे तिरंगा लेके, देशभक्ति गाने हुए अपने साथियों के साथ जोश से प्रभातफेरी निकालते थे और फिर उससे भी ज्यादा जोश के साथ किसी ऐसी दुकान या घर पर जहां रेडियो होता था, नेहरू जी का लाल किले से भाषण सुनते थे. जब वे अपना भाषण खत्म करते तो उनके साथ साथ हमारे चारों तरफ भी जय हिंद का नारा गूंज उठता.
हरेक के मन में उस आवाज के जरिये उनकी और समारोह की एक गौरवशाली छवि बन जाती थी- लाखों दिलों में आज तक वही छवि बरकरार है. टीवी पर किसी और प्रधानमंत्री के वही नारे न तो वो जज़्बा जगाते हैं न ही माहौल में जय हिंद के नारे की गूंज सुनाई पड़ती है.
बचपन में तिरंगे में शामिल प्रतीकों का पता नहीं था, न ही झंडे फहराए जाने की महत्ता का. तब यह पता नहीं था कि तिरंगे में जो भगवा रंग है वो प्रतीक है कुर्बानी और त्याग का जो हिंदू, बुद्ध, और जैन धर्मों के तथाकथित गुण हैं; सफेद रंग शांति का प्रतीक है और साथ ही ईसाई धर्म के गुणों का; और हरा रंग उर्वरता, निर्भयता, अमरता के साथ इस्लाम के गुणों का.
और बीचों-बीच अशोक चक्र अथवा धर्म चक्र प्रतीक है सच्चाई, न्याय और प्रगतिशीलता का. मतलब चाहे न मालूम हों, मगर तिरंगे का सिर्फ जिक्र भर ही वतनपरस्ती की भावना से ओत-प्रोत कर देता था.
पता नहीं कि तिरंगे में निहित आदर्शवादी प्रतीकों के मतलब और सिद्धांत के बारे में आजकल पढ़ाया जाता है या नहीं! लोगों में तिरंगे के बारे में जानने की कोई उत्सुकता है या नहीं! मुझे लगता है कि यह संभावना कम ही है.
आखिरकार कोई भी चीज तब ही असर रखती है जब उस से जुड़ी हुई भावना में उल्लास हो, गौरव हो. मुझे नहीं लगता कि भाजपा के सांसद, विधायक और मंत्री भी तिरंगे की महत्ता समझते हैं या उसका आदर करते हैं.
भावना (या रस) संचालक की ईमानदारी और ग्रहण करने वाले के विश्वास के तारतम्य से जागती है. आज की सरकार की तिरंगे के प्रति क्या आस्था है?
इस सरकार की जानकारी में अगर अख़लाक़ के कत्ल के आरोपी का शव तिरंगे में लपेटा जाता है, कठुआ मामले के आरोपियों के जुलूस तिरंगे के साथ निकलते हैं या मोटर साइकिलों पर सवार बजरंग दली तिरंगे और लाठियों के साथ मुसलमान मोहल्लों में जय श्री राम के नारे जबरन लगवाने के लिए जाते हैं, तो सरकार लाख संविधान की कसम खाए और तिरंगे के बारे में शानदार जुमलेबाजी करे लेकिन उसकी मानसिकता नहीं छिपेगी.
सरकार के किसी भी व्यक्ति- खासतौर से उसके बड़बोले प्रधानमंत्री- द्वारा तिरंगा फहराया जाना गौरव की भावना नहीं जगाएगा. भाजपा सरकार इस बात को कतई नहीं छिपाती कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी विचारधारा का अनुसरण करती है.
संघ अपने अहातों में भगवा झंडा फहराता है; उस झंडे को हिंदू राष्ट्र का प्रतीक मानता है. डंके की चोट पर तिरंगे झंडे से मतभेद जताता है और तब भी अपने आप को राष्ट्रवादिता की परिभाषा मानता है. मोदी संघ के दूसरे संघसरचालक गोलवलकर को अपना गुरू मानते हैं – उन पर एक किताब भी लिखी है.
गोलवलकर ने तिरंगे के बारे में कहा था, ‘हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए नया झंडा तय किया है. उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह भटकाव और नकल की एक और मिसाल है. हमारा देश प्राचीन और महान है और उसका अपना गौरवपूर्ण भूत है. तो क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था इन हजारों सालों तक. बेशक था, फिर हमारे दिमागों में यह सूनापन और खोखलापन क्यों?’ (गोलवलकर की किताब ‘ड्रिफ्टिंग एंड ड्रिफ्टिंग’ से)
2001 में कुछ लोगों ने नागपुर में संघ के अहाते में जबरन तिरंगा फहराया. इस पर संघ की पत्रिका ऑर्गनाइजर में कहा गया, ‘…वे लोग जो क़िस्मत के झटके से सत्ता में आ गए हैं शायद हमारे हाथों में तिरंगा थमाएंगे, लेकिन हिंदू न तो उसे अपनाएंगे न ही आदर देंगे. शब्द तीन अपने ही आप में अशुभ है और ऐसा झंडा यकीनन बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और देश के लिए हानिकारक है.’
क्या भगवा झंडे के समर्थक संघ और संघ से जुड़े किसी भी व्यक्ति या दल की तिरंगे के प्रति ईमानदारी पर विश्वास किया जा सकता है? प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने जो झंडे गाड़े हैं, उनका रूप तिरंगा नहीं लगता.
ईमानदारी के लिहाज से मोदी का तिरंगा फहराना शक पैदा करता है, विश्वास नहीं. यूं तो ऐसा हमेशा से ही था, मगर इस बार पंद्रह अगस्त की पृष्ठभूमि में कश्मीर है. जिस संविधान और झंडे की कद्र भाजपा हिंदुस्तान भर में नहीं करती, उसे कश्मीर पर थोपने के विरोधाभास को अपनी राष्ट्रवादिता का सबूत करार देती है.