आज हिंदी अपराध-बोध की भाषा है. इस पर यह गंभीर आरोप है कि इसने देश की अनेक बोलियों और भाषाओं का बेरहमी से सरकार की शह पर कत्ल किया है.
आज विश्व हिंदी दिवस है. 26 जनवरी 1965 को राजभाषा के रूप में हिंदी को एक ‘आदेश’ से देश की आधिकारिक भाषा बना दिया गया. यह ठीक ऐसा है कि एक बढ़ते हुए बच्चे को उसके माता-पिता या संरक्षक कुछ ज्यादा ही चढ़ा दें और दूसरे बच्चों को उससे चिढ़ हो जाए.
संरक्षकों की अपनी राजनीति हो सकती है पर हिंदी एक बनती हुई, बनाई जाती हुई, ढाली जाती हुई भाषा बनकर अपने ऐतिहासिक अपराधबोध के साथ मुक्त बाज़ार के सहयोग से अपनी अनिवार्य मौजूदगी बनाती जा रही है.
हर साल की तरह इस बार भी एक तरफ राजकीय संरक्षण में हिंदी का सत्कार होगा. राजभाषा विभाग और उनके अधिकारी आज अपनी नौकरी में होने की सार्थकता सिद्ध करेंगे.
दूसरी तरफ एक समझदार जमात उसी हिंदी को कटघरे में खड़ा करेंगे. इस वाद-विवाद में ‘हिंदी’ शर्मसार होती रहेगी. ये बात सही है कि देश में कही-सुनी जाने वाली लगभग 700 भाषाओं और बोलियों में से किसी एक भाषा को दिया जाने वाला यह सत्कार न केवल गैर-जरूरी है बल्कि उससे भाषायी समरसता के बजाय द्वेष ही पैदा होता है.
हिंदी मेरे लिए कम से कम न गर्व की भाषा है और न ही गौरव की. मैं पूरे होशोहवाश में यह भी कहना चाहता हूं कि न तो मैं हिंदी का सेवक हूं और न ही हिंदी की चरणपूजा करता हूं.
मातृभाषा के रूप में मेरे पास समृद्ध बुंदेली भाषा है जो कम से कम तीन पीढ़ियों से मेरे घर-गांव में बोली जा रही है.
एक साहब उस युग में पैदा हुए जिसे कहा जाता है कि यह देश में पुनर्जागरण का युग था. बाद में हिंदी भाषा और साहित्य के विद्यार्थियों को इसी परिघटना को ‘हिंदी पुनर्जागरण’ के रूप में भी पढ़ाया जाता है.
वे साहब उस मंडली के सदस्य थे, जो हिंदी की घनघोर पैरवी कर रहे थे. भारतेंदु युग के नाम से भी रेखांकित इस युग में प्रताप नारायण मिश्र नाम के इन साहब इस विशाल देश के सबसे बड़े भू-भाग में किसी न किसी रूप में इस बनती हुई हिंदी से साबका रखने वाली बड़ी आबादी को भाषा के नाम पर एकजुट कर रहे थे और गर्व करना सिखा रहे थे.
उन्होंने अतिशयोक्ति में एक बात कह दी- ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ इस गर्वोक्ति और अतिकथन को कहे शताब्दी से ज्यादा हो गया लेकिन जो अमिट कलंक इसने हिंदी नामक एक बनती हुई भाषा को दे दिया उसे आज़ादी के दौर के बहुभाषी नायक, हिंदी-उर्दू के समावेशी लेखक, उनसे भी पहले के अमीर खुसरो, मीर, ग़ालिब जैसे लेखक, शायर, कवि, जननेता जीवनपर्यंत न मिटा सके.
जो पीढ़ी इस भाषा को सरकारी संरक्षण मिलने के बाद पैदा हुई वो तो खैर इस कलंक के नीचे ऐसे दबी कि ताउम्र उबर न पाई. आज हिंदी अपराध-बोध की भाषा है. इस पर यह गंभीर आरोप है कि इसने देश की अनेक बोलियों और भाषाओं का बेरहमी से सरकार की शह पर कत्ल किया है.
इसके हाथ कई बोलियों और भाषाओं के खून से सने हैं. यहां भी कई बार अच्छे पढ़े-लिखे लोग अतिकथन से काम लेते हुए इसे घनघोर सांप्रदायिक भाषा तक कह देते हैं और हिंदी को चुपचाप यह सुन लेना पड़ता है क्योंकि सत्ता-संरचना में यह एक आंतरिक उपनिवेश की भाषा तो यह बनाई जा चुकी है.
यह दिलचस्प है कि पिछले 45 सालों से हर वर्ष एक ही रोना रोया जा रहा है कि हिंदी ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं बन पाई. पलट कर यह सवाल नहीं उठाया गया कि इसके लिए आपने क्या किया? जिन्होंने किया वो चुपचाप अपना काम करते रहे.
रवीश कुमार को हिंदी पत्रकारिता के लिए जो मान्यता देश दुनिया में मिली है वह निश्चित तौर पर उनकी भाषा की विशिष्टता के लिए नहीं बल्कि उस भाषा में प्रस्तुत किए गए कंटेंट या विषय वस्तु के लिए मिली है.
यूं रवीश की भाषा वो ‘टकसाली’ हिंदी नहीं है जिसे ‘राजभाषा’ कहा जाता है बल्कि उनकी हिंदी का सुर, टोन, लहजा और संरचना में उनकी अपनी मातृभाषा की झलक हिंदी से पहले आती है.
लालू प्रसाद यादव ने भी सरकारी हिंदी के तटबंध तोड़कर उसे आम फहम हिंदी बनाया था और उनकी लोकप्रियता के पीछे न केवल अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति ही थी बल्कि इस पूरे राजनीतिक हस्तक्षेप की धमक थी जो अपने साथ एक भाषा लेकर आई.
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बनाई गईं संस्थाओं का उद्देश्य अगर हिंदी को यहां तक लाना था तो उन्हें अन्ना हजारे के आंदोलन को ‘राष्ट्रीय आंदोलन’ की उपाधि से सम्मानित करना चाहिए.
उस समय जब देश हिंदीमय होते हुए धीरे-धीरे भाजपामय और मोदीमय होता जा रहा था तब जिन भाषाओं का कत्ल हिंदी ने किया है उन भाषाओं के विद्वानों को सामने आना चाहिए था और कहना चाहिए था कि यह थोपी हुई भाषा है, हम इसका प्रतिवाद करते हैं.
लेकिन ये क्या… यहां तो देश के कोने-कोने में लोगों को अन्ना की बात समझ में आ रही थी. क्या अंगिका, क्या मैथिली, क्या ब्रज, क्या बुंदेली सब उसी तरफ खिंचे चले जा रहे थे.
इस आंदोलन ने मोदी की ताजपोशी में बहुत अहम योगदान दिया. आज भी मोदी की लोकप्रियता का मुख्य कारण यह हिंदी ही है. हमें इतनी सी बात समझने में कुछ ज्यादा ही समय लग गया कि देश का औसत नागरिक अपने नेता को उसकी जुबान में सुनना चाहता है.
केरल में चुनाव अभियान हिंदी में नहीं होते, जैसे तमिलनाडु में नहीं होते लेकिन नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी जैसे नेता वहां जाकर अपने भाषणों का अनुवाद करवाते हैं.
अरविंद केजरीवाल जिस तरह से धूमकेतु की तरह भारत की राजनीति में आए उसका भी अध्ययन ठीक से नहीं हुआ. दिल्ली का औसत वोटर अंग्रेजी समझता है. आखिर देश की राजधानी है. वो खुद भी आईआईटी से पढ़े हैं, अच्छी अंग्रेजी जानते हैं. फिर क्यों उन्होंने पूरा चुनाव अभियान हिंदी में किया और आज भी बहुत कम उन्हें अंग्रेजी बोलते सुना जा सकता है.
तो मामला अब हिंदी विरोध से आगे निकल गया है. हिंदी को जिस दिशा में जाना था वो बहुत आगे तक जा चुकी है. हिंदी भाषा में सांप्रदायिकता फैलाई जा रही है. लोग उसमें बड़ी तादाद में शामिल हो रहे हैं.
अब सवाल यह है कि हिंदी जिस राजनीतिक रथ की सारथी बन चुकी है, उससे लड़ने के लिए किस भाषा को ईजाद किया जाए? जो लोग हिंदी में गुण-दोष देख रहे हैं वो एक जमात के तौर पर इस नए राजनीतिक घटनाक्रम में अर्थहीन उपस्थिति के अलावा कुछ भी नहीं हैं.
जो लोग आज की राजनीति को इसके पूरे परिदृश्य में समझ रहे हैं वो नई जमीन तैयार करने में मुब्तिला हैं और उसके असर दिखाई दे रहे हैं.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)