बिहार में भूमि सुधार के तहत भूमिहीनों को ज़मीन का पट्टा दिया गया था. काग़ज़ों पर तो ये लोग ज़मीन के मालिक बन गए हैं, लेकिन वास्तव में अब तक इन्हें ज़मीन का क़ब्ज़ा नहीं मिल सका है.
48 वर्षीय अमर राम को 17 साल पहले साल 2002 में बिहार सरकार ने 91 डिसमिल जमीन का पर्चा दिया था. पीढ़ियों से भूमिहीन अमर राम के हाथ में जब एक ए-फोर साइज का कागज का टुकड़ा आया, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन ये खुशी काफूर साबित होगी, इसका इल्म उन्हें बिल्कुल भी न था. अमर राम मुश्किल से दो साल ही उस 91 डिसमिल जमीन के मालिक रह पाए.
अमर राम कहते हैं, ‘सरकार के कर्मचारी हमारे साथ गए थे और जमीन का मालिकाना हक हमें दिया था. दो साल ही बीते थे कि एक दिन भूधारी (भूमि चकबंदी से पहले जमीन का मालिक) के गुर्गे खेत में पहुंचे और फसल समेत खेत पर कब्जा जमा लिया.’
अमर राम सरकारी जमीन पर रह रहे थे. 9 साल पहले यानी वर्ष 2010 में किसी तरह एक कट्टा जमीन खरीद कर उस पर घर बनाया है. वही एक कट्टा जमीन उनकी मिल्कियत है.
वह पश्चिमी चम्पारण के रामनगर प्रखंड के बरगजवा गांव में रहते हैं. जब हम चम्पारण का जिक्र करते हैं, तो हमें महात्मा गांधी याद आते हैं. चम्पारण ही वो जगह है, जहां से महात्मा गांधी ने सत्याग्रह का पहला प्रयोग किया था, जिसे चम्पारण सत्याग्रह भी कहा जाता है. ये प्रयोग सफल भी हुआ था और यहां के किसानों को नील की खेती से मुक्ति मिली थी.
बेतिया शहर की तीनमुहानी पर कत्थई रंग की बापू की आदमकद मूर्ति चम्पारण के ऐतिहासिक महत्व की मुनादी करती है. मगर विडंबना है कि इसी चम्पारण में अमर राम भी हैं, जो सरकारी फाइलों में तो 17 साल से जमीन के मालिक हैं, लेकिन असल में उनको जमीन मिली ही नहीं.
अमर राम हालांकि इकलौते शख्स नहीं हैं, जो कागजों पर जमीन के मालिक हैं. पूरे बिहार में ऐसे भूमिहीनों की तादाद लाखों में है. इनका सर्वे करें तो इनमें से अधिकांश अनुसूचित व महादलित जातियों के लोग सामने आएंगे.
पश्चिमी चम्पारण में ही ऐसे भूमिहीनों की संख्या हजारों में है, जिन्हें जमीन का पर्चा तो मिला, लेकिन जमीन पर कब्जा नहीं मिल पाया है.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पश्चिमी चम्पारण में करीब एक लाख 65 हजार भूमिहीनों को जमीन का पर्चा दिया गया और इनमें से 12 हजार को छोड़कर बाकी लोगों को जमीन भी मिल चुकी है.
लेकिन पर्चाधारियों के हक के लिए आंदोलन कर रहे अमर राम और अन्य भूमिहीनों का दावा है कि एक लाख 65 हजार में से 20-30 फीसदी लोगों को ही जमीन मिल पाई है.
पश्चिमी चम्पारण के लौरिया प्रखंड के बारवां कला गांव निवासी 65 वर्षीय कपिल मांझी को 1995 में ही जमीन का पर्चा मिल गया था, लेकिन जमीन अब तक नहीं मिली है.
उन्होंने बताया, ‘12 एकड़ का एक प्लॉट था, जिसे 22 लोगों के नाम किया गया था. सरकार की तरफ से हमें इसका कागजात भी मिल गया था, लेकिन भूस्वामियों ने कब्जा नहीं करने दिया. तब से अब तक जमीन दिलवाने के लिए कोई पहल नहीं हुई है.’
दरअसल, पश्चिमी चम्पारण ही नहीं पूरे बिहार में देखें तो जमीन वितरण असंतुलित है. कुछ लोगों के पास हजारों एकड़ जमीन है तो किसी के पास अपनी झोपड़ी डालने के लिए जमीन भी मयस्सर नहीं है.
ऐसा हुआ कैसे, क्या शुरू से ही जमीन का बंटवारा ऐसा था? इन सवालों का जवाब ढूंढने के लिए अंग्रेजों की हुकूमत को याद करना होगा.
अंग्रेज भारत में आए तो थे व्यापार करने लेकिन वे हुक्मरान बन गए. यहां की भूमि काफी उपजाऊ थी, तो उस पर वैसी फसलों को उगाने का दबाव बनाने लगे, जो व्यापारिक रूप से ज्यादा फायदा देने वाली हो.
किसान जब ऐसा करने से मना करते तो उनकी जमीन हड़प ली जाती या फिर इतनी मालगुजारी थोप देते कि किसान चुका नहीं पाता. ऐसे में उनकी जमीन पर कब्जा कर उसे नीलाम कर दिया जाता.
अंग्रेजों के ‘पार्टनर इन क्राइम’ किसानों के अपने लोग कोठीवाले और चौकीदार थे. पश्चिमी चम्पारण के कुछ पुराने लोग तो ये भी बताते हैं कि अंग्रेज जब घोड़े पर सवार होकर निकलते थे तो रास्ते में उन्हें किसानों की झोपड़ी पर फैली लताओं में दर्जनों कोहड़ा और कद्दू जैसी सब्जियां दिखतीं.
ये देखकर वे आश्चर्य करते कि यहां की झोपड़ी पर सब्जियां उग रही हैं तो इनके खेत कितने उपजाऊ होंगे! फिर क्या था, अंग्रेज उन किसानों की मालगुजारी 10 गुना बढ़ा देते. किसान भला इतनी रकम कहां से देते. सो उन्हें जमीन से हाथ धोना पड़ता और इस तरह जमीन के मालिक किसान मजदूर बन जाते.
ज्यादा मालगुजारी लाद कर जमीन कब्जाने की अनगिनत कहानियां पश्चिमी चम्पारण में मिल जाएंगी.
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता शमसुल हक कहते हैं, ‘मेरे पूर्वज के पास 16 बीघा जमीन थी. इनमें 11 बीघा जमीन अंग्रेजों ने कब्जा कर नीलाम कर दिया था.’ उन्होंने कहा कि ऐसे हजारों मामले हैं, जो बताते हैं कि आज जो लोग भूमिहीन हैं, वे कभी अच्छी-खासी जमीन के मालिक हुआ करते थे.
बरगजवा गांव के 70 वर्षीय सिंहासन राम का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है. सिंहासन राम को वर्ष 2002 में सरकार ने 90 डिसमिल जमीन का पर्चा दिया था. वह भूमिहीन हैं, लेकिन उनके पूर्वज भूमिहीन नहीं थे. उनके पास 7 बीघा जमीन थी.
सिंहासन राम कहते हैं, ‘अंग्रेजों ने मालगुजारी बढ़ा दी थी. मेरे पूर्वज के पास उतने पैसे नहीं थे कि मालगुजारी भर सकें, इसलिए जब अंग्रेजों की खिदमत में लगे देसी सिपाही पैसा लेने आते, तो वे भाग जाते. ऐसा दो-तीन बार हुआ तो अंग्रेजों ने जमीन पर कब्जा कर उसे नीलाम करवा दिया. जिस जमींदार के पास पैसा था, उसने जमीन खरीद ली.’
इस तरह एक बड़ा किसान वर्ग भूमिहीन हो गया और मुट्टीभर जमींदारों के पास अकूत जमीन चली गई. अंग्रेजों का पश्चिमी और पूर्वी चम्पारण के किसानों पर अमानवीय अत्याचार इस कदर बढ़ा हुआ था कि महात्मा गांधी को वर्ष 1917 में यहां आना पड़ा था.
महात्मा गांधी चम्पारण (पूर्वी और पश्चिमी) में 38 जगहों पर ठहरे थे और लगभग 8000 किसानों ने उन्हें बताया था कि अंग्रेज किस तरह उन्हें प्रताड़ित कर रहे थे.
सर्वेक्षण के आधार पर दो वर्ष पहले छपी किताब ‘गांधी का चम्पारण: चम्पारण का गांधी’ में 1950 में डॉ. राममनोहर लोहिया की अध्यक्षता में बने चम्पारण फार्म जांच आयोग का हवाला देते हुए कहा गया है कि वर्ष 1918 तक ढाई लाख एकड़ खेत रैयतों के हाथों से निकलकर सूदखोरों, चीनी मिलों व भूस्वामियों के पास चले गए थे.
देश आजाद हुआ तो सरकार ने जमींदारों व सूदखोरों के पास पड़ी अकूत भूमि को अपने कब्जे में लेना शुरू किया. तत्कालीन बिहार सरकार ने इसके लिए बिहार लैंड रिफॉर्म्स (फिक्सेशन ऑफ सीलिंग एरिया एंड एकूजिशन ऑफ सरप्लस लैंड) एक्ट बनाया.
इसके अंतर्गत करीब दो फसली सिंचित खेत होने पर प्रति बालिग पुरुष को 15 एकड़, एक फसली सिंचित खेत होने की सूरत में 18 एकड़ और बारिश निर्भर खेत होने पर 25 एकड़ जमीन छोड़ अतिरिक्त जमीन सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया.
राजस्व और भूमि सुधार विभाग के सूत्र बताते हैं कि भूमि हदबंदी से पूरे बिहार में सरकार को तीन लाख 99 हजार एकड़ जमीन मिली. इसके अलावा आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से बिहार सरकार को 6.49 लाख एकड़ जमीन मिली.
अलग-अलग समय में राज्य सरकार ने लाभांवितों का चयन कर करीब दो लाख 59 हजार एकड़ जमीन बांट तो दी, लेकिन सरकार के पास खुद ये रिकॉर्ड नहीं था जिससे पता लगता कि आखिरकार कितने भूमिहीनों को जमीन के कागजात दिए गए.
इसके निर्धारण के लिए बिहार सरकार ने वर्ष 2014 ऑपरेशन दखल-देहानी शुरू किया. इस ऑपरेशन में 23,77,763 जमीन के पर्चाधारियों की शिनाख्त की गई.
सरकारी आंकड़ों की मानें तो महज 1,51,040 पर्चाधारियों को जमीन नहीं मिल पाई है. लेकिन जानकारों के मुताबिक बेदखल पर्चाधारियों की संख्या सरकारी आंकड़ों से ज्यादा है, क्योंकि इसमें वे पर्चाधारी शामिल नहीं हैं, जिनके मामले में विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि इन गरीब और पिछड़े वर्गों से आने वाले पर्चाधारियों को जमीन नहीं मिली, तो फिर वो आखिरकार है किसके पास?
इस सवाल का जवाब बहुत मुश्किल नहीं है. जमीन पर कब्जे के लिए दर-ब-दर भटक रहे पर्चाधारियों से पूछने पर इस सवाल का जवाब मिलता है कि जमीन पर दबंगों और भूस्वामियों (वे धन्नासेठ जिनकी अतिरिक्त जमीन सरकार ने भू-हदबंदी एक्ट के तहत ले ली) का कब्जा है.
इसके तह में जाएं तो पता चलता है कि सरकारी तंत्र ने जाने-अनजाने में इन भूस्वामियों और दबंगों को जमीन पर कब्जा करने के लिए मदद दी. इतना ही नहीं कई मामलों में तो अदालती कार्यवाहियां ही उनके लिए वरदान साबित हो गईं.
अदालती कार्यवाहियों की ऐसी कई मिसालें मौजूद हैं. इन्हीं में एक मामला बेतिया के जमींदार शत्रुन्दम शाही का भी है. उनकी अतिरिक्त जमीन सरकार ने 80 के दशक में ही ले ली थी.
हालांकि जमीन लेने के लिए सरकार और जमींदार के बीच कानूनी लड़ाई भी चली थी, मगर अंततः कोर्ट ने सरकार के हक में फैसला दिया और जमीन सरकार को मिल गई थी.
इसमें से कुछ जमीन सरकार ने वर्ष 2002 में भूमिहीनों के नाम कर दी और उन्हें पर्चा जारी कर दिया. पर्चा जारी करने के साथ ही प्रशासन ने जमीन पर कब्जा भी दिलवा दिया. पर्चाधारियों ने भी जमीन पर खेती शुरू कर दी.
सरकार के इस फैसले के खिलाफ जमींदार परिवार वर्ष 2004 में पटना हाईकोर्ट चला गया. जमींदार परिवार ने कोर्ट में कहा कि कलेक्टर ने बिना किसी नोटिस से उनकी जमीन बांट दी, जबकि सरकार कोर्ट के आदेश पर ही 80 के दशक में जमीन ले चुकी थी.
कोर्ट ने जमीन बंटवारे पर रोक लगाते हुए सरकार को जमीन की जांच करने का आदेश दिया. पर्चाधारियों के अनुसार, कोर्ट में मामला जाते ही जमींदारों ने उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया. पर्चाधारियों का आरोप तो यह तक है कि उन्होंने (जमींदार) जमीन पर लगी फसल तक नहीं काटने दी.
कोर्ट में मामला जाने के बाद सुनवाइयों के दौरान जमींदार के पक्ष के लोग अक्सर गायब रहने लगे, तो पर्चाधारियों ने कोर्ट से अपील की कि उनकी बातें सुनकर मामले का त्वरित निष्पादन किया जाए.
कोर्ट ने पर्चाधारियों की बातों को गंभीरता से लेते हुए छह महीने के भीतर जमीन के मालिकाना हक का निर्धारण कर मामला निपटाने को कहा, लेकिन जिला कलेक्टर के यहां भी जमींदार परिवार के प्रतिनिधि उपस्थित नहीं होते. इस वजह से मामला फिर खिंचने लगा.
इस तरह वर्ष 2004 में शुरू हुआ मामला 15 वर्ष के बाद इस साल 22 जनवरी को निपटारे की ओर पहुंचा. जांच-पड़ताल के बाद समाहर्ता (कलेक्टर) ने भूस्वामी की 2106.99 एकड़ जमीन को अधिशेष (भू-हदबंदी एक्ट के अंतर्गत अतिरिक्त जमीन जिस पर कानूनन सरकार का कब्जा होगा) घोषित किया.
100 पन्नों में फैले इस आदेश में ब्योरेवार बताया गया है कि कब सरकार ने जमीन कब्जे में ली और उसके बाद क्या-क्या हुआ. समाहर्ता ने अपने आदेश में ये भी बताया कि किस तरह भूस्वामी बार-बार कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर करते हैं और फर्जी तरीके से कागजात तैयार किए जाते हैं.
आदेश के आखिरी हिस्से में समाहर्ता लिखते हैं, ‘यह वाद लंबे अरसे से अंतिम रूप से निष्पादन हेतु लंबित है. ऐसा नहीं है कि पूर्व में इस वाद का निष्पादन नहीं हुआ है, लेकिन भूधारी के प्रत्येक बार इस न्यायालय के पारित आदेश के विरुद्ध अपील करने की प्रवृत्ति, कूटरचित (फर्जी तरीके से) कर सृजित कागजात, भू-हदबंदी की जटिल और लंबी प्रक्रिया के कारण बार-बार यह वाद इस अदालत में नए सिरे से आदेश पारित करने के बिंदू पर वापस प्राप्त हो जाता है. और वरीय न्यायालयों के आदेश के मद्देनजर पुनः 1973 में प्रारंभ की गई प्रक्रिया को दुहराना लाजमी हो जाता है.’
समाहर्ता की ये स्वीकारोक्ति बताती है कि भूस्वामी कोर्ट के आदेश के बावजूद बार-बार अपील कर मामला को अटकाने की कोशिश करते हैं.
ये संदेह तब और भी पुख्ता हो जाता है, जब अलग-अलग अदालतों में सीलिंग से संबंधित मामलों की तादाद देखते हैं. सरकारी सूत्रों की मानें तो केवल पश्चिमी चम्पारण की पांच राजस्व अदालतों में ही ऐसे 183 मामले लंबित हैं. वहीं, पटना हाईकोर्ट में भू-हदबंदी से जुड़े 264 मामले लंबित बताए जा रहे हैं.
इसे पूरे घटनाक्रम में एक दुखद पहलू ये भी है कि दर्जनों मामलों में कोर्ट और समाहर्ता का आदेश पर्चाधारियों के हक में जाने के बावजूद अब तक उन्हें जमीन नहीं दिलाई जा सकी है.
शत्रुन्दम शाही के ही मामले को देखें तो समाहर्ता का आदेश इस साल 22 जनवरी को ही आ गया था, लेकिन अब तक पर्चाधारियों को जमीन नहीं मिली है.
पर्चाधारियों की लड़ाई लड़ रहे अमर राम कहते हैं, ‘सरकार की तरफ से कहा गया था कि जल्द ही अखबारों में इससे संबंधित अधिसूचना जारी की जाएगी और पर्चाधारियों को जमीन देने की प्रक्रिया शुरू होगी, लेकिन सात महीने गुजर जाने के बाद भी कुछ होता नहीं दिख रहा है. इस बीच जमींदार लोग पर्चाधारियों को मिली जमीन औने-पौने दाम पर बेच रही है. इससे बाद में फिर कानूनी पेंचीदगी बढ़ेगी.’
पिछले दिनों भागलपुर के नारायणपुर अंचल के 100 से ज्यादा पर्चाधारियों ने बैठक कर सरकार से जमीन पर कब्जा दिलाने के लिए आंदोलन करने की बात कही.
इस अंचल के 300 भूमिहीनों को जमीन का पर्चा तो दिया गया, लेकिन जमीन पर कब्जा नहीं हो सका. बैठक में शामिल होने वाले पर्चाधारियों ने बताया कि वे लोग 25 वर्षों से जमीन की रसीद कटा रहे हैं, लेकिन उन्हें अब तक जमीन नहीं मिली है.
जानकार बताते हैं कि भू-हदबंदी एक्ट में केवल बालिगों के लिए खेती योग्य जमीन छोड़ने का प्रावधान है, इसलिए कई जमींदारों ने अतिरिक्त जमीन हथियाए रखने के लिए अपने नाबालिग बच्चों को भी बालिग बता दिया था.
इस तरह के मामले जब खूब आने लगे तो सरकार ने उम्र के निर्धारण के लिए डॉक्टरों की एक टीम बनाई थी. आरोप है कि इस टीम ने भी खूब घपला किया और नाबालिगों को बालिग बताकर जमींदारों को फायदा पहुंचाया.
फर्जीवाड़े का एक ऐसा ही एक मामला उजागर होने पर वर्ष 2007 में शत्रुन्दम शाही के पोते व राजद के पूर्व विधायक रणविजय शाही को गिरफ्तार किया गया था. उन पर आरोप था कि उन्होंने अपने नाबालिग बेटे को बालिग बताकर उसके नाम पर जमीन की खरीद-फरोख्त की थी.
बेतिया के भूमि सुधार उप समाहर्ता (डिप्टी कलेक्टर) सुधांशु रंजन ने बताया कि जिन पर्चाधारियों को दबंगों और भूस्वामियों ने बेदखल कर दिया था, उनके लिए अंचलों में कैंप खोले गए थे, ताकि उन्हें फिर से कब्जा दिलवाया जाए. हालांकि पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा दिलवाने की पेंचीदगियों से वे भी वाकिफ हैं.
उन्होंने बताया, ‘भू-हदबंदी के अंतर्गत जिन भूस्वामियों से अतिरिक्त जमीन सरकार ने ली, उन स्वामियों ने जमीन से कब्जा नहीं छोड़ा. वहीं, सरकार की जो अपनी जमीन थी, उस पर पहले से लोग अवैध रूप से बस गए. सरकार ने इस जमीन का पर्चा जब भूमिहीनों को दिया, तो वहां पहले से ही लोग बसे मिले, तो पर्चाधारियों को जमीन मिल नहीं पाई.’
पर्चाधारियों को जमीन दिलाने की लड़ाई लड़ रहे लोक संघर्ष समिति के पंकज मानते हैं कि भूमि सुधार बिहार सरकार के एजेंडे में है ही नहीं. उन्होंने कहा, ‘भूमि सुधार कभी सरकार का एजेंडा रहा होगा, लेकिन अभी तो बिल्कुल नहीं है. अभी हिंदू-मुसलमान एजेंडा है.’
पंकज कहते हैं, ‘सरकारी मशीनरी और निचले स्तर के राजस्व अधिकारियों की कोताही के कारण ही पर्चाधारियों को अब तक जमीन नहीं मिल पाई है.’
राजस्व और भूमि सुधार विभाग के एक अधिकारी ने पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा दिलवाने के सवाल पर कहा, ‘जो मामले कोर्ट में लंबित हैं, उन पर तो कुछ किया नहीं जा सकता है. मगर जिन मामलों में कोर्ट का फैसला आ चुका है, उनमें त्वरित कार्रवाई करनी होगी.’
इस संबंध में राजस्व व भूमि सुधार विभाग के मंत्री रामनारायण मंडल से संपर्क किया गया, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई. उन्हें मेल भी किया गया है, जवाब आने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
वहीं, भूमि सुधार उप समाहर्ता सुधांशु रंजन पर्चाधारियों की बेदखली के स्थाई समाधान के लिए एक पैनल बनाने पर जोर देते हैं. वे कहते हैं, ‘इसके लिए युद्धस्तर पर काम करने की जरूरत है. सरकार को चाहिए कि वह एक पैनल बनाए, जिसमें अच्छे वकील और अधिकारी हों ताकि जल्द से जल्द इस मुद्दे का हल निकाला जा सके.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)