हाल के समय में सेना के हाथों दो भारतीय अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन का शिकार हुए हैं, लेकिन भारत सरकार के अधिकारी और पूरा देश इनमें से सिर्फ एक के अधिकारों के लिए लड़ता दिख रहा है, दूसरे के लिए नहीं.
10 अप्रैल को भारत के पूर्व नौसेना अधिकारी, कुलभूषण सुधीर जाधव को पाकिस्तान में फांसी की सजा सुनाई गई. उन्हें पाकिस्तानी सेना ने गिरफ्तार किया था और हिरासत में रखा था. उन पर गोपनीय ढंग से मुकदमा चलाया गया और उन्हें भारतीय दूतावास के अधिकारियों से मिलने की भी इजाजत नहीं दी गई.
यह वियना कंवेंशन ऑन कांसुलर रिलेशंस (वीसीसीआर) (दूतावासों के रिश्तों से संबंधित वियना समझौता) का उल्लंघन था, जिसके तहत पाकिस्तान को भारतीय राजनयिकों को जाधव से मिलने से रोकने का हक नहीं था.
भारत अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करने के लिए पाकिस्तान को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे) लेकर गया. कोर्ट में अपनी याचिका में भारत ने नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय समझौते (इंटरनेशनल कंवेंशन ऑन सिविल एंड पोलिटिकल राइट्स) (आईसीसीपीआर) का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया है किसी को भी मनमाने ढंग से उसके जीवन से महरूम नहीं किया जा सकता है.
भारत की जनता को राहत देते हुए आईसीजे ने भारत की याचिका को स्वीकार कर लिया और पाकिस्तान को आदेश दिया कि मामले में कोर्ट द्वारा आखिरी फैसला होने तक जाधव की फांसी पर रोक लगाई जाए.
9 अप्रैल को एक कश्मीरी दस्तकार और शॉल बुनकर फ़ारूक़ अहमद डार को जम्मू कश्मीर के बडगाम क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के एक समूह ने अगवा करके बंधक बना लिया था.
डार श्रीनगर संसदीय सीट के लिए हुए उपचुनाव मे मतदान करनेवाले 88,951 लोगों में से एक थे. वहां सिर्फ 7 प्रतिशत मतदान हुआ था.
सैनिकों ने डार को जीप के बोनट पर बांध कर जिले भर में घंटों तक घुमाया, साथ में वे लाउड स्पीकर पर सड़क के बगल में खड़े लोगों को यह चेतावनी भी देते रहे कि जो भी सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करता हुआ पकड़ा जाएगा, उसका अंजाम भी ऐसा ही होगा.
एक नागरिक बंधक को ‘मानव कवच’ के तौर पर इस्तेमाल करना भारतीय संविधान द्वारा हर व्यक्ति को दिए गए जीवन और स्वतंता के अधिकार का उल्लंघन था. यह अंतरराष्ट्रीय कानून का भी उल्लंघन था, क्योंकि भारत 1949 की जिनेवा संधि में शामिल है.
हालांकि, यह संधि अंतरराष्ट्रीय संघर्षों के दौरान किए गए युद्ध अपराधों से संबंधित है, मगर सामान्य अनुच्छेद (कॉमन आर्टिकल) – 3, वैसे संघर्षों में, जो ‘अंतरराष्ट्रीय प्रकृति के नहीं हैं’, नागरिकों को निशाना बनाने का निषेध करता है:
‘किसी भी समय और चाहे किसी भी जगह, वैसे लोगों के संदर्भ में (जो संघर्ष में सीधे शामिल नहीं हैं) निम्नलिखित बर्ताव वर्जित है और रहेगा … (बी) किसी को बंधक बनाना; (सी) किसी व्यक्ति की निजी गरिमा को ठेस पहुंचाना, विशेषकर किसी के साथ अपमानजक और नीचा दिखाने वाला बर्ताव करना.’
भारत ने हेग (आईसीजे का मुख्यालय हेग में है) में आईसीसीपीआर के जिस नियम का हवाला दिया वह डार के मामले में भी लागू होता है: ‘किसी को भी मनमाने ढंग से गिरफ्तार या हिरासत में नहीं लिया जाएगा…किसी को शारीरिक यंत्रणा नहीं दी जाएगी, या उसके साथ क्रूर, अमानवीय या नीचा दिखाने वाला या सजा देनेवाला सुलूक नहीं किया जाएगा.’
सैनिकों द्वारा डार की ‘निजी गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली‘ (अनुच्छेद 9) घटना, खासकर उसके साथ किए गए ‘अपमानजक और नीचा दिखाने वाले व्यवहार’ (अनुच्छेद 7) के छह हफ्ते बीत जाने के बाद भी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के इस मामले में सेना की जांच पूरी नहीं हो पाई है.
इस बीच, भारत के अटॉर्नी जनरल ने कमांडिंग ऑफिसर के एक नागरिक को बंधक बनाने और उसे मानव कवच के तौर पर इस्तेमाल करने के फैसले का बचाव किया है. पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह, जो एक सम्मानित राजनेता और खुद एक भूतपूर्व सैन्य अधिकारी रह चुके हैं, तो एक कदम और आगे चले गये और कहा कि इस ‘कठोर कदम’ के लिए सेना के अधिकारी को मेडल दिया जाना चाहिए.
हाल ही में ख़बर आई कि सेना ने कमांडिंग आॅफिसर को सम्मानित कर दिया है.
आधिकारिक और सार्वजनिक बहस में अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के दो मामलों में अलग दिशाओं में जानेवाली बहस का क्या मतलब निकाला जाए? भटके हुए राष्ट्रवाद पर ठीकरा फोड़ देने से पूरा जवाब नहीं मिलता, क्योंकि जैसा कि पूर्व राजदूत हरदीप पुरी ने बताया, ‘जाधव के मामले में आईसीजे जाने का फैसला काफी अनिच्छा से और डरते हुए लिया गया’.
यह सही है कि जाधव और डार राजनीतिक इंद्रधनुष के दो छोर पर खड़े हैं, मगर यह भी एक तथ्य है कि भारत सरकार ने कभी भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों, संस्थाओं और इसके दायित्वों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया है.
सच्चाई यही है कि भारत की सरकार और देश के टिप्पणीकार परंपरागत तौर पर अंतराष्ट्रीय कानूनों को शक की निगाह से देखते हैं और इसे एक तरह का फंदा मानते हैं.
आईसीजे ने जाधव को तात्कालिक राहत देते हुए इस मामले में फौरी कदम उठाने की भारत की मांग को भी स्वीकार कर लिया. यह अपने आप में काफी अहमियत रखता है, क्योंकि इसने आखिरकार भारत के नीति-निर्माण में अंतरराष्ट्रीय कानूनों और अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानूनों के स्थान को लेकर राष्ट्रीय बहस की गुंजाइश को जन्म दिया है.
भारत और आईसीजे, एक धूपछांही रिश्ता
13 अप्रैल को, यानी पाकिस्तान द्वारा जासूसी के आरोपों को लेकर जाधव को मृत्युदंड की सजा सुनाए जाने के तीन दिन बाद, मैं इस मामले में भारत के पास मौजूद विकल्पों को लेकर एक टेलीविजन बहस में शामिल हुआ था.
इस तथ्य के मद्देनजर कि इस्लामाबाद ने भारतीय राजनयिकों को जाधव से मिलने की अनुमति नहीं दी थी और यह देखते हुए कि भारत और पाकिस्तान- दोनों ही वीसीसीआर के वैकल्पिक प्रोटोकॉल में शामिल हैं, जो वियना कंवेंशन के अमल को लेकर किसी विवाद की स्थिति में आईसीजे को मिले इख़्तियार से संबंधित है, मैंने यह राय रखी थी कि भारत को पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय कोर्ट लेकर जाना चाहिए.
मैं यहां एक सामान्य सा मशविरा देने का जिक्र किसी पूर्वाभास या विशेष अक्लमंदी का दावा करने के लिए नहीं कर रहा हूं. हालांकि, यहां यह जिक्र करना गैरमुनासिब नहीं होगा कि मार्च, 2016 में जाधव का मामला सामने आने पर ‘द वायर’ ने सबसे पहले इस मामले में वीसीसीआर की अहम भूमिका की बात रखी थी.
द वायर में ही इस बाबत पहला लेख छपा था कि अंतरराष्ट्रीय कानून इस मामले में किस तरह भारत की मदद कर सकते हैं. इस जिक्र का मकसद बस इतना ही है कि मैं एक रिटायर्ड भारतीय डिप्लोमैट द्वारा मेरे सुझाव पर दिए गए जवाब की ओर आपका ध्यान दिला सकूं.
इन राजनयिक के पास विदेश मंत्रालय में रहते हुए पाकिस्तान से संवाद का लंबा अनुभव था. मेरे आईसीजे के उल्लेख पर उन्होंने असहमति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘हम खुद कभी कोर्ट में नहीं गए हैं’. उन्होंने यह भी जोड़ा कि वहां जाने से ‘हमारे लिए हर तरह की मुसीबत की खिड़की खुल जाएगी.’
इसमें कोई शक नहीं कि यह उनके निजी विचार थे, मगर उनकी राय से भारतीय डिप्लोमेसी में अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संस्थाओं के प्रति गहरे जमे संदेह का पता जरूर चलता है.
सच्चाई यह है ‘हर तरह की मुसीबतों की खिड़की’ के खुल जाने का कोई खतरा नहीं है. भारत ने बुद्धिमानी का परिचय देते हुए आईसीजे में अपना मामला रखते हुए शब्दों और प्रावधानों को कम खर्च किया.
यह सही है कि भारत को भी वीसीसीआर के उल्लंघन के ऐसे ही मामलों के लिए आईसीजे में घसीटा जा सकता है, लेकिन सीमा विवाद, उदाहरण के लिए कश्मीर के आईसीजे में जाने का कोई सवाल ही नहीं है, उस स्थिति के सिवा जब भारत खुद ऐसा करने का फैसला करे.
यह सही है कि पाकिस्तान सर क्रीक विवाद को वहां लेकर जा सकता है, क्योंकि भारत ने अब तक यूएन कंवेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी (संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि); (UNCLOS) के विवाद-निपटारा प्रावधानों को अस्वीकार नहीं किया है. लेकिन ऐसा आज से नहीं, 1982 से है.
किसी की जीत, किसी की हार
भारतीय अधिकारी अगर जाधव के मामले में आईसीजे जाने को लेकर हिचक रहे थे, तो इसका कारण यह है कि हेग में भारत का इतिहास काफी मिलाजुला रहा है.
पहली बार भारत को 1955 में आईसीजे में बुलाया गया था, जब पुर्तगाल ने आरोप लगाया था कि भारत उसके अधिकार वाले दादरा एवं नगर हवेली और दमन की उपनिवेशी कॉलोनियों के बीच पुर्तगाली नागरिकों और सैनिकों की आवाजाही में बाधा डालकर गैरकानूनी काम कर रहा है.
1960 में आईसीजे ने भारत के पक्ष में फैसला सुनाया. संभवतः इससे उत्साहित होकर भारत ने सितंबर 1960 में पाकिस्तान के साथ सिंधु जल समझौते पर भी दस्तखत कर दिया, जिसमें दोनों देशों के बीच किसी विवाद की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता का प्रावधान था.
संभवतः इसी आशावाद के चलते भारत ग्यारह साल बाद आईसीजे में एक विवादास्पद मामला लेकर पहुंचा. मार्च, 1971 में भारत इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गनाइजेशन (आईसीएओ) के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने के लिए विश्व न्यायालय पहुंचा.
आईसीजे ने विमान अपहरण की घटना के बाद पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के बीच अपनी सरजमीं के ऊपर से उड़ान स्थगित करने के भारत के अधिकार पर सवाल उठाया था. यह मामला भारत के खिलाफ गया और कोर्ट ने फैसला दिया कि ऐसा करना आईसीएओ के इख़्तियार में आता है.
1973 में पाकिस्तान ने आईसीजे में एक केस दर्ज किया, जिसमें मांग की गई थी कि भारत को जातिसंहार (जीनोसाइड) के मामले में सुनवाई के लिए 195 पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों और सैनिकों को बांग्लादेश भेजने से रोका जाए.
हालांकि यह मामला कुछ महीने बाद आईसीजे की सूची से हट गया, जब पाकिस्तान ने अदालत को सूचित किया कि इस मसले का हल भारत और बांग्लादेश के साथ एक समझौते में निकाल लिया गया है.
इन 195 पाकिस्तानी सैनिकों का अपराध आज भी बांग्लादेश में एक जीवित राजनीतिक मुद्दा है.
1999 में भारत द्वारा कारगिल युद्ध के ठीक बाद कच्छ के रण के ऊपर एक पाकिस्तानी सैनिक एयरक्राफ्ट को मार गिराए जाने के बाद पाकिस्तान ने एक बार फिर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि उसके पास इस मामले की सुनवाई का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि भारत ने कोर्ट की अनिवार्य अधिकार सीमा को इस शर्त के साथ स्वीकार किया था कि उसमें उन देशों के साथ विवादों को अलग रखा जाएगा, जो वर्तमान में राष्ट्रमंडल के सदस्य हैं या कभी थे.
इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि भले यह मामला कोर्ट के अधिकार-क्षेत्र में न आता हो, मगर इसके बावजूद दोनों देश अपने ‘विवादों को शांतिपूर्ण ढंग’ से निपटाने के दायित्व से पीछे नहीं हट सकते.
आखिरी बार भारत को 2014 में आईसीजे ले जाया गया, जब मार्शल द्वीपसमूह गणराज्य ने नाभिकीय निःशस्त्रीकरण वार्ता को आगे बढ़ाने का दायित्व निभाने को लेकर भारत की कथित विफलता को चुनौती दी थी.
इस बार आईसीजे ने फैसला दिया कि उसके पास इस मामले की सुनवाई करने का कोई आधार नहीं है. हालांकि, यह काफी करीबी मामला था, क्योंकि सिर्फ नौ जजों ने अधिकार क्षेत्र न होने की बात की थी जबकि सात ने इसे कोर्ट के अधिकार क्षेत्र के भीतर कहा था.
जहां तक दूसरे अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों का सवाल है, भारत अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय से बाहर रहा है, मगर वह संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि का अंग है, जिसका अर्थ है कि भारत कुछ खास विवादों में इसकी मध्यस्थता के अधिकार को स्वीकार करता है, जैसे, समुद्र के ऊपर होनेवाली घटनाएं और समुद्री सीमा का निर्धारण.
भारत ने UNCLOS के अनुच्छेद 298 को लेकर जो आपत्तियां प्रकट की थीं, उनको सही ढंग से जोड़ा नहीं किया गया, यही कारण है कि बांग्लादेश सामुद्रिक सीमा (मेरीटाइम बाउंड्री) और संबंधित क्षेत्रीय जल (टेरिटोरियल वाटर) के विवाद को 2009 में हेग में स्थित पर्मानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (पीसीए) में ले जाने में कामयाब रहा.
पीसीए ने अपने फ़ैसले में बांग्लादेश को उसके एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक ज़ोन के रूप बंगाल की खाड़ी का ज्यादा बड़ा हिस्सा देने का ऐलान किया. यह ढाका के साथ द्विपक्षीय वार्ता में भारत की ओर से दिए गए प्रस्ताव की तुलना में ज्यादा था.
इतालवी नाविकों का मामला भी पीसीए के सामने विचाराधीन है क्योंकि 2015 में समुद्री कानूनों के लिए अंतरराष्ट्रीय पंचाट (इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल फ़ॉर द लॉ ऑफ सी-आईटीएलओएस) ने यह निर्णय दिया था इटली और भारत के बीच विवाद है, जिस पर मध्यस्थता की जरूरत है.
2016 में पीसीए इतालवी नाविकों को फौरी राहत देते हुए, इटली की इस मांग का समर्थन किया कि 2012 में केरल में समुद्री तट के पास दो मछुआरों की हत्या के मामले में भारत मे आपराधिक मुकदमे का सामना कर रहे इतालवी नागरिकों को इटली लौटने की इजाज़त दी जाए.
पीसीए ने इस बारे में फैसला अभी लंबित रखा है कि दोनों नाविकों पर मुकदमा कहां चलाया जाए.
उपेक्षा का खामियाजा
अंतरराष्ट्रीय कानूनी मंचों पर भारत की भागीदारी मिली-जुली रही है. दूसरे देशों, खासकर पाकिस्तान के साथ विवादों के मामले में अंतरराष्ट्रीय कानूनी समाधान खोजने को लेकर छिपे हुए डर का इतिहास 1947 से शुरू होता है.
30 दिसंबर 1947 को कश्मीर के मसले पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का दरवाजा खटखटाने का भारत का अनुभव बहुत सुखद नहीं रह. बांग्लादेश में पाकिस्तान द्वारा किये गए नरसंहार और 1971 के युद्ध में यूएन का असहयोगी रवैया भी भारतीय नीति-निर्माताओं के जेहन में किसी बोझ की तरह रहता है.
पिछले दशकों में अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति भारत के नकारात्मक रवैये के चार नुकसानदेह परिणाम हुए हैं.
पहली बात, सरकार ने विदेश मंत्रालय के लीगल एंड ट्रीटीज़ डिविजन की उपेक्षा की है और अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं पर्यावरण जैसे मसलों पर अपने कानूनी विशेषज्ञ रखने की ज़रूरत पर ध्यान नहीं दिया.
बड़ी और उभर रही शक्तियों के मुकाबले भारत में मौजूद लीगल एंड ट्रीटीज़ डिवीज़न के संसाधन बहुत मामूली हैं.
इस दिशा में आधिकारिक रुचि न होने का मतलब यह भी है कि सार्वजनिक अंतरराष्ट्रीय कानून, अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानून, परमाणु कानून और व्यापार कानून में विशेषज्ञता चाहने वाले छात्रों की संख्या भारत जैसे बड़े देश की जरूरत के हिसाब से काफी कम है.
बहुपक्षीय और द्विपक्षीय वार्ताओं में भारत के प्रतिनिधि बेहद योग्य हैं और उनकी गिनती दुनिया के बेहतरीन वार्ताकारों में की जाती है, लेकिन दिक्कत ये है कि हमारे पास ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में नहीं हैं.
अकादमिक जगत और प्राइवेट सेक्टर में भले ऐसी प्रतिभा हो, मगर सरकार वहां से लोगों को लेने के लिए तैयार नहीं है.
हद से हद जरूरत पड़ने पर यह वकीलों को नियुक्त कर सकती है, जैसे जाधव के मामले में हरीश साल्वे को नियुक्त किया गया या मार्शल द्वीप वाले मामले में प्रो. एलेन पेलेट को जोड़ा गया. कुल मिलाकर भारत का रवैया कामचलाऊ किस्म का रहा है.
मार्च, 2017 में विदेश मंत्रालय ने कमीशन ऑन द लिमिट्स ऑफ द कॉन्टिनेंटल शेल्फ (सीएलसीएस) के लिए अपना विशेषज्ञ नामजद नहीं किया. भारत वहां और आईटीएलओएस में एक सीट पाने के लिए अपनी कूटनीतिक पूंजी खर्च नहीं करना चाहता था.
भारत इस साल आईटीएलओएस में नीरु चड्ढा को जज के तौर पर भेजने की उम्मीद कर रहा है. सीएलसीएस संयुक्त राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण संगठन है, जो 200 समुद्री मील के बाहर किसी देश के कॉन्टिनेंटल शेल्फ की बाहरी सीमा के निर्धारण में मदद करता है, जो समुद्री संसाधनों पर दावों को मजबूत करने के लिए काफी अहम है.
सीएलसीएस से सेवामुक्त हो रहे सदस्य ने द हिंदू से बातचीत मे कहा था कि इस रणनीतिक दौर में वहां किसी भारतीय की मौजूदगी बेहद जरूरी और राष्ट्रीय हित में है. लेकिन इस मामले में सरकार ने अब तक अपने फैसले की समीक्षा नहीं की है.
सरपरस्ती, सुस्ती और बड़ी गलतियां
दूसरी बात, दूसरे देश इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) या इंटरनेशनल लॉ कमीशन ( आईएलसी) में अपने प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए सिर्फ नौकरशाही या न्यायपालिका पर निर्भर रहने की जगह एक बड़े दायरे से प्रतिभा का चुनाव करते हैं.
इनमें कई अकादमिक दुनिया से होते हैं, जहां सामान्य तौर पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों की ज्यादा विशेषज्ञता मौजूद है. लेकिन भारत में ऐसे सभी अंतरराष्ट्रीय विधिक संस्थानों को अधिकारियों, जजों और राजनीतिक रसूख वाले व्यक्तियों के अरामगाह के तौर पर देखने की प्रवृत्ति है.
इन संस्थानों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के विकास में सकारात्मक योगदान देने के मंच के तौर पर देखने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं है.
पिछले साल, एक युवा वकील अनिरुद्ध राजपूत को, जिनके पास सार्वजनिक अंतरराष्ट्रीय कानून का कोई अनुभव नहीं था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नजदीकी के कारण आईएलसी में भारत के प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया था.
1989 में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस आरएस पाठक को आईसीजे में भारत के उम्मीदवार के तौर पर भेजा गया था. इससे पहले उन्होंने राजीव गांधी सरकार द्वारा भोपाल गैस त्रासदी मामले में यूनियन कार्बाइड से 470 मिलियन डॉलर के विवादास्पद निपटारे पर मुहर लगाई थी.
इस पद के लिए पाठक की अयोग्यता इस बात से समझी जा सकती है कि 1991 में भारत ने उनके लिए दूसरे कार्यकाल की मांग नहीं की. हालांकि, उन्हें कुछ समय के लिए आयरलैंड का समर्थन मिला था, लेकिन उसे भी बात समझ में आई और उसने भी अपने कदम वापस खींच लिए.
पांच साल पहले मनमोहन सिंह सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के तब के सिटिंग जज जस्टिस दलवीर भंडारी को अंतरराष्ट्रीय कानून के क्षेत्र में बिना किसी पूर्व अनुभव के आईसीजे भेजने का फैसला किया था. इसके पीछे एक ताकतवर राजनेता के समर्थन की भूमिका मानी जाती है. उस समय कानून के विद्वान अर्घ्य सेनगुप्ता ने द हिंदू में लिखा था:
‘सरकार का एक ऐसे सिटिंग जज को (आईसीजे में) मनोनीत करने का फैसला, जिसकी अदालत में सरकार का एक मामला मामला विचाराधीन था; सरकार की इन कोशिशों के दौरान भंडारी का अपने पद पर बने रहना; और सबसे बढ़कर इस अपवित्र गठबंधन की सार्वजनिक स्वीकृति एक चेतावनी है, जिसकी ओर ध्यान दिया जाना जरूरी है. हालांकि, दो दशकों के बाद आईसीजे में किसी भारतीय की वापसी निश्चित तौर पर एक खुशी की वजह है, लेकिन यह हमें आत्ममंथन करने का मौका भी मौका देता है. चिंता इस बात की है कि न्यायिक स्वतंत्रता के जिस सिद्धांत के कारण आज भारतीय न्यायपालिका और जजों को दुनियाभर में सम्मान से देखा जाता है, कहीं इस प्रक्रिया में उसे ही नुकसान न पहुंचे.’
दुर्भाग्य की बात है कि न्यायमूर्ति भंडारी ने आईसीजे में अपनी ही न्यायिक निष्पक्षता के ऊपर एक भारतीय अखबार को इंटरव्यू देकर सवालिया निशान लगा दिया है. जाधव के मामले में कोर्ट के फैसले को, जिसमें वे भी शामिल थे, उन्होंने ‘बेहद संतोषजनक अंतरिम फैसला’, और ‘भारत के लिए महान कूटनीतिक जीत’ करार दिया.
भंडारी की इस असावधानी ने पाकिस्तान को आगे की सुनवाई के महत्वपूर्ण चरण में भंडारी को इस केस से अलग करने की मांग करने का मौका दे दिया है. 2004 में तेल अवीव ने इजि़प्ट के जज नाबिल एलाराबाय को फिलिस्तीनी क्षेत्र में इस्राइल द्वारा बनायी जा रही दीवार के मामले की सुनवाई से अलग करने की मांग की थी.
तेल अवीव की दलील थी उन्होंने इस विवादित मामले में 2001 में (उनके आईसीजे में जज बनने से पहले) एक इंटरव्यू देकर सार्वजनिक भूमिका निभाई थी.
हालांकि, बाकी जजों ने 13-1 के बहुमत से यह कहते हुए इस्राइल की इस मांग को ठुकरा दिया था कि न्यायमूर्ति एलाराबाय ने ‘प्रस्तुत विषय पर सवाल पूछे जाने पर अपना कोई मत प्रकट नहीं किया था.’
लेकिन इसके उलट इंडियन एक्सप्रेस में आई जस्टिस भंडारी की टिप्पणी से ऐसा लग रहा है कि इस मामले में उन्होंने पहले से ही फैसला कर लिया है. और अगर केस से उनको अलग करने की मांग आती है, तो साथी जज उनकी इस टिप्पणी को इस नजरिए से देख सकते हैं.
भारत, आईसीजे और दुनिया के अधिकतर देशों की यह स्थापित परंपरा रही है कि कोई जज उसके विचाराधीन किसी मामले पर टिप्पणी नहीं करता है.
इसके पीछे तर्क यह है कि फैसला खुद अपनी तरफ से बोलता है. अगर जस्टिस भंडारी को सरकार फिर से मनोनीत नहीं करती है, तो उनका कार्यकाल मार्च, 2018 में खत्म हो जाएगा. लेकिन, उन्होंने कोर्ट के आदेश के साथ अलग से अपनी घोषणा लिखकर मुश्किल मोल ले ली है. यह बात समझ से परे है कि उन्हें इस स्वस्थ परंपरा को तोड़ने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
भ्रम ही भ्रम…
अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति परंपरागत तौर पर भारत में उत्साह की कमी का तीसरा नतीजा यह हुआ कि किसी घरेलू केस में उभर कर आने वाले अंतरराष्ट्रीय कानूनी सवालों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय समेत दूसरे भारतीय न्यायालयों का रवैया अस्थिर रहा है.
यह सही है कि यौन शोषण पर विशाखा जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों के साथ भेदभाव खत्म करने से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के कंवेंशन का हवाला दिया था, लेकिन इस उदाहरण को छोड़ दें, तो भारत चित भी मेरी पट भी मेरी वाली परंपरा का पालन करता है.
इसके मुताबिक अंतरराष्ट्रीय कानून को लागू करने के लिए उसका घरेलू कानून का भाग होना जरूरी है. कुछ कानून विशेषज्ञ तो यहां तक कह चुके हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट अंतरराष्ट्रीय कानून को अमल में लाने को लेकर भ्रमित तो नहीं है!
एनरिका लेक्सी के मामले में सबके सामने यह भ्रम शर्मनाक ढंग से प्रकट हुआ. चीफ जस्टिस ने इस सवाल पर कि क्या भारत की समुद्री सीमा से सटे इलाके में केरल के मछुआरों की हत्या करने के आरोपी इटली के दो नाविकों पर मुकदमा चलाना भारत के अधिकार क्षेत्र में है या नहीं, कोर्ट और भारत सरकार को भ्रमित करके छोड़ दिया.
अपने असामयिक निधन से पहले तक अंतरराष्ट्रीय कानून के क्षेत्र मे भारत के सबसे बड़े विद्वान माने जाने वाले वीएस मणि के मुताबिक मछुआरों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने भ्रम कम करने की जगह, उसे और गहरा करने का काम किया.
अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति असम्मान का भाव
इन सारी चीजों को मिलाकर देखें, तो भारत में लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय कानूनों की इस उपेक्षा का एक चौथा नतीजा भी निकला है, जो आम नागरिकों के लिहाज से खासतौर पर काफी नुकसानदेह है.
भारत घरेलू मोर्चे पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों को लेकर दिए गए वचनों को निभाना जरूरी नहीं समझता. खासकर तब, जब बात अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी और मानवाधिकार कानूनों के प्रति दायित्वों की आती है.
भारत ने 1948 के जिनोसाइड कंवेंशन (जातिसंहार समझौता) पर दस्तखत करने वालों में है और उसे स्वीकार किया है, लेकिन वह इसको समर्थ बनाने वाला घरेलू कानून पारित करने से इनकार करता रहा है, जो जातिसंहार को घरेलू कानूनों के तहत विशिष्ट, मुकदमा चलाने लायक अपराध बनाता हो.
1984 जैसी जातिसंहार की घटनाएं राजनीतिक सरपरस्ती के कारण मुमकिन हुई हैं. दोषियों को आज तक सजा नहीं दी गई है फिर भी भारत सरकार इसको लेकर शुतुरमुर्गी रवैया अपनाए हुए है.
भारत में हर साल सैकड़ों हजार शरणार्थी आते हैं, मगर फिर भी 1951 के रिफ्यूजी कंवेंशन (शरणार्थी समझौते) को भारत ने स्वीकार नहीं किया है. और भले ही भारत ने जाधव के मामले में पाकिस्तान द्वारा वीसीसीआर के उल्लंघन को सफलतापूर्व चुनौती दी, मगर हम खुद इस समझौते को हमेशा अपने देश में लागू करने के इच्छुक नहीं दिखाई देते.
भारत ने 1997 में कंवेंशन अगेंस्ट टॉर्चर (सीएटी) (शारीरिक यंत्रणा के खिलाफ समझौता) पर दस्तखत किया था, मगर 20 साल गुजर जाने के बाद भी भारत ने इसे औपचारिक रूप से पारित नहीं किया है.
भारत को मिलाकर दुनिया में सिर्फ नौ देश हैं, जिन्होंने ऐसा नहीं किया है. ऐसा न करने वाला भारत एकमात्र लोकतांत्रिक देश है. ऐसा नहीं है कि सीएटी को पारित न करने की भारत की असफलता मासूम है.
भारत में हिरासत के दौरान शारीरिक यंत्रणा आम है और इन मामलों में दंड न मिलना ही नियम है, न कि अपवाद.
2010 में मनमोहन सिंह सरकार लोकसभा में एक दोषपूर्ण प्रिवेंशन ऑफ टॉर्चर बिल (शारीरिक यंत्रणा रोकथाम अधिनियम) लेकर आई थी, जिसमें सीएटी के तहत शारीरिक यंत्रणा की परिभाषा में ही मिलावट की दी गई थी और शारीरिक यंत्रणा के शिकार व्यक्ति पर शिकायत करने के लिए एक गैरजरूरी समय-सीमा लगा दी थी.
इसमें गलती करनेवाले अधिकारियों को बचाने के लिए यह प्रावधान भी किया गया था कि उन पर मुकदमा चलाने के लिए पहले सरकार की इजाजत लेनी पड़ेगी. लेकिन यह दोषपूर्ण विधेयक भी रखे-रखे ही सड़ गया.
भारत भले ही जिनेवा कंवेंशन के साथ प्रोटोकॉल-2 पर दस्तखत करने को तैयार नहीं है, जो आंतरिक सशस्त्र संघर्षों के दौरान रक्षित व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़ा हुआ है, मगर फिर भी हम जिनेवा कंवेंशन के सामान्य अनुच्छेदों 1-3 से बंधे हुए हैं.
अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रचलित आदर्श के तहत आंतरिक संघर्षों के दौरान पकड़े गए नागरिकों के साथ एक न्यूनतम मानक व्यवहार की बात की गई है (जिनेवा कंवेंशन-4, जो विदेशी कब्जे में नागरिकों के अधिकारों से संबंधित है, किसी भी तरह से भारत पर लागू नहीं होता).
1986 के निकारागुआ मामले में दिए गये फैसले में आईसीजे ने कहा थ कि जिनेवा कंवेंशन का अनुच्छेद-3 ‘मानवता की प्राथमिक चिंताओं’ को प्रकट करता है. इसके बावजूद छत्तीसगढ़, मणिपुर और जम्मू-कश्मीर जैसे अशांत क्षेत्रों में कानूनी उपचार के बिना मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी है.
भले ही सामान्य अनुच्छेद (कॉमन आर्टिकल) 3 का उल्लंघन जिनेवा कंवेंशन का गंभीर अतिक्रमण न माना जाए, मगर इसके तहत होने वाले सारे अपराधों के लिए सजा देना किसी देश का दायित्व बनता है.
लेकिन, ब्रिटेन और कॉमन लॉ अपनाने वाले अन्य देशों की परंपरा में भारत का जिनेवा कंवेंशन अधिनियम, 1960, भारत के भीतर या बाहर सिर्फ गंभीर अतिक्रमण को ही अपराध मानता है.
कम गंभीर उल्लंघनों के मामले में, जिसमें सामान्य अनुच्छेद-3 भी शमिल है, मुकदमा चलाने के मामले में यह मौन है.
किसी भी स्थिति में (रेव. मोंस. सेबस्टियाओ फ्रांसिस्को ज़ेवियर डॉस रेमेडिओस मोंटिरो बनाम गोवा राज्य) (1969) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक भारत में जिनेवा कंवेंशन के उल्लंघन का शिकार कोई भी व्यक्ति सीधे 1960 के एक्ट के तहत सुरक्षा की मांग नहीं कर सकता है.
इसके तहत केस शुरू करने का अधिकार सिर्फ सरकार के पास है. लेकिन, पथरीबल के अनुभव और सुरक्षा बलों के हाथों नागरिक हत्याओं के अनगिनत उदाहरणों से हम यह भली-भांति जानते हैं कि आपराधिक मुकदमा शुरू करने में सरकार की शायद ही कोई दिचलस्पी है.
जिनेवा कंवेंशन के सामान्य अनुच्छेद 3 का असली महत्व सिर्फ इसके तहत नागरिकों को मिलने वाली सुरक्षा को लेकर ही नहीं है. इसका महत्व इस तथ्य के कारण है कि यह सशस्त्र संघर्ष में शामिल सरकारी बलों और आतंकवादियों, दोनों पर ही लागू होता है.
छुट्टी बिता रहे एक भारतीय सैन्य जवान की आतंकवादी द्वारा हत्या भी जिनेवा कंवेंशन का उतना ही उल्लंघन है, जितना, किसी सैनिक के हाथों जानबूझ कर किसी नागरिक की हत्या.
भारतीय जवानों के शरीर को पाकिस्तान के अनियमित लड़ाकों या ‘नॉन-स्टेट एक्टर्स’ द्वारा क्षत-विक्षत करना भी जिनेवा कंवेंशन का उल्लंघन है.
दूसरे शब्दों में ये समझौते सिर्फ पाबंदियां नहीं लगाते हैं, बल्कि एक रक्षा-कवच के समान भी हैं, खासकर अगर भारत इनको लागू कराने के की दृढ़तापूर्वक मांग करना चाहता है.
जाधव से धर तक, कानून में पीड़ित
भारत सरकार को यह समझना चाहिए कि कुलभूषण जाधव के मामले में अंतरराष्ट्रीय कानूनी उपायों पर जोर देने का उस सूरत में कोई महत्व नहीं रह जाता, जब वह खुद फ़ारूक़ डार के मामले में उनके प्रति कोई सम्मान प्रकट नहीं करती.
कोई भी देश किसी निश्चित समय पर अपनी राजनीतिक सुविधा के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्वों का हवाला नहीं दे सकता. ऐसा करने से भारत पर भी यह आरोप लग सकता है, जो हमने पाकिस्तान पर लगाया है, कि पाकिस्तान कानून के शासन में यकीन नहीं करता.
जो लोग सेना द्वारा एक नागरिक को बंधक बनाकर उसका उपयोग मानव कवच के तौर पर करने का बचाव करते हैं, वे जिनेवा कंवेंशन और आईसीसीपीआर के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन को उचित ठहराने के लिए दो तर्क देते हैं.
पहला, फ़ारूक़ एक ‘पत्थरबाज’ था और इस तरह उसे संघर्ष में शामिल नहीं होने वाले व्यक्ति के तौर पर नहीं देखा जा सकता.
दूसरा, सैन्य अधिकारी के इस कदम ने हत्या पर उतारू भीड़ को रोक कर लोगों की जानें बचाईं, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर सेना को गोलियां चलानी पड़ती.
पहला तर्क तुरंत धराशायी हो जाता है, क्योंकि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि डार किसी भी तरह की हिंसा में शामिल था. यह देखते हुए कि उसने अलगाववादियों के फरमान के खिलाफ जाकर वोटिंग की थी, उसके पत्थरबाजी में शामिल होने की संभावना भी बेहद कम नजर आती है.
दूसरा तर्क भी बेहद भुरभुरा है और ऐसी स्थिति की कपोल-कल्पना पर टिका हुआ है, जिसकी संभावना बेहद कम है.
एक हत्यारी भीड़ जिसे सिर्फ गोली से काबू में किया जा सकता है, वह उस समय हाथ पर हाथ धर कर चुप रहे, जब सेना के जवान के आर्मी जीप से उतर कर हिंसक भीड़ में से किसी को पकड़ लें और उसे गाड़ी के आगे काफी समय तक बांधते रहें और इस दौरान एक भी पत्थर न फेंका जाए, एक भी गोली न चले, यह बात हजम नहीं होती.
अगर यह मान भी लिया जाए कि किसी आपातकालीन सैन्य जरूरत के कारण सेना को ऐसा गैरकानूनी काम करना पड़ा हो, लेकिन फिर भी यह सवाल तो बनता ही है कि आखिर एक इंसान को रक्षा कवच के तौर पर इस्तेमाल करने वाली जीप को तुरंत सुरक्षित स्थान की तरफ क्यों नहीं ले जाया गया?
बल्कि इसकी जगह जीप को जिले भर में घंटों तक घुमाया क्यों गया? स्पष्ट तौर पर डार का इस्तेमाल नागरिकों को चेतावनी देने के लिए एक बंधक के तौर पर किया जा रहा था.
लोगों को सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने से रोकने की कोशिश करना अपने आप में एक तारीफ के काबिल मकसद है, लेकिन इस अपराध में शामिल अधिकारियों ने डार को मनमाने ढंग से हिरासत में लेकर और उसके साथ यह अपमानजक और उन्हें नीचा दिखानेवाला सुलूक करके कानून का उल्लंघन किया है.
उस समय सैकड़ों नहीं, तो कम से कम दर्जनों गाड़ियां घाटी में गश्त पर होंगी. ऐसे में यह तथ्य कि किसी और कमांडिंग ऑफिसर को ऐसा गैरकानूनी कदम उठाने की जरूरत महसूस नहीं हुई, अपने आप में अलग ही कहानी कहता है.
आखिर में, फ़ारूक डार को भी भारत की सरकार, संविधान और कानूनी एजेंसियों से सुरक्षा पाने का उतना ही हक है, जितना हक कुलभूषण जाधव को है.
जरूरत इस बात की है कि सेना, जिसकी इस मामले में आंतरिक जांच अभी जारी है, यह सुनिश्चित करे कि वह इस प्रकट गैरकानूनी काम को नजरअंदाज न करे. यह जरूरी है कि वह सही काम करे.
पाकिस्तान का दावा था कि जाधव ने गंभीर अपराध किए हैं, मगर आईसीजे के जजों ने यह निर्णय किया कि जाधव को उन हुए लोगों द्वारा फांसी पर चढ़ाए जाने की अनुमति देना पूरी तरह से अन्यापूर्ण होगा, जिन्होंने संधि के तहत अपने देश को मिले दायित्वों का खुद उल्लंघन किया है.
भारत की न्यायपालिका को लोगों के खिलाफ, जिन्होंने डार को बंधक बनाकर और उसका इस्तेमाल मानव कवच के तौर पर करके भारत के संधि दायित्वों का उल्लंघन किया है, इसी तरह पेश आने का साहस दिखाना चाहिए.
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