नियमित अंतराल पर ऐसी तस्वीरें मीडिया में देखने को मिल जाती हैं जब किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी का पुरुष या महिला नेता तलवार, धनुष-बाण या गदा हाथ में लेकर इसका सार्वजनिक प्रदर्शन करता है.
ये है अपना राजपूताना नाज़ इसे तलवारों पे
इसने सारा जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे
ये प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पे
कूद पड़ी थी यहां हज़ारों पद्मिनियां अंगारों पे
बोल रही है कण कण से कुरबानी राजस्थान की
इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की
वंदे मातरम् वंदे मातरम्
मुझे यह गीत हाई स्कूल तक कंठस्थ था. इसे मैंने टेलीविजन पर जागृति फिल्म में देखा था. यह शायद 1988 का साल था. उस दिन जब टेलीविजन पर फिल्म आ रही थी तो मेरे पिता ने मुझसे कहा था, ‘इस फिल्म को पूरी तरह देखकर उठना’. उस दिन उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में बिजली नहीं गयी थी और इस फिल्म को देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा था.
शायद मेरे पिता चाहते थे कि ऐसी फ़िल्में देखकर मैं एक अच्छा नागरिक बन सकूंगा. वे गलत भी नहीं थे. उनकी पीढ़ी के जो लोग 1930 या 1940 के दशक में पैदा हुए थे और वे देश के प्रति थोड़ी सी ना-नुकुर के बाद एक आदर्शवादी दृष्टिकोण रखते थे.
उनके देश की कल्पना में गांधी और महाराणा प्रताप दोनों आते थे, जैसा 1954 में आयी जागृति फिल्म के गांधीवादी शिक्षक के मन में थी. वह ट्रेन की सैर के द्वारा भारत के बारे में अपने स्कूल के छात्रों को बता रहा था. इस क्रम वह अपने बच्चों को महाराणा प्रताप, रानी पद्मिनी, शिवाजी के नायकत्व से उन्हें परिचित करा रहा था.
मेरे पिता ने और उनकी पीढ़ी के बहुत सारे लोगों ने और इस गीत को लिखने वाले खुद कवि प्रदीप ने सोचा भी नहीं होगा कि आज़ादी के नारों पर पलने वाले उनके महाराणा प्रताप के वतन में एक दिन उनके नाम पर हिंसा की जाएगी. उनके नाम पर तलवारें लिए लोग नारियों पर हिंसा ढाने के लिए उतारू हो जाएंगे.
सहारनपुर ज़िले में हुए जातीय संघर्ष के बाद स्थिति तनावपूर्ण हो गयी, कई लोगों को गिरफ़्तार करके जेल भेजा गया. उसके बाद एक अल्पकालिक शांति के बाद फिर जातीय झड़प हुई. दो लोग मारे गए. प्रदेश सरकार की विपक्षी दलों सहित सोशल मीडिया ने काफी लानत-मलामत की. सरकार ने सहारनपुर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी को हटा दिया.
महाराणा प्रताप जयंती के उपलक्ष्य में निकाली जा रही शोभायात्रा को रोकने की वजह से शुरू हुए इस विवाद में जातीय गौरव की भावना का योगदान रहा है. माना जा रहा है कि प्रदेश में नई सरकार आने के बाद उच्च जातियां विशेषकर राजपूतों ने कानून व्यवस्था हाथ में ली है. इसी के साथ उन्होंने परम्परागत रूप से बंदूकों के साथ तलवारों का सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया है.
लगता है सहारनपुर में सदियों पहले का भारत लौट आया है. जब लोग विजय प्राप्त करने के लिए या आत्मरक्षा के लिए तलवार रखते थे. आज सहारनपुर में में कई पुराने रीति रिवाज़ों के दिन लौट आए हैं.
सामूहिक जातीय स्मृतियों को ताजा किया जा रहा है. पुराने राजसी/सामंती वस्त्रों पर कलफ़ लगाकर इस्तरी की जा रही है. पुराने कोठागारों में पड़ी तलवारों को साफ़ किया जा रहा है. उनके लिए डिजाइनर क़िस्म की म्यानें खरीदी जा रही हैं.
वास्तव में यह सब कुछ अनायास नहीं हो रहा है. इसकी एक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है. भारत तलवारों पर नाज़ करता है. आरंभिक भारत के इतिहास के जानकारों का कहना है कि भारत में बनी तलवारों की प्रतिष्ठा मध्य एशियाई देशों तक थी. यह अकारण नहीं है कि भारतीय कल्पनाओं में जिस एक हथियार की सबसे ज्यादा इज्ज़त दीख पड़ती है, वह शायद तलवार ही है.
भारत के देवी-देवता धनुष-बाण और तलवारों से लैस दिखाई पड़ते है. धनुष-बाण और तलवारों से वे दुष्टों का वध करते हैं और अपने भक्तों को सुरक्षा का बोध प्रदान करते हैं. देवता का हथियार उसके भक्त को सुरक्षित रखता है.
इसी प्रकार राजा-महाराजा हथियार रखते थे, उसका घनघोर प्रशिक्षण प्राप्त करते थे. अंग्रेज़ आए. इसके बाद आजादी आयी. लेकिन भारत की मनश्चेतना में तलवारें बनी रहीं.
सहारनपुर में हुई घटनाएं बताती हैं कि किस प्रकार तलवार और जाति के संबंध को पुनर्जीवित कर दिया गया है. इन हिंसक वारदातों के दौरान जो फोटो वायरल हुए हैं उन्हें देखकर लगता है कि जैसे आदमकद शीशे के सामने खड़ा होकर कोई व्यक्ति पूरे राजसी किस्म के वस्त्र पहनकर, तलवार टांगकर खुद से ही पूछे- कैसा लग रहा हूं? और बाहर निकलकर अपने विरोधियों को तलवार से घायल करने लगे.
मुझे फेसबुक पर तैरती वह फोटो दिलचस्प और कुछ समय बाद भयानक लगी जिसमें दो व्यक्ति परम्परागत तलवार लेकर घूम रहे हैं. अमूमन देखा जाता है कि विरोधी गुटों से संघर्ष के दौरान लोग जिस किसी भी कपड़े-लत्ते में होते हैं, वैसे ही लड़ाई झगड़ा करने निकल पड़ते हैं. यहां तो लोग हिंदी सीरियलों के पात्रों की तरह सज-धज कर हिंसा पर उतारू हुए.
यह वस्त्र-विन्यास और तलवारबाजी भारतीय समाज को उन लिथोग्राफिक कैलेंडरों की ओर लौटाना चाह रही है, जो उसने पिछली शताब्दी में दीवालों पर टांग दिए थे. राजपूती आन-बान-शान के यह प्रतीक सहारनपुर में जैसे कैलेंडर से बाहर निकल आए हैं.
लेकिन यह इतना प्राचीन भी नहीं है. लगभग नियमित अंतराल पर ऐसी तस्वीरें मीडिया में देखने को मिल जाती हैं जब किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी का पुरुष या महिला नेता तलवार, धनुष-बाण या गदा को हाथ में लेकर इसका सार्वजनिक प्रदर्शन करता है.
यह तलवार, धनुष-बाण या गदा उसके पार्टी कार्यकर्ता या समर्थक देते हैं. इस अवसर पर दी जाने वाली गदा प्रायः खोखली होती है. कुछ अवसरों पर तलवार, धनुष-बाण या गदा सोने-चांदी की होती है.
इन हथियारों को हाथों में लेकर नेता एक प्रकार का राजनीतिक अनुष्ठान संपादित कर रहे होते हैं. वे जनता को बताना चाहते हैं कि उन्हें तलवार, धनुष-बाण या गदा से उनकी शुभकामना और शक्ति प्राप्त हो गयी है. कभी-कभी कुछ अधीर पार्टी कार्यकर्ता या समर्थक अपने नेताओं को देवता के नाम से विभूषित कर देते हैं.
ऐसे राजनीतिक सांस्कृतिक वातावरण में जब जनता से लेकर नेता तक तलवार का सार्वजनिक सम्मान करते देखे जा सकते हैं तो लोगों की हिंसा पर रोक लगाना काफी मुश्किल हो जाता है. वह दिन दूर नहीं जब यह हिंसा उत्पीड़ित पक्षों की ओर से भी की जा सकती है. उनमें दबंग तबके हताशा भरते जा रहे हैं.
यह उन्हें उन जनतांत्रिक रास्तों से दूर कर सकता है जिसे भीमराव आम्बेडकर ने उन्हें दिखाया था. उन्होंने कमजोर लोगों से पढ़ाई करने, इकट्ठा रहने और संघर्ष करने की बात की थी. यह संघर्ष जब जनतांत्रिक रास्ते से आगे बढ़ रहा था तब उन्हें तलवार निकालकर धमकाना अच्छी बात नहीं है.
कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है- यह कहकर समाज अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता है. हमारे सार्वजनिक और निजी व्यवहार में तलवारधारी बाहुबली का आकर्षण बहुत ठीक बात नहीं है. हमारे मन के कोने-अंतरे में एक तलवार टंगी रहती है. इस तलवार से हम अपने विरोधी को मार देना चाहते हैं.
समाज को अपने आपको अहिंसक बनाने के उपाय खोजने होगे. ज्यादा से ज्यादा राज्य सरकार तलवार पर प्रतिबंध लगा सकती है. तब लोग हिंसा के लिए पत्थर उठा लेंगे. मामला हिंसा का है, हथियार का नहीं है.
अभी हाल ही में दिल्ली में सहारनपुर सहित उत्तर भारत के दलितों का एक बड़ा जुटान हुआ. इसने अपने आपको भीम आर्मी के नाम से संबोधित किया है. इसे मेनस्ट्रीम मीडिया में तवज्जो न मिलने के बावजूद राजनीतिक महत्व मिला है. नागरिक समाज के एक बड़े हिस्से ने भीम आर्मी के साथ एकजुटता दिखाई है.
बसपा नेता मायावती की 2014 और 2017 की चुनावी हार के बाद यह माना जा रहा था कि अब दलित राजनीति समाप्त हो गयी है. इस घटना ने चेता दिया है कि राजनीतिक निष्कर्ष जल्दबाजी में नही दिए जाने चाहिए.
ऐसा हो सकता है कि बहुजन समाज पार्टी परिदृश्य से ओझल हो जाए लेकिन दलित समुदाय रहेगा. उस पर होने वाला अत्याचार रहेगा. इस अत्याचार के विरोध में राजनीति भी बनेगी. इस बार यह राजनीति संभवतः भीम सेना बनाए.
भीम सेना की यह गोलबंदी दलित समुदायों के लिए शक्ति के पुनर्प्राप्ति का एक बड़ा अवसर माना जा रहा है. दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए हजारों लोगों को भीम (डाक्टर भीमराव आंबेडकर) पर भरोसा है.
यह जरुरी है कि उनके साथ यह भरोसा बना रहे. देश संविधान सम्मत चलता रहे. यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण होगा जब ‘भीम सेना’ में केवल सेना बची रह जाएगी. एक समतापूर्ण राजनीतिक और सामाजिक दुनिया के लिए ज़रूरी है कि भीम सेना अपनी राजनीति बना सके.
(लेखक ने अभी हाल ही में जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी की है.)