ब्रिटिश राज में बने राजद्रोह क़ानून को सरकारों द्वारा अक्सर आज़ाद अभिव्यक्ति रखने वालों या सत्ता के विरुद्ध बोलने वालों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया है.
महात्मा गांधी की हत्या के 71 वर्ष गुजर चुके हैं, मगर उनका एक भाषण आज भी विश्व इतिहास का सबसे शक्तिशाली राजनीतिक बयान है. यह अदालत में अपने ‘अपराध’ की बिना किसी पछतावे की स्वीकारोक्ति- सत्ता की नाफरमानी के सबसे बेबाक और निडर सबूतों में से एक है.
एक ऐसे दौर में जब विद्वानों, एक्टिविस्टों, छात्रों, कवियों, समाजसेवियों, वकीलों की एक बड़ी संख्या पर उसी कानून के तहत मुकदमा दर्ज है, जिसके तहत लगभग 100 साल पहले गांधी पर मुकदमा दर्ज किया गया था, गांधी का यह बयान खास महत्व रखता है.
मोहनदास करमचंद गांधी ने 18 मार्च, 1922 को अहमदाबाद के जिला न्यायालय के जज सीएन ब्रूमफील्ड के सामने अपना बयान दिया था. उन्होंने ‘सरकार की मौजूदा व्यवस्था’ के खिलाफ ‘असंतोष’ की शिक्षा देने की बात स्वीकार की, और कहा कि ऐसा करना उनके लिए ‘लगभग जुनून के समान बन गया है.’
गांधी पर यंग इंडिया में उनके लिखे तीन ‘आपत्तिजनक’ लेखों से सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काने का आरोप लगाया गया था. उनके साथ प्रकाशक और प्रिंटर, शंकर लाल बैंकर पर भी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 (ए) के तहत मामला दर्ज किया गया था.
आज भी सरकारें आजाद अभिव्यक्ति वाले या सत्ता के सामने सच कहने वालों के खिलाफ सबसे ज्यादा आईपीसी की इसी धारा का ही इस्तेमाल करती हैं. गांधी ने जज के सामने उनके ऊपर लगाए गए अपराधों को स्वीकार करते हुए कहा, ‘मुझे पता था कि मैं आग से खेल रहा हूं. मैंने जोखिम लिया और अगर मुझे छोड़ दिया जाता है, तो मैं फिर से वही करूंगा.’
फरवरी, 1922 में गांधी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे और बारदोली आंदोलन- अंग्रेजों के खिलाफ पहला अखिल भारतीय प्रतिरोध- को वापस लेना पड़ा था. इस आंदोलन को वापस लेने की वजह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के चौरी चौरा में प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिस चौकी में आग लगा देने की घटना थी, जिसमें 20 से ज्यादा पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी.
हिंसा की घटना से व्यथित होकर गांधी ने तत्क्षण असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया. यह उनके लिए एक राजनीतिक नाकामयाबी थी. जब उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया, तब गांधी ने इसे राज पर हमला बोलने और गंवाई गई जमीन को वापस पाने के मौके में बदल दिया.
लेखक और राजनीतिशास्त्री त्रिदिप सुहरुद का कहना है, ‘वे राजनीतिक बियाबान में चले गए होते.’ राजद्रोह के कानून के तहत गांधी की गिरफ्तारी के महत्व को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, ‘यह संभव है कि चौरी चौरा कांड और असहयोग आंदोलन को वापस लेने के फैसले से हुए नुकसान की भरपाई करने में गांधी को या देश को ज्यादा वक्त लगा होता.’
ब्रिटिश राज को चुनौती देते हुए गांधी ने धारा 124 (ए) को ‘भारतीय दंड संहिता के राजनीतिक प्रावधानों के बीच राजकुमार- सा करार दिया, जिसका मकसद नागरिकों की आजादी को दबाना था.’
उन्होंने जज के सामने ऐलान किया, ‘प्रेम का निर्माण नहीं किया जा सकता है न ही कानून के द्वारा इसके बहाव को तय किया जा सकता है.’ उन्होंने जज से कहा कि इस धारा के तहत उन पर मुकदमा चलाया जाना उनके लिए सम्मान की बात है, क्योंकि इसके तहत ‘भारत के सबसे चहेते देशभक्तों’ के खिलाफ मुकदमा चलाया गया है.
लेकिन इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि इस यादगार बयान के लगभग 100 साल बाद भी सत्ता की ताकत को चुनौती देने वालों के खिलाफ इस उपनिवेशी कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है. यह इस तथ्य के बावजूद है कि हमारी संविधान सभा ने राजद्रोह पर चर्चा की थी और इसे खारिज कर दिया था.
नेताओं ने राजद्रोह को संविधान का हिस्सा नहीं बनने दिया. लेकिन इसके बावजूद एक के बाद एक आई सरकारों ने इस धारा के तहत लोगों पर मुकदमा दर्ज किया है, उन्हें गिरफ्तार किया है. यह धारा आज भी भारतीय दंड संहिता का हिस्सा बना हुई है.
राजद्रोह कानून का दुरुपयोग अक्सर आजाद अभिव्यक्ति रखनेवालों के खिलाफ किया गया है, भले ही इन आरोपों को अदालत में साबित न किया जा सके. ज्यादातर मामलों में पुलिस ने चार्जशीट तक दाखिल नहीं की. इसके बावजूद, कई बार आरोपियों को कई साल जेल में गुजारना पड़ता है.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े राजद्रोह के दर्ज किए गए मामलों में हर साल बढ़ोतरी को दिखाते हैं. यह तथ्य कि तीन सालों में- 2014 से 2016 तक- सिर्फ दो लोगों पर लगे आरोपों को साबित किया जा सका है, इस आरोपों की बेबुनियादी प्रकृति के बारे में बताने के लिए काफी है.
एक दूसरा तथ्य यह है कि 2016 के अंत तक 80 फीसदी मामलों में कोई आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया था और सिर्फ 10 फीसदी मामलों में मुकदमा शुरू हो सका.
हालांकि, अब भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत नहीं है और हमारे यहां एक संघीय व्यवस्था के तहत लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार है, लेकिन प्रशासन में उपनिवेशवादी चिह्न आज भी देखे जा सकते हैं. जो दरारें पहले से ही चौड़ी हो रही थीं, आज वे पहले के किसी भी समय की तुलना में और ज्यादा चौड़ी हो गयी हैं.
चुनी हुई सरकारें असहमति रखने वाले लोगों के साथ संवाद स्थापित करने और एक राजनीतिक प्रक्रिया चलाने में नाकाम रही हैं और यह नाकामी कश्मीर से उत्तर पूर्व तक भारत के सभी हिस्सों में दिखाई देती है. पुलिस और सुरक्षा बलों की बड़ी संख्या में तैनाती ने इन सरकारों के लोकतांत्रिक तरीके से काम करने पर सवाल खड़े किए हैं.
इसके अलावा, सरकार और इसके लोगों के बीच अंतर को अक्सर धुंधला कर दिया गया है. सरकारों ने खुद को ‘राष्ट्र’ के पर्यायवाची के तौर पर पेश किया है. वे इस विचार को बढ़ावा देते हैं कि सरकार के खिलाफ बोलना ‘देश-द्रोही’ गतिविधि है.
सैन्य बलों का राजनीतिकरण करने की स्पष्ट कोशिशें की जा रही हैं और तिरंगे का प्रदर्शन अक्सर देशप्रेम के तहत नहीं, बल्कि युद्धोन्मादी कट्टरता को प्रकट करने के लिए किया जा रहा है. स्कूलों और विश्वविद्यालयों को भी नहीं बख्शा गया है.
खुले विचारों, कला, संस्कृति, संगीत, विज्ञान को बढ़ावा देने वाली जगह बनने की जिम्मेदारी निभाने की जगह हमारे शैक्षणिक संस्थानों का इस्तेमाल उग्र राष्ट्रवाद का प्रसार करने के लिए किया जा रहा है.
‘राष्ट्रवाद की भावना भरने’ के लिए विश्वविद्यालय में सैन्य टैंक रखने की एक कुलपति की इच्छा को इस संस्कृति का एक उदाहरण कहा जा सकता है. इस पृष्ठभूमि में राजद्रोह कानून आजाद अभिव्यक्ति वालों या सरकार के खिलाफ बोलने वालों को डराने का एक औजार बन गया है.
हाल के समय में वकील सुधा भारद्वाज, जेएनयू के छात्र कन्हैया कुमार और उमर खालिद समेत कई एक्टिविस्टों को इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया. ये मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं. लेकिन यह कानून की सवालों के घेरे में है.
जैसा कि इतिहासकार रोमिला थापर कहती हैं, ‘हमने बड़ी संख्या में उपनिवेशी कानून विरासत के तौर पर मिले हैं. ये कानून एक दूसरे समाज को ध्यान में रखकर बनाए गए थे. आज हम एक उपनिवेश नहीं हैं. आज इन कानूनों पर पुनर्विचार करने का वक्त आ गया है.’
आजाद अभिव्यक्ति और असहमति को दबाने की कोशिशें नई नहीं हैं. पहले की सरकारों ने भी कलाकारों और एक्टिविस्टों पर इसी कानून के तहत मामले दर्ज किए हैं. मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग की आलोचना की है. लेकिन सत्ता में होते हुए उसने भी असहमति रखने वालों के खिलाफ इसी कानून का दुरुपयोग किया है.
चलिए गांधी और 1922 के मुकदमे की ओर वापस लौटते हैं. इस मुकदमे की सुनवाई करते वक्त जज ब्रूमफील्ड संवेदनशील और विनम्र थे. उन्होंने यह स्वीकारा किया कि करोड़ों भारतीयों की नजरों में गांधी एक ‘महान देशभक्त और एक महान नेता’ हैं. और राजनीति तौर पर उनसे अलग मत रखनेवाले भी गांधी को ‘महान आदर्शों वाला व्यक्ति’ मानते हैं.
जज ने यह भी कहा कि वे यह नहीं भूल सकते हैं कि गांधी ने सतत तरीके से ‘हिंसा के खिलाफ उपदेश’ दिया है और ‘हिंसा को रोकने के लिए काफी कुछ किया है.’ अपनी असहायता प्रकट करते हुए जज ने कहा कि वे ‘कानून के सामने पेश व्यक्ति’ की तरह ही गांधी पर विचार कर सकते हैं.
गांधी को छह साल की सजा सुनाई गई, जो उनके ही हिसाब से इस मामले में किसी जज के द्वारा दी जा सकने वाली सबसे हल्की सजा थी. हालांकि उन्हें जेल भेज दिया गया, लेकिन यह पूरा मुकदमा उनके लिए एक बड़ी राजनीतिक जीत थी. उन्होंने आंदोलन में फिर से जान डाल दी थी; जनता में नई ऊर्जा का संचार किया था.
क्रूर राजसत्ता के खिलाफ गांधी के विद्रोह का अनुकरण दुनियाभर में किया गया है. चाहे नेल्सन मंडेला हों, ऑलिवर टैम्बो, मार्टिन लूथर किंग हों या जयप्रकाश नारायण हों- इन नेताओं ने सत्ताधारी निजाम को गांधी के रास्ते पर चलते हुए चुनौती दी. कुछ हद तक वे गांधी के जीवन और उनकी राजनीति से प्रेरित थे.
दिलचस्प बात है कि गांधी इस साल के गणतंत्र दिवस उत्सव की थीम थे. यह साल देश गांधी की 150वीं जयंती का भी साल है. निश्चित तौर पर 2019 में इस दमनकारी राजद्रोह कानून को समाप्त करने से बेहतर कोई श्रद्धांजलि गांधी को नहीं हो सकती है.
(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
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