ग्राउंड रिपोर्ट: राजस्थान के बूंदी ज़िले का बुधपुरा गांव कॉबल यानी फर्श पर लगाए जाने वाले पत्थरों के लिए जाना जाता है. पत्थर के खदानों से निकले मलबे से कॉबल बनाने के काम की स्थिति ये है कि एक बार जब मज़दूर यहां काम करना शुरू कर देता है, तो ठेकेदारों के चंगुल में फंसकर कभी यहां से निकल नहीं पाता.
बुधपुरा: राजस्थान के बूंदी जिले के बुधपुरा गांव के कॉबल (फर्श पर लगाया जाने वाला पत्थर) मजदूर को नए भारत का गुलाम कहना गलत नहीं होगा. गुलाम इसलिए क्योंकि एक मालिक से दूसरे मालिक के यहां पत्थर खदानों से निकले मलबे को एक तय आकार में काटते हुए ही इनकी पूरी जिंदगी कट जाती है.
इन मजदूरों द्वारा तराशे हुए पत्थर विदेशों में सप्लाई होते हैं. इनके मालिक करोड़ों रुपये का कारोबार करते हैं, लेकिन इन मजदूरों के हिस्से उन पत्थरों से बचे हुए कचरे की तरह सिर्फ एक रुपये प्रति नग के हिसाब से मजदूरी आती है.
कभी घर में शादी या किसी के इलाज के लिए कर्ज के रूप में मालिक की दी हुई पेशगी के कुछ हजार रुपयों के जाल में ये मजदूर ऐसे फंसते हैं कि ताउम्र बाहर ही नहीं निकल पाते.
चूंकी इसकी आय का स्रोत सिर्फ यह मजदूरी होती है इसलिए ये कभी उस भारी भरकम कर्ज का चुका नहीं पाते. इस स्थिति में पूरे परिवार को उसी मालिक के यहां तब तक मजदूरी करनी पड़ती है, जब कोई दूसरा कॉबल स्टॉक मालिक उस राशि में कुछ और रकम जोड़कर पहले कॉबल व्यवसायी को नहीं चुका देता.
बुधपुरा में करीब 20 किमी के दायरे में फैले पत्थरों के ढेर के 50 से ज्यादा कॉबल मालिक हैं. इस पेशे में हजारों की संख्या में बच्चे, महिलाएं, पुरुष और युवा मजदूर लगे हुए हैं.
कॉबल मालिक बदलते रहते हैं लेकिन कर्ज (पेशगी) के बोझ के तले दबे हजारों मजदूर एक मालिक से दूसरे मालिक के यहां गुलामी की अदृश्य जंजीरों में ही जकड़े रहते हैं.
बुधपुरा के आसपास के तकरीबन एक दर्जन से ज्यादा गांवों- पराणा, लाम्बाखोह, राजपुरा, गुढ़ा, डोरा, कछलिया, कंवरपुरा, खेड़ा, गरडदा, मालीपुरा, हिंडोली, सुतड़ा, काला, पिपला, भगवानपुरा, भवानीपुरा, थड़ी, गोवर्धन, बुधपुरा चौराहा और बरड़ क्षेत्र में कॉबल का बड़ा व्यवसाय है.
क्षेत्र में 10 हजार से ज्यादा प्रवासी मजदूर इस व्यवसाय से जुड़े हैं. पूरे बूंदी जिले में डेढ़ लाख से ज्यादा खान मजदूर काम कर रहे हैं.
बुधपुरा कॉबल व्यवसाय का हब है और यहां अधिकतर मजदूर महिला और बच्चे हैं. यहां बाल मजदूरी आम है. पुरुष सैंड स्टोन की खानों में काम करते हैं और इससे निकलने वाली सिलिका कणों की चपेट में आकर सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित होकर दम तोड़ते हैं.
क्या है कॉबल व्यवसाय?
कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा क्षेत्र में कई सौ सालों से सैंड स्टोन का खनन हो रहा है. कोटा से करीब 50 किमी दूर भीलवाड़ा हाइवे पर बुधपुरा गांव है. इस गांव और आसपास के क्षेत्र में सैकड़ों सैंड स्टोन खानें हैं.
इन खानों से निकले पत्थर को अलग-अलग साइज में काटकर सप्लाई किया जाता है. कुछ साल पहले तक सप्लाई किए पत्थर से बचे टुकड़ों को कचरा मानकर फेंक दिया जाता था, लेकिन बीते 15 सालों में इस कचरे से यहां बड़ा बिजनेस मॉडल खड़ा हो गया है. इस कचरे को स्थानीय भाषा में खंडा कहा जाता है.
पत्थरों के इन टुकड़ों को कई आकार में काटकर यूरोपीय ठंडे देशों में सप्लाई किया जा रहा है. इन्हें ही कॉबल कहते हैं.
फिलहाल बेल्जियम कॉबल का सबसे बड़ा बाजार है. फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और रूस जैसे देशों में कॉबल डिवाइडर, फुटपाथ बनाने में काम आ रही हैं. विदेशों में बढ़ी मांग से बूंदी जिले के डाबी और बुधपुरा में कॉबल ने बहुत ही कम समय में उद्योग का दर्जा पा लिया है.
यहां छह बाई छह के आकार के अलावा पांच-छह तरह के आकारों में कॉबल तैयार हो रहे हैं. मात्र डेढ़ दशक में कॉबल उद्योग 100 करोड़ रुपये सालाना से ज्यादा के कारोबार तक पहुंच गया है. अकेले बुधपुरा में 40 से ज्यादा कॉबल के गोदाम हैं.
बूंदी में कॉबल निर्माण संघ के अध्यक्ष राजकुमार बुलचंदानी बताते हैं कि जिले के खनन क्षेत्र से प्रति माह तकरीबन 1,000 ट्रक माल निकलता है. एक ट्रक में तकरीबन 28 टन माल आता है और हर रोज कॉबल के करीब 20 ट्रक यहां से सप्लाई होते हैं.
वे बताते हैं, ‘कॉबल की स्थानीय दर फिलहाल 1800 रुपये प्रति टन है, जबकि विदेशों में इसकी कीमत 4500-5000 रुपये प्रति टन से भी ज्यादा है.’
कॉबल मजदूरों की बंधुआ वाली स्थिति पर राजकुमार कहते हैं, ‘मजदूरों को जरूरत पड़ने पर हम कर्ज देते हैं. गुलामी या बंधुआ जैसी कोई स्थिति यहां नहीं है.’
कॉबल मज़दूर कैसे बनते हैं ‘बंधुआ’
बुधपुरा के रहने वाले श्याम, इनकी विधवा बहन मीना और मां कई सालों से कॉबल बनाने का काम कर रहे हैं. श्याम अभी 22 साल के हैं. 10 साल की उम्र से इन्होंने छेनी-हथौड़ा हाथों में थाम लिया था.
इनके पिता की मौत खानों में काम करते हुए करीब 20 साल पहले हो चुकी है. श्याम पर बीते 10 साल से 45 हजार रुपये पेशगी है, जो उन्होंने बहनों की शादी और घर के अन्य खर्चों के लिए अपने ठेकेदार से ली थी.
बहन मीना पर भी 12 साल से 26 हजार रुपये पेशगी के रूप में कर्ज चढ़ा हुआ है. यह पैसा उन्हें ठेकेदार से पति के इलाज के लिए उसके यहां काम करने की शर्त पर मिले थे.
कॉबल मालिक ने ज्यादा काम हो इसीलिए इनके घर के आगे ही पत्थर डलवा दिए हैं. तीनों मिलकर दिनभर में 450 कॉबल तक ही बना पाते हैं. इसके बदले तीनों को एक रुपये प्रति कॉबल की दर से मजदूरी प्रत्येक 15 दिन में मिलती है.
कुछ दिन पहले ही श्याम जब अपना हिसाब करने मालिक के पास गए तो महीने का हिसाब करीब 3000 रुपये बना. श्याम ने मालिक से निवेदन किया कि मेरी मजदूरी में से हर महीने 1500 रुपये पेशगी की रकम काट लें, लेकिन कॉबल मालिक ने यह कहते हुए उन्हें झिड़क दिया कि एक साथ पूरी रकम चुकाओ.
मालिक यह जानता है कि श्याम अपनी पूरी उम्र में भी 45,000 रुपये एक साथ नहीं चुका सकता इसीलिए वह काम छोड़कर भी कहीं नहीं जा सकता. अगर वह किसी दूसरे कॉबल मालिक के यहां काम करने जाएगा तो पेशगी की राशि दूसरा कॉबल मालिक पहले मालिक को कुछ हजार ज्यादा करके चुका देगा. इस तरह श्याम अगले कुछ सालों के लिए किसी दूसरे ठेकेदार का बंधुआ बन जाएगा.
श्याम कहते हैं, ‘इस काम की वजह से मेरा परिवार भी छूट चुका है. एक साल पहले शादी हुई थी लेकिन गरीबी और लगातार काम के कारण बीवी छोड़कर चली गई. अन्य युवाओं की शादियां भी नहीं हो रहीं क्योंकि मजदूरों को कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता. हम भी अपनी बहन-बेटियों को छोटी-मोटी नौकरी करने वाले लड़कों से ब्याह रहे हैं.’
इस व्यवस्था में फंसे हुए श्याम अकेले नहीं हैं. 18 साल का भोला, 26 साल के बबलू, 70 साल के सिलिकोसिस पीड़ित बजरंग लाल जैसे लगभग सभी कॉबल मजदूर इस व्यवस्था के शिकार हैं.
यहां के ज्यादातर मजदूरों पर 10 से 50 हजार तक की पेशगी है. सतही रूप से देखने पर तो ये कॉबल मजदूर अपनी मर्जी से पेशगी लेते और काम करते हुए दिखते हैं, लेकिन इनकी मजबूरियों और गरीबी का फायदा उठाकर कॉबल मालिकों ने ऐसा सिस्टम तैयार किया है जो क्षेत्र के बच्चों, महिलाओं और अनपढ़ युवाओं को बंधुआ बना रहा है.
मज़दूरी मनरेगा से भी कम
श्याम की बहन मीना भी बचपन से ही कॉबल बनाने का काम कर रही हैं. शादी के बाद ससुराल चली गईं, लेकिन बीमारी से पति की मौत के बाद वापस मायके बुधपुरा आ गईं.
मीना पर भी 26 हजार रुपये की पेशगी है. मीना कहती हैं, ‘एक महीने पहले मुझे कॉबल बनाते हुए सांप ने काट लिया. कई दिन कोटा अस्पताल में भर्ती रही और 10 हजार रुपये इलाज में खर्च हो गए. मेरे मालिक ने मुझे एक रुपये की भी मदद नहीं दी जबकि मुझे काम करते हुए ही सांप ने काटा था.’
वे आगे कहती हैं, ‘न तो मुझे विधवा पेंशन मिल रही है और न ही कोई और सरकारी सुविधा. हम बंधुआ मजदूर बनकर रह गए हैं. कभी-कभी तो मालिक मजदूरों के साथ मारपीट तक कर देते हैं. अगर कॉबल का साइज एक इंच भी छोटा रह जाता है तो उसकी गिनती नहीं की जाती. ये शोषण है कि कॉबल मालिक रात में हमारे घरों के आगे पत्थर डाल कर चले जाते हैं, जिन्हें हमें मजबूरी में बनाना होता है. अगर हम असमर्थता जताते हैं तो मालिक पेशगी चुकाकर काम छोड़ने की बात कह देता है.’
एक अन्य कॉबल मजदूर बबलू (26) कहते हैं, ‘मेरे ऊपर पिछले 5 साल से 30 हजार रुपये की पेशगी है. हमने कई बार किश्तों में पैसा चुकाने की बात कही, लेकिन मालिक पैसे लेता ही नहीं. उसे पूरी रकम एक साथ चाहिए.’
बबलू कहते हैं, ‘इतनी बड़ी रकम 150 रुपये रोजाना कमाने वाला आदमी कैसे चुका सकता है?’
एक रुपये प्रति नग के हिसाब से काम करने वाले ये कॉबल मजदूर दिन में बमुश्किल 100-150 रुपये कमा पाते हैं, जो कि राजस्थान में मनरेगा मजदूरी (199 रुपये) से भी कम है.
राजस्थान सरकार ने इसी साल मई में अकुशल श्रमिकों की मजदूरी बढ़ाकर 225 रुपये, अर्द्धकुशल श्रमिकों की 237 और कुशल मजदूरों की मजदूरी 249 रुपये प्रतिदिन की है.
सिलिकोसिस से पीड़ित 70 साल के बजरंग लाल की पूरी जवानी बुधपुरा की पत्थर खानों में निकली है और बुढ़ापा कॉबल काटने में निकल रहा है.
बजरंग कहते हैं, ‘मैंने करीब 55 साल पत्थर तोड़ने का काम किया है. खान मालिकों ने कभी सुरक्षा के कोई उपकरण हमें नहीं दिए. हमें बंधुआ बनाने के लिए कुछ हजार पेशगी जरूर मिल जाती है, जिससे हमारे बच्चों की शादी और अन्य जरूरत के काम हो जाते हैं.’
बुधपुरा क्षेत्र में कॉबल मजदूर यूनियन के अध्यक्ष रामचरण कहते हैं, ‘क्षेत्र में 10 हजार से ज्यादा कॉबल मजदूर हैं. महिलाएं और बच्चे सबसे ज्यादा इस काम में लगे हुए हैं. पेशगी की रकम को ठेकेदार मजदूरी में से कभी इसलिए नहीं काटते ताकि हम उनके यहां काम करते रहें.’
वे कहते हैं, ‘मां के साथ काम पर जा रहा बच्चा भी यही सीख जाता है और बचपन से ही कॉबल के काम में लग जाता है. हालांकि जब से कुछ सामाजिक संस्थाएं यहां काम करने लगी हैं तब से बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं, लेकिन स्कूल से लौटकर बच्चे यही काम करते हैं.’
रामचरण आगे कहते हैं, ‘यहां ज्यादातर मजदूर प्रवासी हैं. ये यहां आए और यहीं के होकर रह गए. 40 साल पहले मैं भोपाल से यहां आया था तब यहां खेती होती थी, लेकिन बाद में पूरी जमीन पर खनन चालू हो गया.’
दरअसल 1962 में जब कोटा के पास जवाहर सागर बांध बना तब यहां सैकड़ों निर्माण मजदूर काम करने आए थे. 1972 में बांध का काम पूरा होते ही इनमें से ज्यादातर मजदूर बूंदी जिले के बुधपुरा में बस गए और खानों में काम करने लगे.
आज इन्हीं मजदूरों की तीसरी-चौथी पीढ़ी खानों में मजदूरी कर रही है. हालांकि ये हैरान करने वाली बात है कि आज भी यहां रहने वाले ज्यादातर मजदूरों को स्थानीय निवासी नहीं माना जाता. जनगणना में बुधपुरा की आबादी महज पांच हजार ही है.
बाल मज़दूरी और अशिक्षा
बुधपुरा से करीब तीन किमी दूर पराना गांव में 13 साल की लक्ष्मी पिछले साल सिलिकोसिस से पिता की मौत के बाद कॉबल काट रही है. लक्ष्मी सात बहनों में सबसे बड़ी है और मां के साथ कॉबल काटने से आने वाली मजदूरी से परिवार का बसर होता है.
लक्ष्मी ने झिझक में हमसे बात नहीं की. सिर्फ इतना कहा, ‘मैं काम नहीं करूंगी तो घर का खर्चा कैसे चलेगा?’
लक्ष्मी की मां जुमा बाई (35) ने पति की मौत के बाद मिले मुआवजे की राशि से अपनी पेशगी चुका दी. अब वे बिना पेशगी के ही कॉबल का काम कर रही हैं ताकि परिवार की गुजर-बसर हो सके.
सामाजिक संस्था माइनिंग लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन के एक आंकड़े के अनुसार, क्षेत्र में आज भी कम से कम ढाई से तीन हजार बच्चे कॉबल के व्यवसाय में शामिल हैं. अकेले बुधपुरा में 300 से ज्यादा बच्चे ये काम कर रहे हैं.
इसके अनुसार, पूरे बूंदी जिले में बाल मजदूरों की संख्या 20 हजार से ज्यादा है. महिलाओं और किशोर उम्र के बच्चों के भरोसे ही पूरा व्यवसाय टिका हुआ है. कॉबल काटने से लेकर उसे ट्रक में लोड करने तक का काम इन्हीं से लिया जाता है.
2011 की जनगणना के अनुसार, बुधपुरा गांव में 0-6 साल की उम्र के करीब 900 बच्चे थे जो अब 8-19 साल की उम्र में पहुंच चुके हैं. इनमें से लगभग सभी बच्चे अब कॉबल ही काटते हैं. क्योंकि गांव में 5वीं कक्षा तक ही स्कूल है, इसीलिए यहां ज्यादातर मजदूर बच्चे और युवा 5वीं कक्षा से ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं.
जनगणना के अनुसार, पूरे गांव में 5070 की आबादी में से सिर्फ 37 प्रतिशत यानी 1888 लोग ही साक्षर है. महिलाओं में साक्षरता सिर्फ 25 प्रतिशत ही है.
गांव की 30 प्रतिशत आबादी दलितों की है. इनमें से अधिकांश कॉबल और सैंड स्टोन की खानों में काम करते हैं.
जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि गांव के करीब दो हजार लोग प्रत्यक्ष रूप से खनन कार्यों से जुड़े हुए हैं. पूरे बुधपुरा में सिर्फ 107 ही किसान हैं.
बाल मजदूरी के सवाल पर राजस्थान खान विभाग के तत्कालीन डायरेक्ट जितेंद्र उपाध्याय कहते हैं, ‘ये काम श्रम विभाग का है, लेकिन आपने बताया है तो मैं अधिकारियों से बात करके वहां की रिपोर्ट लेता हूं.’
श्रम विभाग में सचिव नवीन जैन भी बाल मजदूरी के सवाल पर कहते हैं, ‘मुझे इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन अगर शिकायत आती है तो हम कार्रवाई करते हैं. हालांकि खान विभाग से संबंधित श्रम कानूनों को केंद्र सरकार देखती है, लेकिन फिर भी हमें सूचना मिलती है तो बाल कल्याण समिति के साथ मिलकर हम कार्रवाई कर सकते हैं.’
राजस्थान सरकार की ओर से प्रदेश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए गठित एसोसिएशन फॉर रूरल एडवांसमेंट थ्रू वॉलेंट्री एक्शन एंड लोकल इन्वॉल्वमेंट (अरावली) में प्रोग्राम डायरेक्टर वरुण शर्मा इस स्थिति को विस्तार से समझाते हैं.
वे कहते हैं, ‘आज से 10 साल पहले बच्चों की स्थिति बहुत ही गंभीर थी, लेकिन हमने कई सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर वहां अभियान चलाया तो बच्चे स्कूल जाने लगे. अब समस्या यह है कि ये बच्चे स्कूल से लौटकर वही काम कर रहे हैं. इसके लिए उन्हें दूसरी तरह की एक्टिविटीज में शामिल करना पड़ेगा ताकि बच्चे सिर्फ पढ़ाई कर सकें.’
वरुण आगे बताते हैं, ‘बुधपुरा में परेशानी यह भी है कि इन लोगों की आय का जरिया सिर्फ कॉबल और खनन ही है. अगर वहां बिना किसी प्लानिंग के कोई एक्शन लिया गया तो हजारों मजदूरों की रोजी-रोटी पर संकट आ जाएगा और क्षेत्र में अराजकता फैल जाएगी. हालांकि ये सच है कि खनन कार्य में मजदूरों का जबरदस्त शोषण हो रहा है, लेकिन किसी के पास इसका हल अभी तक नहीं है.’
माइनिंग लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन संस्था के मैंनेजिंग ट्रस्टी डॉ. राणा सेनगुप्ता कहते हैं, ‘खदान मजदूरों की पहचान दर्ज कराने के लिए कानूनों में कमी थी. इससे राज्य और केंद्र दोनों सरकारों ने आंखें बंद कर ली हैं. खनन में पहले तो मजदूर सिलिकोसिस की लाइलाज बीमारी लेता है और फिर कॉबल के काम में उसका परिवार आ जाता है. पूरा परिवार सिलिका धूल के कणों के बीच दिनभर काम करता है. ये एक दोहरी परेशानी बन गई है.’
वे कहते हैं, ‘सिलिकोसिस की बीमारी के अलावा मजदूरों में शराब की भी भयंकर लत लगी हुई है. थकान मिटाने के लिए वे शराब पीते हैं.’
राजस्थान विधानसभा में एक सवाल के जवाब में कहा गया है कि प्रदेश में 1 जनवरी 2016 से 31 मार्च 2019 तक बाल श्रम के सिर्फ 2262 मामले ही दर्ज हुए हैं. इन मामलों में पुलिस ने 2429 लोगों को गिरफ्तार किया है. इनमें से ज्यादातर बच्चे उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वाले हैं.
खनन प्रभावित क्षेत्र में विकास कार्य
सरकार ने खनन प्रभावित क्षेत्रों में विकास कराने के उद्देश्य से गैर-लाभकारी डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन ट्रस्ट (डीएमएफटी) का 2016 में गठन किया था. प्रदेश के सभी 33 जिलों में यह ट्रस्ट बना हुआ है.
डीएमएफटी ने बुधपुरा में 2016 से अब तक सिर्फ 19.85 लाख रुपये के विकास कार्य कराए हैं. इनमें से 7 लाख रुपये से स्कूल में कमरा निर्माण, एक लाख रुपए में टॉयलेट निर्माण, 9.85 लाख रुपये में सबमर्सिबल सेट और दो लाख रुपये में स्वास्थ्य केंद्र के लेबर रूम की मरम्मत के कार्य कराए हैं.
इन सब का बुधपुरा के मजदूरों को कितना लाभ मिला यह कहना कठिन है.
पूरे राज्य में सरकार ने डीएमएफटी के तहत दिसंबर 2018 तक 2338.27 करोड़ रुपये जमा किए हैं, लेकिन सिर्फ 438.88 करोड़ रुपये ही खान विभाग इस राशि में से खर्च कर पाया है. अकेले बूंदी जिले में नवंबर 2018 तक 12.23 करोड़ रुपये डीएमएफटी फंड में जमा हुए थे. इसमें से सिर्फ 8.52 करोड़ रुपये के विकास कार्यों को खान विभाग ने मंजूरी दी.
राजस्थान में खनन
राजस्थान खनिजों की दृष्टि से काफी संपन्न राज्य है. फिलहाल 81 मिनिरल यहां पाए जा रहे हैं जिनमें से 57 खनिजों का उत्पादन हो रहा है. 15 हजार से ज्यादा खनन पट्टे सरकार ने पूरे राज्य में दे रखे हैं. बूंदी जिले में करीब 810 खानों को पट्टे सरकार ने दिए हुए हैं.
दिसंबर 2018 तक खान विभाग ने खनन से 3344 करोड़ रुपये की कमाई की है. प्रदेश में सरकार ने सैंड स्टोन के लिए 6838 हेक्टेयर भूमि पर 1167 लीज दे रखी हैं. दिसंबर 2018 तक राजस्थान में 141 लाख टन सैंडस्टोन का उत्पादन हुआ है. इससे सरकार को 186.60 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ है.
राजस्थान के क्षेत्रफल के 0.50 प्रतिशत भाग में खनन होता है, जो देश में सबसे ज्यादा है. सरकार ने कुल 33,122 खनन पट्टे दिए हुए हैं. इनमें से 189 प्रमुख मिनिरल्स पट्टे, 15,245 लघु खनन पट्टे और 17,688 अन्य खदानों के लाइसेंस हैं.
प्रदेश के 33 में से 19 जिलों में सैंड स्टोन की खदानें हैं. इस व्यवसाय में 30 लाख से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिला हुआ है, लेकिन जो स्थितियां नजर आती हैं, उससे पता चलता है कि इनका उचित ध्यान नहीं रखा जाता.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)