मोहन भागवत का भाषण: क्या आरएसएस का क़द मोदी-शाह के सामने छोटा पड़ गया है?

माना जाता है कि जब भी एनडीए सत्ता में आती है, इसकी डोर आरएसएस के हाथों में होती है. लेकिन 2019 के विजयादशमी भाषण के अधिकांश हिस्से में संघ प्रमुख मोहन भागवत का मोदी सरकार के बचाव में बोलना उनके घटते महत्व की ओर इशारा करता है.

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2019 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत. (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)

माना जाता है कि जब भी एनडीए सत्ता में आती है, इसकी डोर आरएसएस के हाथों में होती है. लेकिन 2019 के विजयादशमी भाषण के अधिकांश हिस्से में संघ प्रमुख मोहन भागवत का मोदी सरकार के बचाव में बोलना उनके घटते महत्व की ओर इशारा करता है.

2019 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत। (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)
2019 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत. (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)

नई दिल्लीः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक का दशहरे- संगठन का स्थापना दिवस- के मौके पर दिया जाने वाला भाषण अपने आप में अहम माना जाता है, क्योंकि इसे भारतीय जनता पार्टी समेत समस्त संघ परिवार के कार्यकर्ताओं के लिए राजनीतिक नक़्शे की तरह देखा जाता है, जिसका अनुसरण उन्हें करना होता है.

लेकिन मोहन भागवत के 2019 के भाषण के बारे में शायद ऐसा नहीं कहा जा सकता है. भविष्य का नजरिया- कोई भी नजरिया- पेश करने की जगह उन्होंने लगभग एक घंटा मोदी सरकार का उन मोर्चों पर बचाव करने में खर्च किया, जिन पर उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है.

आरएसएस खुले तौर पर भाजपा से अपना जुड़ाव प्रकट नहीं करता है. भागवत ने खुद यह कई बार कहा है कि संघ उसकी विचारधारा पर चलने वाली किसी भी पार्टी की मदद कर सकता है और भाजपा के साथ उसका कोई संबंध नहीं है.

लेकिन फिर भी अपने भाषण में भागवत ने केवल अपने संगठन को भगवा पार्टी की सहयोगी के तौर पर पेश किया, बल्कि सहायक भूमिका में दिखने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई.

भागवत के पहले दिए गए दशहरे के भाषण

आप याद कर सकते हैं कि 2016 के अपने दशहरा भाषण में भागवत ने सीमा पार की गई सफल सर्जिकल स्ट्राइक पर केंद्र सरकार को बधाई दी थी, लेकिन साथ ही कई प्रशासनिक मुद्दों को भी उठाया था, जिन पर उनके अनुसार सरकार को काम करने की जरूरत थी.

उन मुद्दों में विस्थापित कश्मीरी पंडितों और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मीरपुर, मुजफ्फराबाद, गिलगित और बाल्टिस्तान के उत्पीड़ित हिंदू अल्पसंख्यकों के पुनर्वास का मुद्दा शामिल था. उन्होंने मोदी सरकार से पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की नई शिक्षा नीति (एनईपी) की समीक्षा करने के लिए और और ‘गो-रक्षकों’ और ‘असामाजिक तत्वों’ के बीच अंतर करने के लिए भी कहा था.

मोदी सरकार अब एक नागरिकता विधेयक के लिए अभियान चला रही है, जो मुस्लिमों को छोड़कर सभी धर्मो के शरणार्थियों को भारत में शरण लेने की इजाज़त देगा. इसके साथ ही इसने सुब्रमण्यम समिति की नई शिक्षा नीति को भी खारिज कर दिया और के कस्तूरीरंगन के मसौदे को लागू करने के लिए लेकर आयी.

इसी तरह से 2017 में सरसंघचालक ने सीमा के साथ पाकिस्तान और चीन के किसी शत्रुतापूर्ण कदम का मजबूत और संकल्पवान तरीके से जवाब देने की जरूरत पर जोर दिया था. साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने के किसी भी फैसले से पहले इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि वे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के लिए खतरा’ हैं.

उन्होंने सरकार द्वारा बड़े मूल्य वाले नोटों के विमुद्रीकरण और जीएसटी के क्रियान्वयन के सरकार के फैसले, जिनका खामियाजा संघ परिवार के मुख्य आधार वर्ग- छोटे और मझोले व्यापारियों- को उठाना पड़ रहा था, को लेकर भी अप्रकट तरीके से खतरे की घंटी बजाई थी.

पुराने ‘आर्थिक सिद्धांतों’ पर चलने के लिए उन्होने नीति आयोग को आड़े हाथों लिया था और यह दलील दी थी कि आर्थिक नियोजन ‘देश की जमीनी सच्चाई’ को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए.

2018 में भागवत ने बाहरी खतरों से निपटने के लिए सरकारी प्रयासों को प्रमुखता दिया था, लेकिन साथ ही संघ के हिंदुत्व के संस्करण पर सवाल उठानेवाले यानी ‘अर्बन नक्सलियों या ‘नव-वाम’ की आलोचना करते हुए आंतरिक सुरक्षा को भी मजबूत करने की जरूरत जताई थी.

आजाद भारत में सरकारों के जन-केंद्रित होने की जरूरत के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘केंद्र सरकार और राज्य सरकारों और अर्धसैनिक बल इस संबंध में सफलतावूर्पक कार्रवाई कर रहे हैं. उन्हें अथक चौकसी के साथ इसे जारी रखना होगा.’

सरकार की आलोचना करते हुए भागवत ने कहा था, ‘सरकार की अच्छी नीतियों के क्रियान्वयन में प्रशासनिक संवेदनशीलता, तत्परता, पारदर्शिता और पूर्णता अभी भी उम्मीद के मुताबिक नहीं है. इसका नतीजा यह है कि इन नीतियों का असर अभी तक समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति तक छनकर नहीं पहुंच पा रहा है.’

पिछले पांच सालों में सरसंघचालक सरकार को इसके प्रमुख वादों को पूरा करने की याद दिलाते रहे, जिनमें से कुछ आरएसएस की पुरानी मांगें रही हैं- मसलन, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण और समान नागरिक संहिता का निर्माण.

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मोहन भागवत के साथ अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)

इस साल का भाषण

इसके विपरीत, नागपुर में कार्यकर्ताओं को दिए गए भाषण में भागवत धारा 370 हटाने के लिए मोदी सरकार की तारीफ और पिछले पांच सालों में भारत की आर्थिक तरक्की पर ग्रहण लगाने वाली आर्थिक मुसीबतों को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित न होने की अपील के बीच ही चक्कर काटते रहे.

निश्चित तौर पर इस भाषण में उनके प्रिय विषय- राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, विदेशी खतरे के तौर पर पाकिस्तान और चीन, भी शामिल थे, लेकिन उनके पूरे भाषण में सरकार के खिलाफ एक भी शिकायत, भले ही कितनी ही दिखावटी ही क्यों न हो- नहीं थी. इसकी जगह उन्होंने सरकार का बचाव करने की भरपूर कोशिश की.

किसी जमाने में नोटबंदी और जीएसटी के आलोचक रहे भागवत का जीडीपी वृद्धि के आंकड़ों में बचाव करना, उनमें आए बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है. कार्यक्रम, जिसमें एचसीएल के संस्थापक शिव नादर मुख्य अतिथि थे, उनके भाषण का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा अर्थव्यवस्था को समर्पित था.

भागवत ने कहा, ‘हम बढ़ रहे हैं, लेकिन सारे विश्व में अर्थव्यवस्था में एक चक्र चलता है. इसमें गतिरोध आ जाता है. वह स्लो हो जाता है. तो कहते हैं कि मंदी आ गई है.’ उन्होंने साथ ही जोड़ा, ‘एक अर्थशास्त्र के जानकार सज्जन ने बताया, ने मुझे कहा कि मंदी तब का जाता है, जब ग्रोथ रेट जीरो से नीचे चली जाए. लेकिन हमारी वृद्धि दर 5% के करीब है. आप इसको लेकर चिंता जाहिर कर सकते हैं, लेकिन इस पर चर्चा क्यों करें.’

उन्होंने कहा, ‘इसको लेकर चर्चा करने से एक वातावरण बनता है- वातावरण में मनुष्यों का आचरण होता है. तथाकथित आर्थिक मंदी के बारे में बहुत ज्यादा चर्चा से अर्थ-व्यापार में लगे में लोगों को यह विश्वास हो जाएगा कि अर्थव्यवस्था में वास्तव में गिरावट आ रही है और वे और भी ज्यादा सुरक्षात्मक ढंग से काम करने लगेंगे.  रखने लगेंगे. इसका नतीजा यह होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था की गति और घट जाएगी.’

अपने स्वाभाविक आलोचनात्मक रवैये से हटकर उन्होंने कहा, ‘सरकार ने इस मुद्दे की ओर संवेदनशीलता दिखाई गई है, इसने उपाय किए हैं. हमें अपनी सरकार पर विश्वास रखना चाहिए. हमने कई उपाय किए हैं, आने वाले समय में कुछ सकारात्मक प्रभाव दिखाई देगा.’ इसके आगे उन्होंने सरकार का बचाव करते हुए कहा कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध जैसे बाहरी कारकों के कारण नौकरियों की मुश्किल हो गई है.

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2019 के विजयादशमी समारोह में एचसीएल संस्थापक शिव नादर (बाएं) के साथ संघ प्रमुख मोहन भागवत. (फोटो: पीटीआई)

लिंचिंग पर टिप्पणी

इसके बाद उन्होंनें जब उन्होंने लिंचिंग को ‘पश्चिमी की गढ़ी हुई चीज’ बताया, तब ऐसा लगा कि यह लगा कि यह कुछ और नहीं बस लोगों का ध्यान भटकाने की चाल थी.

उन्होंने इसे भारत को बदनाम करने की इच्छा रखने वाले लोगों द्वारा चलाया गया नकारात्मक अभियान बताया और हिंदुत्व के समर्थकों द्वारा दिन-दहाड़े मुस्लिमों और दलितों की हत्या के सामने आए अनेक मामलों को उन्होंने सुविधाजनक ढंग से भुला दिया.

इसकी जगह उन्होंने इन हत्याओं को, जिसके पीछे साफतौर पर परंपरागत हिंदुत्ववादी पूर्वाग्रह का हाथ है, ईसाइयत और इस्लाम से आयातित चीज बताया और बड़ी आसानी से इसका दोष अब्राहमी धर्मों पर मढ़ दिया.

उन्होंने कहा, ‘हिंसा की घटनाएं बढ़ती हैं तो ऐसे भी समाचार आए हैं कि एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के किसी इक्का-दुक्का व्यक्ति को पकड़कर पीटा, मार डाला, हमला किया. ये भी ध्यान में आता है कि किसी एक ही समुदाय की ओर से दूसरे समुदाय को रोका गया जबकि ऐसा नहीं है. उल्टा भी हुआ है. ये भी हुआ है कि कुछ नहीं हुआ है, तो बना दिया गया. उकसाकर घटनाएं कराई गई हैं. दूसरे किसी मामले को भी इसका रंग दे दिया गया लेकिन अगर 100 घटनाओं की रिपोर्ट छपी होंगी तो दो-चार में तो ये बात ऐसे ही हुई होगी, जिसे स्वार्थी शक्तियां दूसरे ढंग से उजागर करती हैं.’

भागवत ने आगे कहा, ‘किसी एक समुदाय के कुछ लोगों ने कुछ किया तो उसे उस पूरे समुदाय पर थोप देंगे. ये किसी के पक्षधर नहीं हैं. समाज के दो समुदायों के बीच झगड़ा हो यही उनका उद्देश्य है. समाज के पक्षधर लोगों को उसमें घसीटेंगे. संघ का नाम लेंगे.

उन्होंने यह भी कहा, ‘हमारे यहां ऐसा कुछ हुआ नहीं, ये छिटपुट समूहों की घटनाएं हैं, जिन पर कड़ी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए. हमारे देश की परंपरा उदारता, भाईचारे से रहने की है. दूसरे देश से आई परंपरा से हमारे ऊपर शब्द (लिंचिंग) थोपेंगे और हमारे समाज, देश को दुनिया में बदनाम करने की कोशिश करेंगे.’

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2009 में आरएसएस के एक कार्यक्रम में केशुभाई पटेल के साथ नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

उनके दावे इसलिए ध्यान भटकाने वाले इसलिए लगती हैं क्योंकि भागवत के भाषण ने आरएसएस को एक जीवंत संगठन के तौर पर पेश किया, जो समय की जरूरतों के हिसाब से खुद को बदलने के लिए हमेशा तैयार रहता है.

उन्होंने पूर्व सरसंघचालक बालासाहेब देवरस के शब्दों को उधार लेते हुए कहा कि आरएसएस के बारे में सिर्फ एक चीज स्थायी है और वह है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और बाकी सारी चीजें समय की जरूरतों के हिसाब से बदली जा सकती हैं.

मिसाल के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने और निजीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए मोदी सरकार द्वारा किए गए प्रयासों का स्वागत किया- यह देखते हुए कि संगठन द्वारा किसी जमाने में स्वदेशी पर जोर दिया जाता था, यह एक बड़ा बदलाव कहा जा सकता है.

उन्होंने दावा किया, ‘स्वदेशी वह है जो एक भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में रहता है, मगर सिर्फ उन परिस्थितियों में जो भारत के हित में हों. अगर कोई चीज मेरे देश में बनाई जा सकती है, तो हम इसे किसी दूसरे जगह से क्यों खरीदेंगे और इस तरह से अपने घरेलू व्यापार को नुकसान पहुंचाएंगे?’

उन्होंने आगे कहा, ‘हमें स्वदेशी के रास्ते पर चलना चाहिए.. दूसरे देशों से खरीदने की कोशिश कीजिए, लेकिन सिर्फ अपनी शर्तों पर.’

अंत में उन्होंने धारा 370 को कमजोर करने समेत मोदी सरकार की अन्य सफलताओं की लंबी फेहरिस्त पेश की. अपने पहले के भाषणों से उलट उनके पास सरकार के लिए कोई सलाह नहीं थी.

उनके दूसरे भाषणों की तुलना में आरएसएस प्रमुख के भाषण में कोई नई बात नहीं थी; संघ के कार्यकर्ताओं के लिए राजनीतिक रोडमैप की बात तो दूर रही. उन्होंने बस वही दुहराया जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों में बार-बार दोहरा चुके हैं.

क्या संघ परिवार में भूमिकाओं की अदला-बदली हो गई है? यह माना जाता है कि जब भी एनडीए सत्ता में आती है, इसकी डोर आरएसएस के हाथों में होती है. लेकिन ऐसे में जबकि मोदी और शाह की तूती बोल रही है, क्या भागवत संघ परिवार में महत्व की सीढ़ी में दूसरे पायदान पर धकेल दिए गए हैं?

अटकलों का बाजार गर्म है, मगर विजयादशमी को भागवत के भाषण ने निश्चित तौर मोदी-शाह के युग में सरसंघचालक का कद कम होने की संभावना की और संकेत किया है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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