एक राष्ट्रपति चुनाव, जिसने ‘इंदिरा युग’ की शुरुआत की

प्रासंगिक: 1969 में हुए पांचवें राष्ट्रपति चुनाव ने इंदिरा गांधी को अबाध नियंत्रण स्थापित करने का मौका दिया, लेकिन इससे कहीं ज़्यादा इस ख़तरनाक विचार को बढ़ावा दिया कि सिर्फ़ एक नेता यह फैसला लेने में सक्षम है कि देश और उसकी जनता के लिए क्या सर्वश्रेष्ठ है.

/

प्रासंगिक: 1969 में हुए पांचवें राष्ट्रपति चुनाव ने इंदिरा गांधी को अबाध नियंत्रण स्थापित करने का मौका दिया, लेकिन इससे कहीं ज़्यादा इस ख़तरनाक विचार को बढ़ावा दिया कि सिर्फ़ एक नेता यह फैसला लेने में सक्षम है कि देश और उसकी जनता के लिए क्या सर्वश्रेष्ठ है.

Indira Gandhi Wikimedia Commons (2)
देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

एक और राष्ट्रपति चुनाव हमारे सामने है. अतीत में एक मौके के अलावा हर बार इस चुनाव का नतीजा पहले से लगभग तय रहा है. इसके बावजूद, हमारे राष्ट्रीय जीवन की यह महत्वपूर्ण घटना, राष्ट्रीय राजनीति की संभावित दिशा-सूचक का काम करती रही है. इस बार भी चीज़ें ज़्यादा अलग नहीं हैं, क्योंकि काग़ज़ पर अभी तक नरेंद्र मोदी सरकार के पास कुचल देने वाला बहुमत नहीं है.

इस बात में कोई विवाद नहीं है कि अगर विपक्ष इच्छाशक्ति दिखाए तो वह प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों को एक योग्य उम्मीदवार की तलाश करने के लिए सिर खपाने पर मज़बूर कर सकता है.

2014 के नतीजों और उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिले जबरदस्त जनादेश के स्वभाव को देखते हुए, अगर अगला राष्ट्रपति सीधे संघ परिवार या कम से कम इसकी विचारधारा और सोच से जुड़ा हुआ नहीं हुआ, तो यह भाजपा के लिए किसी ‘नैतिक झटके’ से कम नहीं होगा.

राष्ट्रपति चुनाव की अहमियत को देखते हुए, इतिहास के उस अध्याय में जाना दिलचस्प होगा, जब राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला बेहद कांटे का रहा था और नतीजे के लिए सेंकंड प्रिफरेंस (द्वितीय वरीयता) मतों की गिनती करनी पड़ी थी.

यह सब हुआ अगस्त, 1969 में हुए पांचवें राष्ट्रपति के चुनाव में. यह पहला मौका था, जब राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन के असामयिक निधन के कारण किसी राष्ट्रपति के कार्यकाल के बीच में ही चुनाव कराने की ज़रूरत पड़ गई थी.

इस चुनाव का दृश्य अद्भुत था, जब ‘स्वतंत्र’ उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे उपराष्ट्रपति वीवी गिरि ने कांग्रेस पार्टी के ‘आधिकारिक’ उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को शिकस्त दी थी.

लेकिन, अब तक के इस सबसे नाटकीय राष्ट्रपति चुनाव को, जिसमें प्रधानमंत्री ने अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार को समर्थन नहीं दिया था, इतिहास से काटकर याद नहीं किया जा सकता.

इसे 1967 के आरंभ और चौथे आम चुनाव के समय से शुरू हुए सियासी घटनाक्रम के संदर्भ में ही समझा जा सकता है. 50 साल पहले हुए इस चुनाव ने कई मायनों में एक युग के अंत की घोषणा की.

पांचवें राष्ट्रपति चुनाव के झटकों ने कांग्रेस पार्टी, सरकार और सरकार के अंदरूनी समीकरणों में दूरगामी बदलावों की शुरुआत की. यह घटना भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया में एक विभाजक बिंदु की तरह है, जब राजनीतिक व्यक्तिवाद का आगमन हुआ, जो लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं पर खरोंच के निशान छोड़ गया.

लोकतंत्र के इस अध्याय को याद करना इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि वर्तमान राजनीतिक नैरेटिव से इसकी कई मायनों में ज़बरदस्त समानता है.

जनवरी, 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी का नेता चुना गया था. इस चुनाव में मोरारजी देसाई ने उन्हें तीखी टक्कर दी थी.

चौथे आम चुनाव के वक़्त पार्टी पर इंदिरा गांधी का कोई ख़ास प्रभाव नहीं था और इस बात की कोई गारंटी नहीं थी चुनाव के बाद पार्टी नेतृत्व उन्हें इस पद पर रहने देगा. इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए इंदिरा गांधी ने 1966 से अपना अलग रास्ता बनाना शुरू किया.

भारतीय रुपये की कीमत कम करने का विवादास्पद फैसला इस दिशा में पहला कदम था. यह नरेंद्र मोदी द्वारा हजार और पांच सौ रुपये के नोट बंद करने के फैसले से कम विवादास्पद फैसला नहीं था और इसने पार्टी नेतृत्व को भी क्रुद्ध कर दिया था.

अगर उस ज़माने में हैशटैग का प्रचलन होता तो #डिवै (#DeVa) भी उसी तरह प्रचलित होता जैसे नोटबंदी के बाद #डेमो (#DeMo) प्रचलित हुआ.

यह फैसला साफ तौर पर अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को खुश करने और उन्हें सूखे के कारण पैदा हुए खाद्य और संसाधन संकट से पार पाने में भारत की मदद करने के लिए मनाने के मकसद से लिया गया था.

फिर भी प्रधानमंत्री इस लाइन पर अधिक समय तक नहीं टिक सकीं और महीने भर के भीतर उन्होंने वियतनाम के हनोई और हाइफौंग शहर पर अमेरिकी बमबारी की तीखी आलोचना कर दी.

इसके नतीजे के तौर पर सोवियत रूस की तरफ हुआ भारत का झुकाव दरअसल एक ऐसे नेता का बेहद नाप-तौल कर उठाया गया कदम था, जो पार्टी सिंडिकेट और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की मंडली से (जो ये मानकर चल रहे थे कि वह हमेशा उनके वश में रहेंगी) भविष्य में अपनी आजादी की योजना बना रही थीं.

1967 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले, इंदिरा गांधी ने पार्टी संगठन को दरकिनार करते हुए जनता के साथ सीधा संवाद बनाना शुरू कर दिया.

आज अगर हम पीछे मुड़कर इंदिरा गांधी के युग का मूल्यांकन करें, तो उनके इस कदम को पार्टी और सरकार के भीतर सत्ता और नेतृत्व को केंद्रीकृत करने के इरादे से उठाए गये पहले कदम के तौर पर दर्ज कर सकते हैं.

हालांकि, उन्हें मोरारजी देसाई को उप-प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा था, लेकिन 1967 में कांग्रेस को हुए चुनावी नुकसान ने इंदिरा गांधी को अपने दम पर नेता के तौर पर उभरने का मौका दिया.

पार्टी सिंडिकेट, जिसमें के.कामराज, एस. निजालिंगप्पा, अतुल्य घोष और एन. संजीव रेड्डी शामिल थे, के साथ उनका संघर्ष बिना किसी नतीजे के दो वर्षों से ज्यादा समय तक चलता रहा.

हालांकि, प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी 1967 के मध्य में लोकलुभावन दस-सूत्री कार्यक्रम का ऐलान करने में कामयाब रहीं, लेकिन बतौर वित्त मंत्री देसाई ने भी सरकार की लोकप्रियता को बढ़ाने में कोई खास मदद नहीं करने वाला ‘गोल्ड कंट्रोल एक्ट’ लाकर अपनी स्वायत्त सत्ता का परिचय दिया था.

लेकिन फिर भी इंदिरा गांधी पार्टी के ओल्ड गार्ड से निर्णायक लड़ाई के लिए सही मौके का इंतजार करती रहीं.

यह मौका 1969 में आया, जब नियति ने पहली बार किसी सेवारत राष्ट्रपति को पद से हटा दिया. ज़ाकिर हुसैन की मृत्यु पर गिरि कार्यवाहक राष्ट्रपति बने.

इस घटना ने एक वजह से कानून निर्माताओं को चिंता में डाल दिया, क्योंकि उन्होंने पाया कि संविधान इस बारे में चुप है कि किसी दुर्भाग्यवश कार्यवाहक राष्ट्रपति की भी मृत्यु हो जाने या उनके इस्तीफे की स्थिति में सरकार के प्रमुख का दायित्व कौन निभाएगा?

Indira Gandhi President Medal
इंदिरा गांधी को 1971 में भारत रत्न सम्मान देते राष्ट्रपति वीवी गिरि. (फोटो साभार: राष्ट्रपति भवन)

नतीजे के तौर पर संसद ने तीन हफ्ते के बाद प्रेसिडेंट (डिस्चार्च ऑफ ड्यूटी) एक्ट पारित किया, जिसमें यह व्यवस्था की गई कि कार्यवाहक राष्ट्रपति के भी पद पर न रहने की सूरत में भारत के मुख्य न्यायाधीश यह जिम्मेवारी संभालेंगे और अगर उनका पद भी रिक्त हो, तो तो सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जज यह दायित्व निभाएंगे.

1969 से पहले तक, उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाने की प्रथा का पालन किया जा रहा था, लेकिन, सिंडिकेट गिरि को पदोन्नति देने के पक्ष में नहीं था और लोकसभा अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बनाना चाहता था.

इंदिरा गांधी की समझ थी कि इसका उद्देश्य आखिरकार उन्हें पद से हटाना और देसाई को प्रधानमंत्री बनाना है.

परिणामस्वरूप, 10 जुलाई को बेंगलौर में हुई कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर जगजीवन राम का नाम आगे बढ़ाया. उन्होंने दलील दी कि महात्मा गांधी के शताब्दी वर्ष में एक दलित को राष्ट्रपति के तौर पर चुनना, महात्मा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी और इससे सामाजिक समावेशीकरण के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता भी साबित होगी.

लेकिन, वे संख्याबल में पिछड़ गईं और उन्हें नीलम संजीव रेड्डी को पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर स्वीकार करना पड़ा, जब रेड्डी ने अपना नामांकन पर्चा भरा. लेकिन, इस समय तक गिरि ने भी स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर अपनी उम्मीदवारी घोषित कर दी.

लोग ये कयास लगाते रहे हैं कि क्या गिरि के इस फैसले की जानकारी इंदिरा गांधी भी थीं, लेकिन इसके पक्ष या विपक्ष में कोई सबूत नहीं मिलता.

लेकिन, चूंकि प्रधानमंत्री ने पार्टी के संसदीय दल के नेता के तौर पर 1952 के प्रेसिडेंशियल एंड वाइस प्रेसिडेंशियल एक्ट का हवाला देते हुए रेड्डी के पक्ष में व्हिप जारी से इनकार कर दिया, इसलिए ऐसा लगता है कि गिरि के फैसले में श्रीमती गांधी की रजामंदी रही होगी.

इसके अलावा, कई कांग्रेसी कानून निर्माताओं ने ‘अंतरात्मा के आधार पर वोट’ करने की टेर लगाई थी और जैसा कि परिणाम दिखाते हैं, 163 कांग्रेस सांसदों ने गिरि के पक्ष में मतदान किया.

17 मे से 11 राज्यों के निर्वाचन मंडल में बहुमत प्राप्त हुआ था, जिनमें 12 में कांग्रेस बहुमत में थी. इससे साफ होता है कि गिरि को देशभर से व्यापक समर्थन मिला और उनकी जीत सिर्फ कम्युनिस्ट और क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन के बदौलत नहीं हुई थी.

सिंडिकेट के सदस्यों ने, जिनका पार्टी पर वर्चस्व था, एक भारी चूक की. उन्होंने अपने समर्थकों से अपना सेकेंड प्रिफरेंस वोट (द्वितीय वरीयता मत) सीडी देशमुख के पक्ष में डालने का निर्देश दिया, जिन्हें जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने खड़ा किया था.

इसने श्रीमती गांधी के समर्थकों को निर्वाचक मंडल को वाम और दक्षिण में ध्रुवीकृत करने का मौका दे दिया. प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी 1966 से ही एक सोची समझी रणनीति के तहत वाम रुझान का प्रदर्शन कर रही थी. सिंडिकेट की इस चूक से उनकी पसंद रातोंरात एक ‘वामपंथी लक्ष्य’ बन गई.

इंदिरा गांधी प्राइवेट बैंकों के राष्ट्रीयकरण की अपनी योजना पर आगे बढ़ने के लिए सही मौके का इंतजार कर रही थीं.

रेड्डी को कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार के तौर पर स्वीकार करने के लिए मजबूर किए जाने के चंद दिनों के भीतर ही उन्होंने वार किया और 16 जुलाई को मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया और चार दिन बाद 20 जुलाई को नाटकीय तरीके से बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का ऐलान कर दिया.

दिलचस्प यह है कि इस्तीफा देकर राष्ट्रपति पद के लिए चुनावी मैदान में उतरने से पहले यह वीवी. गिरि द्वारा बतौर कार्यवाहक राष्ट्रपति दस्तखत किया गया आखिरी ऑफिस ऑर्डर था. इस फैसले का तरीका कई मायनों में पिछले नवंबर की घटनाओं से मेल खाता है. दोनों ही मामलों में फैसला एक व्यक्ति का था, जिसे कैबिनेट के सामने महज औपचारिकता पूरी करने के लिए रखा गया.

इन चुनावों में कुल 8,36,337 वोट पड़े थे और जीत के लिए 4,18,169 मतों का मध्य बिंदु निर्धारित किया गया था. गिरि को 4,01,515 और रेड्डी को 3,13,548 मत मिले.

किसी के भी सीमारेखा पार न करने के कारण सेंकेंड प्रिफरेंस वोट (द्वितीय वरीयता मत) की गिनती जरूरी हो गई. 15 उम्मीदवारों में से मतों के हिसाब से सबसे नीचे से ऊपर तक एक-एक करके उम्मीदवारों को मिले सेकेंड प्रिफरेंस वोटों को शीर्ष दो उम्मीदवारों में जोड़ा गया.

आखिरकार गिरि के वोटों का आंकड़ा, 4,20,077 पर पहुंच गया और रेड्डी 4,05,427 मतों के साथ पीछे रह गए. इंदिरा गांधी ने ‘अपना राष्ट्रपति’ बना लिया और इसी भावना ने 1974 (फख़रुद्दीन अली अहमद) और 1982 (ज्ञानी जैल सिंह) में राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद तय करने का काम किया.

लेकिन यह कहानी का अंत नहीं था. इन घटनाओं के बाद ऐसी कोई सूरत नहीं बची थी कि इंदिरा गांधी और उनके प्रतिस्पर्धी एक ही पार्टी में रह सकते. नवंबर, 1969 में एक बड़े तमाशे के तहत कांग्रेस कार्यकारी समिति की दो समानांतर बैठकें एक साथ हुईं.

एक पार्टी कार्यालय में और दूसरा प्रधानमंत्री के आवास पर. 84 सालों के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, कांग्रेस (आर-रिक्विजशनल) और कांग्रेस (ओ-ऑर्गनाइजेशनल) में दोफाड़ हो गई.

1967 में शुरू हुए घटनाक्रम ने एक प्रक्रिया को जन्म दिया, जिसने देश की राजनीतिक संस्कृति और प्रशासन के ढांचे को बदल कर रख देने का काम किया. इंदिरा गांधी ने सत्ता के पलड़े को अपने पक्ष में झुकाने के लिए एक वैचारिक मुद्दे का दामन थामा.

पार्टी में मजबूत क्षेत्रीय छत्रपों की जगह जी-हुजूरी करनेवालों ने ले ली. प्रशासन की कैबिनेट प्रणाली कमजोर हुई और सारी शक्तियां प्रधानमंत्री में सीमित करने की प्रक्रिया की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर और मजबूत हुई.

‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ के विचार में ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही’ के ख्याल को मिला दिया गया और अब यह तर्क दिया गया कि प्रतिबद्धता खराब शब्द नहीं है.

अभी की ही तरह लोकसेवकों को राजनीतिक तौर पर तटस्थ रहने की जगह खास वैचारिक झुकाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया गया. लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि नेता के प्रति वफादारी का मतलब देश के प्रति ईमानदारी और वफादारी बन गया. और उसका विरोध ‘देशद्रोह’ करार दिया गया.

देश के बड़े वर्ग को पिछले तीन सालों से जो डर सता रहा है, उसकी जड़ें उस कालखंड से जुड़ी हैं. राष्ट्रपति चुनाव ने इंदिरा गांधी को अबाध नियंत्रण स्थापित करने का मौका दिया था, मगर इसने कहीं ज्यादा परेशान करनेवाले विचार को सहारा देने का काम किया: कि एक सिर्फ एक नेता यह फैसला लेने में सक्षम है कि देश और उसकी जनता के लिए क्या सर्वश्रेष्ठ है.

लेखक, वेद मेहता को दिए गए एक इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने संसदीय प्रणाली को ‘मरणासन्न’ करार दिया था. पिछले तीन वर्षों में वर्तमान निज़ाम ने भी ने ऐसे ही विचार प्रकट किए हैं और उच्च सदन को ‘निर्वाचित न हो सकने वालों की निरंकुशता’ करार दिया है.

1969 के राष्ट्रपति चुनाव ने उस प्रक्रिया की शुरुआत की जिसमें कांग्रेस पार्टी चुनाव जीतने के लिए एक बगैर हिसाब-किताब की (अनऑडिटेड) पार्टी बन गई. आज जब सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष यह निर्लज्ज घोषणा करते हैं कि उनका मुख्य मकसद चुनाव जीतना है, तो देश के सर्वोच्च पद के चुनावों की और बढ़ते हुए शरीर मे थरथराहट का होना स्वाभाविक ही है.

(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘नरेंद्र मोदी : द मैन’, ‘द टाइम्स’ और ‘सिख्स : द अनटोल्ड एगनी ऑफ 1984’ जैसी किताबें लिखी हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq