क्या ऐसा शख़्स, जिसने अंग्रेज़ सरकार के पास माफ़ीनामे भेजे, जिन्ना से पहले धर्म के आधार पर राष्ट्र बांटने की बात कही, भारत छोड़ो आंदोलन के समय ब्रिटिश सेना में हिंदू युवाओं की भर्ती का अभियान चलाया, भारतीयों के दमन में अंग्रेज़ों का साथ दिया और देश की आज़ादी के अगुआ महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश का सूत्रसंचालन किया, वह किसी भी मायने में भारत रत्न का हक़दार होना चाहिए?
वक्त की निहाई अक्सर बड़ी बेरहम मालूम पड़ती है. अपने-अपने वक्त के शहंशाह, अपने-अपने जमाने के महान रणबांकुरे या आलिम सभी को आने वालों की सख्त टीका-टिप्पणियों से रूबरू होना पड़ा है.
बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक घटनाएं- भले जिन्होंने समूचे समाज की दिशा बदलने में अहम भूमिका अदा की हो- या बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक शख्सियतें- जिन्होंने धारा के विरुद्ध खड़ा होने का साहस कर उसे मोड़ दिया हो – कोई भी कितना भी बड़ा हो उसकी निर्मम आलोचना से बच नहीं पाया है.
यह अकारण ही नहीं कहा जाता कि आने वाली पीढ़ियां पुरानी पीढ़ियों के कंधों पर सवार होती हैं. जाहिर है वे ज्यादा दूर देख सकती हैं, पुरानी पीढ़ियों द्वारा संकलित, संशोधित ज्ञान उनकी अपनी धरोहर होता है, जिसे जज्ब कर वे आगे निकल जा सकती हैं.
समाज की विकास यात्रा को वैज्ञानिक ढंग से देखने वाले शख्स के लिए हो सकता है यह बात भले ही सामान्य मालूम पड़े, लेकिन समाज के व्यापक हिस्से में जिस तरह के अवैज्ञानिक, पश्चगामी चिंतन का बोलबाला रहता है, उसमें ऐसी कोई भी बात उसे आसानी से पच नहीं पाती.
घटनाओं और शख्सियतों का आदर्शीकरण करने की, उन्हें अपने दौर और अपने स्थान से काटकर सार्वभौमिक मानने की जो प्रवृत्ति समाज में विद्यमान रहती है, उसके चलते समाज का बड़ा हिस्सा ऐसी आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं कर पाता.
वैसे बात-बात पर आस्था पर हमला होने का बहाना बनाकर सड़कों पर उतरने वाली हुड़दंगी बजरंगी मानसिकता भले ही ऐसी प्रकट समीक्षा को रोकने की कोशिश करे, लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि कहीं प्रकट- तो कहीं प्रच्छन्न रूप से यह आलोचना निरंतर चलती ही रहती है और उन्हीं में नये विचारों के वाहक अंकुरित होते रहते हैं, जो फिर समाज को नये पथ पर ले जाते हैं.
फिलवक्त विनायक दामोदर सावरकर- जिन्हें उनके अनुयायी ‘स्वातंत्रयवीर’ नाम से पुकारते हैं, जो युवावस्था में ही ब्रिटिश विरोधी आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए थे, जो बाद में कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए, जहां वह और रैडिकल राजनीतिक गतिविधियों में जुड़ते गए थे- इसी किस्म की पड़ताल के केंद्र में है.
इसकी फौरी वजह सूबा महाराष्ट्र के चुनावों के लिए सत्ताधारी भाजपा द्वारा किया गया यह वादा है कि वह उन्हें भारत रत्न से नवाजना चाहती है. ऐसा नहीं है कि उन्हें सम्मानित करने की बात पहली दफा उठी है या उनकी उपेक्षा होने की बात की चर्चा पहली दफा चली है.
जनाब उद्धव ठाकरे, जो अपने पिता की मौत के बाद अब शिवसेना के मुखिया हैं और फिलवक्त जिनकी पार्टी भाजपा की जूनियर सहयोगी के तौर पर सक्रिय है, ने चुनावों के ऐन पहले एक किताब के विमोचन के वक्त यहां तक कहा था अगर ‘वीर सावरकर प्रधानमंत्री बने होते तो पाकिस्तान वजूद में ही नहीं आता.’
उन्होंने अपनी तकरीर में नेहरू को ‘वीर’ कहने से भी इनकार किया और यह एकांतिक किस्म का बयान दिया कि ‘सावरकर ने जिस तरह 14 साल जेल में बिताए उस तरह सिर्फ 14 मिनट ही नेहरू ने जेल में बिताए होते, तो उन्होंने नेहरू को वीर कहा होता.’
क्षेपक के तौर पर बता दें कि उन्होंने एक तरह से यह साफ किया कि यह हक़ीकत कि नेहरू ने अपनी जिंदगी के नौ साल उपनिवेशवादियों की जेल में बिताए और तमाम तकलीफों के बावजूद अपने उसूलों से समझौता नहीं किया उनके लिए कोई मायने नहीं रखती, जहां तमाम स्वयंभू वीरों ने अंग्रेजों के पास माफीनामों की झड़ी लगा दी थी.
सोचने की बात है कि एक ऐसा शख्स – जिसको गुजरे हुए भी 52 साल गुजर गए (मृत्यु 26 फरवरी 1966) जिन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ खडे़ 1857 के विद्रोह से प्रेरणा लेते हुए तथा उसके मकसद को व्यापक आबादी तक पहुंचाने के मकसद से मराठी में एक ग्रंथ भी लिखा जिसका शीर्षक था ‘1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम’ जिसमें हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में- जो इस युद्ध के दौरान साफ प्रकट हुई थी- ढेर सारी अच्छी बातें लिखी गयीं थीं; जिसे उन्होंने 1857 के शहीदों को समर्पित किया गया था और जिसमें मंगल पांडे,रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब, मौलवी अहमद शाह, अजीमुल्ला खान, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, बेगम हजरत महल और कई अन्य वीरों, वीरांगनाओं के नाम लिखे थे, उन्हें क्यों इस अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ रहा है.
सावरकर का यह मानना था कि यह विद्रोह फ्रेंच और अमेरिकी इंकलाब के समकक्ष था. इस किताब की ‘विस्फोटक अंतर्वस्तु’ को देखते हुए सरकार ने इस किताब पर तत्काल पाबंदी लगा दी और इसके बावजूद इस किताब के कई संस्करण निकले तथा वह कई अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई.
बाद में उन्हें ऐसी ही रैडिकल गतिविधियों के लिए तथा भारत में चल रही समानांतर ऐसी ही गतिविधियों से रिश्ते बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार किया गया और उन्हें दो उम्र कैद की सज़ा सुनायी गयी तथा अंडमान के सेल्युलर जेल भेजा गया.
मालूम हो सावरकर ने इस ग्रंथ का समापन हिंदुस्तान के आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की गज़ल की पंक्तियों के साथ किया था:
गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्ते़ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की
यह भी पढ़ें: अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने वाले सावरकर ‘वीर’ कैसे हो गए?
ऐसे शख्स को सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ना क्यों विवादों के केंद्र में है?
क्या इसे हम धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी इतिहासकारों के कथित पूर्वाग्रह का परिणाम कह सकते हैं या इसकी ठोस वजहें हैं जिसके चलते सावरकर को सम्मानित करने का मसला न केवल विवादों में घिरा है बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि घृणा एवं असमावेश के फलसफे पर अपने जीवन का बड़ा हिस्सा बिताने वाले सावरकर को ऐसा सम्मान देना आज़ादी के आंदोलन के तमाम अन्य कर्णधारों को अपमानित करना है!
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अगर हम सावरकर के जीवनपटल को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखने की कोशिश करें तो एक दिलचस्प बात समझ में आती है. सावरकर के 83 साला जीवन को हम दो चरणों को साफ देख सकते हैं.
पहला चरण, यह वह दौर था जब वह हिंदू एवं मुस्लिम एकता के हिमायती थे और जब उन्हें ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जारी अपनी जुझारू सक्रियताओं के चलते दो उम्र कैद की सज़ा सुनायी गयी थी और जिन्हें अंडमान जेल भेजा गया था, जिसे ‘काला पानी की सज़ा’ कहा जाता था.
अंडमान जेल की सज़ा काफी सख्त मानी जाती थी. वहां जेल काटकर बाहर निकले राजनीतिक बंदियों ने वहां के उत्पीड़न एवं दमनकारी हालात के बारे में लिखा है.
‘मैं शेरों को पालतू बना लेता हूं.’ ‘काला पानी’ की सजा पाए पोर्ट ब्लेयर की सेल्युलर जेल के स्वतंत्रता सेनानियों को वहां का बदनाम जेलर यही कहता था. सेल्युलर जेल बनने के पहले बागी वहाबियों को भी अंडमान द्वीप समूह के वाइपर टापू पर निर्वासित किया जाता था, फांसी चढ़ाई जाती थी.
उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत से निर्वासित शेर अली ने वायसराय मेयो की हत्या उनके अंडमान दौरे के दौरान की थी. भारत में किसी वायसराय की हत्या की यह एकमात्र घटना थी. शेर अली को वाईपर द्वीप पर ही फांसी दे दी गई. काला पानी की सजा पाए राजनीतिक बंदियों के उत्पीड़न की कथायें दर्दनाक हैं . कई कैदियों ने तंग होकर आत्महत्या की, कुछ विक्षिप्त हो गए, कुछ जेल की दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ उपवास करते हुए या उपवास के दौरान जबरदस्ती खिलाने की कोशिश में मारे गए.’
और दूसरा चरण तब शुरू होता है जब वह जेल के अंदर से ब्रिटिश सरकार को दया याचिकाएं भेजना शुरू करते हैं और हिंदू एकता के हिमायती हो जाते हैं, यहां तक कि हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत के प्रस्तुतकर्ता बनते हैं.
ऐसा प्रतीत होता है कि जेल के सख्त जीवन ने – जिसे अन्य कैदियों द्वारा बिना किसी समझौते के साथ बर्दाश्त किया जा रहा था – उन्हें तोड़ दिया और जल्द रिहाई के लिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार के पास याचिकाएं भेजना शुरू किया.
काफी समय बाद ब्रिटिश सरकार ने उनकी इन याचिकाओं पर गौर किया और उन्हें घर भेजा गया, लेकिन उन पर प्रतिबंध कायम रहे तथा उन्हें निर्देश दिया गया कि वह राजनीतिक गतिविधियों से न जुड़ें. उन्हें अंततः तभी रिहा किया गया जब भारत के सूबों में चुनाव हुए और तत्कालीन मुंबई प्रांत में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी.
अंडमान पहुंचते ही छह माह तक सावरकर को अकेले हिरासत में रखा गया, जिस दौरान ही उनका मनोबल टूट गया था. प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम अपनी किताब ‘सावरकर: मिथस एंड फैक्ट्स’ में बताते हैं कि ‘सावरकर का सेल सबसे ऊंची मंज़िल पर था, जहां से फांसी का तख्ता साफ नज़र आता था. हर माह वहां किसी न किसी बंदी को फांसी होती थी. मुमकिन है कि फांसी पर लटके जाने के इस डर ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया हो.’
महान स्वतंत्रता सेनानी त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती- जिन्होंने अंडमान के काला पानी में तीस साल बिताए, अपनी आत्मकथा ‘थर्टी इयर्स इन प्रिजन’ में लिखते हैं:
‘सेल्युलर जेल के राजनीतिक बंदियों को दो भाग में बांटा गया था: मॉडरेट और अतिवादी. सावरकर बंधु, बरीन बाबू (बरीन्द्रा घोष) और कुछ अन्य जो पहले आए थे- जिन्हें काफी तकलीफें उठानी पड़ी थीं- उन्हें कुछ छूट मिली थी. वे जेलर के प्रिय हुए थे. और इसलिए अपने को मिली छूट को छोड़ना नहीं चाहते थे और इसलिए उन्होंने प्रस्तावित आंदोलन में शामिल होने से इनकार किया…
सावरकर बंधु हमें अकेले में प्रोत्साहित करते रहते थे मगर जब उन्हें कहा जाता कि वह भी जुड़ जाए, वह हमेशा इससे दूर रहे.’
गौरतलब है कि त्रैलोक्यनाथ तथा अन्य इंकलाबियों को मालूम नहीं था, मगर अंडमान में पहुंचते दो माह के अंदर ही (अगस्त 30, 2011) सावरकर ने अपनी पहली दया याचिका भेजी थी. यह भी नहीं था कि सावरकर के साथ जेल में बंद तमाम अन्य कैदियों ने माफीनामे लिख भेजे थे.
दरअसल उन्होंने बेहद खुशी-खुशी इस सज़ा को स्वीकारा था और अपने उसूलों के लिए जेल के अंदर एवं बाहर लड़ते ही रहे, जिनमें बंगाल एवं पंजाब के तमाम महान क्रांतिकारी भी शामिल थे, जैसे उल्लासकर दत्ता, त्रैलोक्यनाथ चतुर्वेदी आदि .
ध्यान रहे कि 1911 को भेजी गयी सावरकर की दया याचिका जहां खारिज कर दी गयी थी, तो 1913 में उन्होंने दूसरी याचिका भेजी, जिसमें वह खुल्लमखुल्ला ब्रिटिश सरकार का गुणगान करते दिखते हैं. याचिका का अंत इस प्रकार होता है:
‘अंत में मैं महामहिम को यह याद दिलाना चाहता हूं कि वह मेरी दया याचिका पर गौर करे, जिसे मैंने 1911 में भेजा था और उसे मंजूर कर भारत सरकार को भेजे. भारत की सियासत का ताजा सूरतेहाल और हुकूमत की समन्वय की नीति ने फिर एक बार संवैधानिक रास्ते को खोल दिया है.
अब कोई भी शख्स जो हिंदुस्तान और इंसानियत का दिल से भला चाहता हो वह उन कंटीले रास्तों पर आंख मूंदकर नहीं चलेगा जैसा कि 1906-1907 के उत्तेजित करनेवाले और नाउम्मीदी से भरे हालात में हमने किया तथा अमन एवं तरक्की के रास्ते को छोड़ दिया था.
इसलिए हुकूमत अगर अपने बहुविध एहसान एवं दया की भावना के तहत मुझे रिहा करेगी, मैं इस संवैधानिक तरक्की तथा अंग्रेज सरकार से वफादारी का सबसे बड़ा हिमायती बनूंगा, जो आज तरक्की की पूर्वशर्त है… इसके अलावा संवैधानिक रास्ते पर मेरा लौटना वह भारत तथा विदेशों के तमाम गुमराह नौजवानों को वापस लाने में मदद करेगा, जो अपने मार्गदर्शक के तौर पर मुझे देखते हैं.
हुकूमत जैसा चाहे उसी तरह से मैं हुकूमत की सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि मेरा यह रूपांतरण विवेकशील है और मैं उम्मीद करता हूं कि भविष्य का मेरा आचरण भी उसके अनुरूप होगा. मुझे जेल में रख कर सरकार को कुछ नहीं मिलेगा जबकि मुझे रिहा किया जाएगा तो सरकार का लाभ होगा.
सिर्फ बलशाली ही दयावान हो सकते हैं और आखिर पश्चात्ताप करनेवाला बेटा माई-बाप सरकार के दरवाजे नहीं जाएगा तो कहां जाएगा.’
विनायक दामोदर सावरकर
(R.C. Majumdar, Penal Settlements in the Andamans, Publications Division, 1975)
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सावरकर की दया याचिकाओं को लेकर काफी बहस चली है. पहले तो उनके मुरीद इस बात को स्वीकारने को ही तैयार नहीं थे कि सावरकर ने इस किस्म का शर्मनाक व्यवहार किया था. उनके सामने जब प्रमाण रखे गए तो उन्होंने एक दूसरी दलील दी कि उनकी यह रणनीतिक चाल थी और वह दरअसल जेल से बाहर आकर आंदोलन को मजबूती देना चाह रहे थे.
सीमित जानकारी के चलते कुछ लिबरल लोग भी इस मामले में गलतफहमी का शिकार हो जाते रहे हैं. दया याचिकाएं एक ‘रणनीतिक चाल’ थी इस झांसे मे आ जाते रहे हैं.
प्रश्न है कि 1924 में ब्रिटिश सरकार की शर्तों के साथ जेल से रिहा होने वाले, अपने आप को राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखने के ब्रिटिश सरकार के साथ वादे को निभाने वाले सावरकर- जिन्हें रत्नागिरी तक ही सीमित रहने को कहा गया था- वाकई आज़ादी के आंदोलन को मजबूत कर रहे थे या उसमें दरार डालने के बीज डाल रहे थे.
अगर हम ब्रिटिश जेल से रिहा होने के बाद सावरकर की गतिविविधयों को देखें तो उनका काम आज़ादी के आंदोलन को मजबूत बनाना नहीं दिखता बल्कि वह अपने विचारों, अपनी सरगर्मियों से उसे कमजोर करता ही दिखता है.
दिलचस्प है जहां ब्रिटिश सरकार ने उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी लगायी थी, वहीं जब 1925 में कांग्रेस से जुड़े एक नेता हेडगेवार- जो गांधी के अगुआई में कांग्रेस द्वारा अपनायी गयी सर्वसमावेशी नीति के खिलाफ थे- से उनकी मुलाकात पर उन्होंने आक्षेप नहीं उठाया.
वह इस बात के प्रति स्पष्ट थे कि ‘हिंदुत्व’ किताब से प्रभावित हेडगेवार सावरकर की सलाह से जो भी करेंगे- वह भारतीय जनता में नयी दरार ही डालेगा.
याद रहे 1925 में लिखी अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ के जरिए सावरकर ने यह स्पष्ट किया था कि 1910 के कारावास के पहले हिंदू मुस्लिम एकता की बात करनेवाले सावरकर अब इतिहास हो गए हैं और अब वह हिंदू राष्ट्र निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहेंगे. इसी समझदारी का प्रतिबिंबन था द्विराष्ट्र के सिद्धांत का उनका प्रतिपादन जो मुहम्मद अली जिन्ना के पहले दो साल पहले सामने आया था.
याद रहे, जिन्ना ने 1939 में द्विराष्ट्र सिद्धांत पेश किया- सावरकर द्वारा इसे पेश किए जाने के दो साल बाद. वर्ष 1937 में अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए सावरकर ने यही बात कही थी कि भारत में दो राष्ट्र बसते हैं:
… भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह मानने की गंभीर गलती करते हैं कि भारत पहले से ही एक सद्भावपूर्ण मुल्क बन चुका है या यही कि ऐसी महज इच्छा होना ही काफी है. हमारे यह सदिच्छा रखनेवाले लेकिन अविचारी मित्र अपने ख्वाबों को ही हक़ीकत मान लेते हैं.
इसके चलते ही वह सांप्रदायिक विवादों को लेकर बेचैन रहते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार मानते हैं.
लेकिन ठोस वस्तुस्थिति यह है कि कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चले आ रहे सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय शत्रुता… की ही विरासत है … भारत को हम एक एकजुट (Unitarian) और समरूप राष्ट्र के तौर पर समझ नहीं सकते, बल्कि इसके विपरीत उसमें मुख्यतः दो राष्ट्र बसे हैं: हिंदू और मुसलमान.
(VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya Hindu Rasthra Darshan (Collected works of V.D.Savarkar) Vol VI, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p 296)
एक साल बाद उन्होंने कहा: ‘हिंदू भारत में एक राष्ट्र हैं- हिंदूस्थान में और मुस्लिम अल्पसंख्यक एक समुदाय हैं.’ (पेज 25, Savarkar and Hindutva, A G Noorani, Leftword, 2003)
यह उस वक्त के राजनीतिक माहौल का प्रतिबिंबन था कि आरसी मजूमदार, ऐसे इतिहासकार जिन्हें संघ परिवार के नजरिये के प्रति सहानुभूति रखनेवाले विद्वान के तौर पर जाना जाता है उन्होंने स्वीकारा था कि ‘एक महत्वपूर्ण कारक था जो भारत के सांप्रदायिक आधार पर विभाजन के विचार के उद्भव के लिए काफी हद तक जिम्मेदार था. वह था हिंदू महासभा.’ (RC Mazumdar ( General Editor), Struggle for Freedom, Bhartiya Vidya Bhavan, Mumbai, 1969, p. 611)
द्विराष्ट्र सिद्धांत के इस मूल प्रस्तुतिकर्ता ने वर्ष 1943 के अगस्त में एक मीडिया सम्मेलन में यह बात कही थी, जिसे पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से साझा किया था:
‘विगत तीस सालों से हम भारत की भौगोलिक एकता की इस विचारधारा से परिचित हुए हैं और कांग्रेस इस एकता की मजबूत हिमायती रही है, लेकिन अल्पसंख्यक मुसलमान, जो कम्युनल अवॉर्ड के बाद एक के बाद एक छूटें मांग रहे हैं, अब इस दावे के साथ सामने आए हैं कि वह एक अलग राष्ट्र हैं. मुझे जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई परेशानी नहीं है. हम हिंदू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक हक़ीकत है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग अलग राष्ट्र हैं.’
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए तथा मुसलमानों को दोयम दर्जे पर रखने के लिए वह गृहयुद्ध करने को भी तैयार थे, जो बात अमेरिकी पत्रकार के एक साक्षात्कार में साफ दिखती है.
यह वर्ष 1944 की बात है जब एक चर्चित अमेरिकी युद्ध पत्रकार टॉम ट्रेनर ने मुंबई में सावरकर का इंटरव्यू लिया था. गौरतलब था कि यह साक्षात्कार तब लिया गया जब वह शायद एकमात्र ऐसे हिंदू राजनेता थे जो- ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के बाद- जेल में नहीं थे. अधिकतर राजनेताओं को या तो जेल भेजा गया था या बाकी लोग भूमिगत होकर संघर्ष का संचालन कर रहे थे.
सावरकर का उपरोक्त साक्षात्कार असमय गुजर गए पत्रकार की किताब ‘वन डैम थिंग ऑफ्टर अनदर’ में प्रकाशित भी हुआ है. हिंदुस्तान को आज़ादी मिलने के आसार बन रहे थे और पत्रकार सावरकर से इसी के बारे में बात कर रहा था.
उसने पूछा, ‘आप मुसलमानों के साथ किस तरह पेश आएंगे?’ सावरकर का जवाब था, ‘अल्पसंख्यक की तरह… जैसे आप के मुल्क में नीग्रो हैं.’ (अश्वेतों के लिए यही शब्द उन दिनों प्रयुक्त होता था.)
पत्रकार ने आगे पूछा, ‘अगर मुसलमान अलग होने में कामयाब हो जाते हैं और अपना मुल्क बना लेते हैं तो?’ अपनी उंगलियों को डरावने अंदाज में प्रदर्शित करते हुए सावरकर ने जवाब दिया, ‘जैसा कि आपके देश में हो रहा है, यहां गृहयुद्ध होगा.’
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वैसे चालीस के दशक के पूर्वार्द्ध में जब उपनिवेशवाद के खिलाफ खड़ी कांग्रेस पार्टी और समाज के अन्य रैडिकल धड़े ब्रिटिशों के खिलाफ ‘करो या मरो’ का संघर्ष चला रहे थे, तब सावरकर की अपनी स्थिति क्या थी?
यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह उस दौर में हिंदुत्व की हिमायती ताकतों ने समझौतापरस्ती का रुख अख्तियार किया था. विदित है कि जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से अपने आपको दूर रखा था और जिन दिनों भारत की व्यापक जनता ब्रिटिशों की मुखालिफत में खड़ी थी, उसने अपने आप को अपने विभाजनकारी एजेंडा तक सीमित रखा था, मगर सावरकर उनसे भी एक कदम आगे बढ़ गए थे.
उन दिनों वह भारत के दौरे पर निकले थे और घूम-घूमकर सभाओं में, बैठकों में हिंदू युवकों का आह्वान कर रहे थे कि वह सेना में भर्ती हो. ‘हिंदुओं का सैन्यीकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो’ का उनका केंद्रीय नारा एक तरह से बढ़ते जनान्दोलनों से निपट रही ब्रिटिश सरकार की दमन की कोशिशों के लिए मददगार साबित हो रहा था.
एक तरफ जहां कांग्रेस पार्टी ने अलग अलग प्रांतों में संचालित उसकी सरकारों को यह निर्देश दिया कि वह अपनी सरकारों से इस्तीफा दें, वहीं सावरकर की अगुआई वाली हिंदू महासभा उसी अंतराल में सिंध, उत्तर पश्चिमी प्रांत और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही थी और अपनी इस समझौतापरस्ती को यूं उचित ठहरा रही थी:
‘व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें उचित समझौतों के रास्ते ही आगे बढ़ना पड़ेगा.’ (V.D.Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya Hindu Rasthra Darshan ( Collected works of V.D.Savarkar) Vol VI, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p 479-480)
यह जानना महत्वपूर्ण है कि इसके बावजूद कि हिंदू महासभा मुस्लिम लीग के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही थी और कि हिंदू युवकों को ब्रिटिश सेना में भर्ती कराने के अभियान में सावरकर मुब्तिला रहे थे, खुद ब्रिटिश उन्हें ‘चुका हुआ कारतूस’ (spent force) समझते थे.
एजी नूरानी, संवैधानिक विशेषज्ञ और राजनीतिक विश्लेषक, अपनी किताब ‘सावरकर एंड हिंदुत्व’ (पेज 92, लेफ्टवर्ड, 2019) में इंडिया ऑफिस के जॉन पर्सिवल गिब्सन- जो उन दिनों राजनीतिक विभाग के मुखिया थे- की एक बैठक के मिनट के अंश साझा करते हैं.
उनके मुताबिक, उन्होंने 1 अगस्त 1944 को ब्रिटिश सरकार को लिखा था कि ‘वह इस बात को जरूरी नहीं समझते कि सावरकर द्वारा सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, इंडिया को भेजे गए तार की स्वीकृति दी जाए. मालूम हो कि जनाब लिओपाल्ड एस अमेरी, जो सेक्रेटरी ऑफ स्टेट थे, को जुलाई 26 1944 को सावरकर ने एक तार भेजा था जिसमें यह दावा किया गया था कि ‘महासभा हिंदुओं का अखिल भारतीय प्रतिनिधित्व वाली एकमात्र संस्था है.’
नूरानी इस बात को नोट भी करते हैं कि ऐसे राजनेता जिनका आभामंडल खत्म होता जाता है, उसी तर्ज पर सावरकर चल रहे थे. ख़बरों में बने रहने के लिए सावरकर नियमित प्रेस विज्ञप्ति जारी करते रहते थे और इस बात का भी ध्यान रख रहे थे कि ऐसे बयान अधिकाधिक एकांतिक किस्म के हों.
भारत की आज़ादी को लेकर सावरकर की चिंताएं विचित्र थीं कि उन्हें इस बात से भी गुरेज नहीं हुआ जब त्रावणकोर के दीवान अय्यर ने त्रावणकोर को आज़ाद घोषित करने का दुस्साहस किया था, तब उन्होंने त्रावणकोर के दीवान अय्यर की जल्द से जल्द तारीफ करने में वक्त नहीं गंवाया था.
फ्रंटलाइन में प्रकाशित एजी नूरानी का लेख (जिसमें वह सीपी रामस्वामी अय्यर के दो चरित्रों की समीक्षा करते हैं) उजागर करता है:
‘सर सीपी रामस्वामी अय्यर, जो त्रावणकोर के दीवान थे, उन्होंने अपने राज्य को भारत से स्वतंत्र घोषित किया था. यह दुस्साहस यहीं समाप्त नहीं हुआ था. उन्होंने बहादुरी के साथ और बेहद जल्दबाजी में त्रावणकोर राज्य से एक राजदूत भी जिन्ना के पाकिस्तान भेजा था और इस तरह अपने आप को आज़ाद भारत और समग्र भारत क दुश्मन के तौर पर पेश किया था. और, इस देशद्रोह के लिए आखिर भारत में से किसने उनकी हौसलाअफजाई की? और कौन लेकिन ‘वीर’ सावरकर?’
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‘यह एक रोचक तथ्य है कि जैसे ही हमने 21वीं सदी में प्रवेश किया है, इतिहासकार राजनीति के केंद्र में आ गए हैं. हम इतिहासकार अतीत के एकमात्र आपूर्तिकर्ता हैं. अतीत के बारे में संशोधन करने का एकमात्र रास्ता इतिहासकारों के ज़रिये आज नहीं तो कल गुजरता ही है. ज्ञान की जगह को पौराणिक कथाएं भर रही हैं.’
21 वीं सदी के उषाकाल के दौरान मशहूर विद्वान और इतिहासकार एरिक होब्स्बॉम ने न्यूयार्क के कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने अभिभाषण में ‘इतिहास के नष्ट’ होने की प्रक्रिया से लेकर उसे ‘संशोधित करने’ या किस प्रकार ‘ज्ञान का स्थान मिथक ले रहे हैं’ की प्रक्रिया के बारे में बताया था.
तब से अब तक दुनिया में गंगा, राइन और यांगत्सी में काफी पानी बह चुका है और आज हम 21 वीं सदी के तीसरे दशक की दहलीज़ पर खड़े होकर अनुभव करते हैं कि कैसे धरती के विभिन्न हिस्सों में शाब्दिक और रूपक दोनों रूपों में यह प्रक्रिया तेज हुई है.
उपरोल्लेखित इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए – जहां सावरकर तरह तरह के असमावेशी विचारों की तथा कदमों की हिमायत करते दिखते हैं- कोई भी तटस्थ पर्यवेक्षक उनका महिमामंडन नहीं कर सकता और न ही उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के उन महान नेताओं के समकक्ष पद पर आसीन करने के प्रति आगाह करेगा, जो न कभी अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित हुए और न ही अपने कृत्यों के लिए कभी क्षमायाचना की.
यह स्पष्ट है कि भाजपा सावरकर प्रसंग के बारे में बिल्कुल उल्टा सोचती है, जिसका दावा है कि वह हमें एक नए भारत में ले जा रही है. और यह कोई संयोग नहीं है कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे जिसे आज़ाद भारत के पहले आतंकवादी के रूप में जाना जाता है, का इन दिनों बिना किसी लुकाछिपी के खुलेआम महिमामंडन किया जा रहा है.
नए भारत के नए आइकॉन इसी तरह हमारे सामने पेश किए जा रहे हैं. सावरकर को सम्मानित करने के मुद्दे पर वापस आते हुए, इस बात पर और ज़ोर देने की आवश्यकता है कि उनके व्यक्तित्व के कई अन्य विवादास्पद पहलू हैं, जिन पर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है.
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उदाहरण के लिए, गांधी की हत्या में अहम किरदार के रूप में सावरकर की भूमिका. आप वल्लभभाई पटेल को याद करें, जिन्होंने 27 फरवरी 1948 में नेहरू को इसके बारे में लिखा था:
‘मैंने बापू की हत्या के मामले की जांच की प्रगति के साथ ख़ुद को लगभग दैनिक संपर्क में रखा है.’ उनका निष्कर्ष था: ‘यह कृकाम सीधे सावरकर के अधीन हिंदू महासभा के कट्टरपंथी धड़े का है जिसने यह साज़िश रची और इसे अंजाम तक पहुंचाया.’
ध्यान रहे कि इस पूरी साजिश में सावरकर की भूमिका पर बाद में विधिवत रोशनी पड़ी, भले ही गांधी हत्या को लेकर चले मुकदमे में उन्हें सबूतों के अभाव में तकनीकी आधार पर छोड़ दिया गया था.
मालूम हो कि गांधी हत्या के सोलह साल बाद पुणे में इस हत्या में शामिल लोगों की रिहाई की खुशी मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. 12 नवंबर 1964 को आयोजित इस कार्यक्रम में शामिल कुछ वक्ताओं ने कहा कि उन्हें इस हत्या की पहले से जानकारी थी.
अख़बार में इस ख़बर के प्रकाशित होने पर जबरदस्त हंगामा मचा और फिर 29 सांसदों के आग्रह तथा जनमत के दबाव के मद्देनज़र तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने एक सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक कमीशन ऑफ एन्क्वायरी एक्ट के तहत कमीशन गठित किया.
कपूर आयोग ने हत्या में सावरकर की भूमिका पर नए सिरे से निगाह डाली. अगर हम उपरोक्त रिपोर्ट को पलटें, तो इसके बारे में कई तथ्य दिखाई देते हैं.
मिसाल के तौर पर हर आम एवं खास मौके पर सावरकर के साथ मौजूद रहते थे गांधी के हत्यारे आप्टे और गोडसे.
25.161. वीडी सावरकर के निजी सुरक्षाकर्मी अप्पा रामचंद्र कासर का 4 मार्च 1948 को दर्ज किया गया बयान यह दिखाता है कि यहां तक कि 1946 में आप्टे और गोडसे (दोनों गांधी की हत्या के दोषी) सावरकर के घर अक्सर जाने वालों में शामिल थे और करकरे (गांधी की हत्या का दोषी) भी कभी-कभी जाता था.
जब देश के विभाजन की चर्चा चल रही थी तो ये तीनों सावरकर से मिलने जाया करते थे और उनसे विभाजन के मसले पर विचार-विमर्श करते थे. सावरकर आप्टे और गोडसे को बताते थे कि कांग्रेस जिस तरह से काम कर रही है वह हिंदू हितों के खिलाफ है. और उन्हें अग्रणी के जरिये कांग्रेस, महात्मा गांधी और उनकी अधिनायकवादी नीतियों के खिलाफ प्रचार संचालित करना चाहिए. (अग्रणी वह अखबार था, जिससे ये सब जुड़े हुए थे. बाद में इसे सावरकर ने ही ले लिया था.)
25.163. अगस्त की शुरुआत में 5-6 अगस्त को अखिल भारतीय हिंदू महासभा का दिल्ली में एक कन्वेंशन था. (जिसमें भाग लेने के लिए) सावरकर, गोडसे और आप्टे हवाई जहाज में एक साथ गए थे (बॉम्बे से दिल्ली). कन्वेंशन में कांग्रेस की नीतियों की जमकर आलोचना की गयी थी. 11 अगस्त को सावरकर, गोडसे और आप्टे प्लेन से बॉम्बे एक साथ आये.
आयोग के सामने सावरकर दो सहयोगी अप्पा कासर – उनका बॉडीगार्ड और गजानन विष्णु दामले, उनका सेक्रेटरी भी पेश हुए, जो मूल मुकदमे में बुलाए नहीं गए थे. कासर ने कपूर आयोग को बताया कि कि किस तरह हत्या के चंद रोज पहले आतंकी गोडसे एवं दामले सावरकर से आकर मिले थे.
बिदाई के वक्त सावरकर ने उन्हें एक तरह से आशीर्वाद देते हुए कहा था कि ‘यशस्वी होउन या’ अर्थात कामयाब होकर लौटो. दामले ने बताया कि गोडसे और आप्टे को सावरकर के यहा जनवरी मध्य में देखा था. न्यायमूर्ति कपूर का निष्कर्ष था ‘इन तमाम तथ्यों के मद्देनजर यही बात प्रमाणित होती है कि सावरकर एवं उनके समूह ने ही गांधी हत्या को अंजाम दिया…
क्या कहता है जीवन लाल कपूर आयोग: प्रमुख निष्कर्ष
इस आयोग के खंड पांच, अध्याय 21 और पेज 303 के अनुच्छेद 25.105 और 25.106 में दिए गए निष्कर्ष काबिलेगौर हैं:
‘25.105 निःस्सन्देह, आयोग इस मसले पर 21 साल बाद गौर कर रहा है, जबकि इस घटना को लेकर दोनों सिद्धांतों के पक्ष में तथा विपक्ष में मौजूद तमाम तथ्य उसके सामने हैं और जनाब नागरवाला इन्हीं तथ्यों की पड़ताल तथा संग्रहण में जुटे थे और उन्हें तमाम सुरागों के आधार पर काम करना था तथा सूचनाओं के छोटे-छोटे टुकड़ों के आधार पर इस पहेली को सुलझाना था, मगर निम्नलिखित तथ्यों को लेकर आयोग की राय में सही निष्कर्ष यही निकलता है कि वह हत्या का षडयंत्र था न कि अपहरण की साजिश:
1. जिन सूचनाओं को जनाब मोरारजी देसाई ने श्री नागरवाला को दिया है ;
2. प्रार्थनासभा के वक्त वहां गन कॉटन स्लैब का विस्फोट (explosion of gun cotton slab)
3 इस घटनाक्रम को लेकर सावरकर का उल्लेख और दिल्ली की यात्रा पर निकलने के पहले मदनलाल और करकरे द्वारा सावरकर से की गयी मुलाकात
4. सिख जैसे दिखने वाले एक मराठा द्वारा हथियारों के एक जखीरे की रखवाली का उल्लेख
25.106: इन तमाम तथ्यों के मददेनज़र इस बात से कहीं से इनकार नहीं किया जा सकता कि गांधी हत्या की साजिश सावरकर और उनके समूह ने रची…
मालूम हो कि महात्मा गांधी हत्याकांड जांच आयोग की रिपोर्ट 1965-1969, जिसे 1970 में भारत के गृह मंत्रालय द्वारा दो खंडों में प्रकाशित किया है.
आज़ादी के बाद नवस्वाधीन भारत देश में समानता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों के आधार पर एक संविधान को विकसित करने की कोशिश चल रही थी, उस समय राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तरह, सावरकर को भी भारत को एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्वीकार करने में बहुत कठिनाई हो रही थी, जहां हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त होंगे, चाहे वह किसी भी जाति, लिंग, धर्म इत्यादि का हो. यह वह दौर था जब उन्होंने मनुस्मृति के प्रति अपने गहरे लगाव को प्रदर्शित किया.
‘मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बना हुआ है. सदियों से चली आ रही इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र्र के आध्यात्मिक और अलौकिक यात्रा को सूचीबद्ध किया है. आज भी, करोड़ों हिंदू मनुस्मृति के आधार पर ही अपने जीवन में इसके नियम को अपने जीवन और व्यवहार पालन करते हैं. आज मनुस्मृति हिंदू कानून है.
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अंत में, सावरकर के विचार का सबसे कम चर्चित पहलू है बदले की राजनीति की उनकी हिमायत और यहां तक कि हिंदू राष्ट्र्र के निर्माण की खातिर बलात्कार तक को राजनीतिक हथियार के रूप में प्रस्तावित एवं प्रचारित करना.
ध्यान रहे उनके बहुचर्चित ग्रंथ ‘भारतीय इतिहासातिल सहा सोनेरी पाने (सिक्स गोल्डन एपोचेज़ इन इंडियन हिस्ट्री) को उनके नए विश्व दृष्टिकोण के प्रतिनिधि के रूप में माना जा सकता है, जहां वे बड़ी सावधानी से अपने पूर्व के राष्ट्र्रवादी दर्शन से ध्यान हटाते हैं और अपने हिंदू राष्ट्र्र के प्रोजेक्ट पर ध्यान केंद्रित करते हैं.
यह ग्रंथ ‘वाकई में अकादमिक संदर्भ में इतिहास की किताब नहीं है, बल्कि एक तरह से यह नैतिक दर्शन की किताब है, जो ईश्वर को राष्ट्र से प्रतिस्थापित करती है और उसे नैतिक विमर्श के प्राथमिक संदर्भ बिंदु के तौर पर आगे लाती है.’ (देखें, सावरकर, सूरत एंड द्रौपदी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, पेज 53, वूमेन एंड द हिंदू राईट, काली फॉर वूमेन, 1996)
अजीत कर्णिक ने अपनी टिप्पणी ‘सावरकर का हिंदुत्व‘ (इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 12 अप्रैल, 2003) में लिखा है कि किस प्रकार सावरकर ने मुसलमानों से बदला न लेने पर मराठों की आलोचना की है. उनके अनुसार,
‘उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ 390-391 पर सावरकर ने मराठों को अब्दाली द्वारा वर्ष 1757 के आसपास किए गए अत्याचारों के जवाब में मुसलमानों से बदला नहीं लेने पर जमकर कोसा है. सावरकर सिर्फ मराठों से बदला लेने पर ही संतुष्ट नहीं हो जाते, बल्कि मुस्लिम धर्म (मुसलमानी) को खत्म करने और मुस्लिम अवाम को खदेड़ देने और भारत को ‘मुस्लिम-मुक्त’ कर देने पर खुश होते.’
सावरकर अपने सिद्धांत को बड़े अनुमोदन के साथ प्रस्तुत करते हैं कि किस तरह स्पेन, पुर्तगाल, ग्रीस और बुल्गारिया ने अतीत में ईसाई धर्म की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यही मार्ग अपनाया था.
यह पहलू गौर करने लायक है कि इस बहुचर्चित पुस्तक में, सावरकर ने मुसलमानों के सामूहिक अपराध के सिद्धांत को प्रस्तावित किया. यह इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि मुसलमानों को न केवल उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए दंडित करने की जरूरत है, बल्कि उनके सह-धर्मवादियों ने क्या किया है, इसका दंड भी उन्हें मिलना चाहिए.
एक तरह से, सावरकर ने खुद को प्रतिशोध, प्रतिकार (बदला लेने, प्रतिशोध और प्रतिशोध के लिए सभी पर्यायवाची शब्द) की भाषा के पितामह के रूप में प्रस्तुत किया है, और वे एक ऐसे प्रखर विचारक के रूप में सामने आते हैं जिनसे व्यापक स्तर पर कट्टरपंथी व्यक्तियों और हिंसक संगठनों को प्रेरणा मिली.
कर्णिक आगे कहते हैं:
‘आगे (पेज 392), सावरकर बिना किसी रुकावट के मराठों की आलोचना में उनपर आरोप मढ़ते हुए कहते हैं कि वे न सिर्फ अब्दाली और उसकी सेना द्वारा हिंदू समुदाय पर अत्याचार का बदला लेने में असफल रहे, बल्कि उन्होंने उन आम मुसलमानों से भी इस अपमान का बदला नहीं लिया जो मथुरा, गोकुल आदि स्थानों में बसे हुए थे.
सावरकर के अनुसार, मराठा सेना को इन आम मुसलमानों (सैनिक नहीं) की हत्या कर देनी चाहिए थी, उनकी मस्जिदों को ढहा देना चाहिए था और मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करना चाहिए था.
यह बदला पूर्व में किये किसी अत्याचारी से नहीं बल्कि उनसे लेना था जिनका पूर्व की घटनाओं से कोई लेना-देना नहीं था, यह बदला उन साधारण नागरिकों से जो इन इलाकों में रहते थे, और उनका एकमात्र अपराध यह था कि वे उस धर्म से वास्ता रखते थे जिससे पूर्व में किये गए अत्याचारों वाले आततायी आते थे.’
नस्लीय सफाये के प्रति सभ्य दुनिया ने हाल के दिनों में आलोचनात्मक रुख अपनाया है. यह देखना मुश्किल नहीं है कि सावरकर इस तरह की घटनाओं पर कैसी प्रतिक्रिया देते, अगर कोई तुलना करे कि इतिहास में इसी तरह की घटनाओं पर उनका नजरिया क्या होता.
लेकिन सावरकर की जिंदगी का सबसे निंदनीय और सबसे कम ज्ञात पहलू है शिवाजी की निंदा का. जब कल्याण के नवाब की पुत्रवधू को शिवाजी की सेना ने कब्जे में लेकर उनके सामने प्रस्तुत किया था, तब उन्होंने विशाल उदारता का परिचय दिया था. सावरकर ने शिवाजी के इस निर्णय को विकृत गुण (perverted virtue) बताया है. (भारतीय इतिहासतिल सहा सोनेरी पाने, अध्याय 4 और 5, पृष्ठ 147-74)
किंवदंती यह है कि जब शिवाजी के उत्साही सहायकों में से एक ने नवाब की बहू को उनके सामने पेश किया, तो उसे उम्मीद थी कि उसे इसके बदले में कुछ विशेष उपहार या सम्मान मिलेगा, लेकिन शिवाजी ने न सिर्फ उसे इस तरह के कृत्य के लिए फटकार लगाई, बल्कि उसे दंडित भी किया और पूरे सम्मान के साथ महिला को उनके स्थान पर वापस भेज दिया.
‘आज भी हम गर्व के साथ छत्रपति शिवाजी और चिमाजी अप्पा के उस फैसले का उल्लेख करते हैं, जब उन्होंने सम्मानपूर्वक कल्याण के मुस्लिम गवर्नर की पुत्रवधू और बसई के पुर्तगाली गवर्नर की पत्नी को वापस भिजवा दिया. लेकिन क्या यह विचित्र नहीं है कि जब वे ऐसा कर रहे थे, तो न तो शिवाजी और न ही चिमाजी अप्पा को एक बार भी यह खयाल आया कि किस प्रकार महमूद गजनी, मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन खिलजी और दूसरों ने हजारों हिंदू महिलाओं और बच्चियों जैसे दाहिर की राजकुमारी कमलादेवी, कर्णराज की पत्नी या कर्णावती और उसकी बेहद ख़ूबसूरत बेटी, देवलादेवी…..
लेकिन तब के प्रचलित विकृत धार्मिक मान्यताओं में महिलाओं के प्रति सम्मान की धारणा के चलते, जो अंततः हिंदू समुदाय के लिए अत्यंत हानिकारक साबित हुए, के कारण न तो शिवाजी महाराज और न ही चिमाजी अप्पा मुस्लिम महिलाओं के साथ ऐसा कोई गलत व्यवहार कर सकते थे.’ (भारतीय इतिहास के छह शानदार युग, पेज 461, दिल्ली, राजधानी ग्रंथागार, 1971)
सावरकर ने शिवाजी के इस कृत्य की आलोचना की है और कहा है कि वे गलत थे, क्योंकि इस प्रकार का सभ्य और मानवीय व्यवहार उन कट्टरपंथियों के मन में हिंदू महिलाओं के प्रति भी समान भाव पैदा नहीं कर सका.
यह बात काफी चौंकाने वाली है कि इस प्रकार सावरकर हिंदुत्व ब्रिगेड के कट्टरपंथियों को अन्य महिलाओं के साथ असंख्य बलात्कारों के लिए सैद्धांतिक औचित्य प्रदान करते हैं, जिन्हें बाद में सांप्रदायिक दंगों/सामूहिक हत्याकांड में पालन किया जाता रहा.
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जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि वक्त की निहाई पर फिलवक्त सावरकर का नाम सुर्खियों में है और वह बस इसी वजह से कि उन्हें भारत रत्न जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजने की भाजपा की योजना है.
हम सभी के लिए यह सोचने का वक्त है कि क्या ऐसा शख्स जिसने अपनी युवावस्था के दिन में निश्चित ही अच्छे काम किए, आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय रहे, हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतिपादन किया और जेल जाने के बाद अपने पूरे रुख को बदल दिया, अंग्रेज सरकार के पास माफीनामे भेजे, मोहम्मद अली जिन्ना के दो साल पहले धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने की बात रखी, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में ब्रिटिशों की सेना में हिंदू युवाओं की भर्ती का अभियान चलाया और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल एवं उत्तर पश्चिमी प्रांतों में सरकारें चलाईं तथा भारतीय जनता के दमन में सहयोग दिया और आज़ादी के बाद देश की आज़ादी के अगुआ महात्मा गांधी की हत्या की साजिश का सूत्रसंचालन किया, किसी भी मायने में भारत रत्न का हक़दार होना चाहिए!
सावरकर के लिए भारत रत्न प्रस्तावित करने की इस जारी बहस में इसके साथ एक अन्य अहम पहलू पर अधिक ध्यान नहीं गया है. भाजपा ने अपने घोषणापत्र में सावरकर के साथ साथ महात्मा ज्योतिबा फुले और क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले को भी भारत रत्न से नवाजे जाने का प्रस्ताव रखा है.
आप कल्पना करें सावरकर- जो दुश्मन की स्त्रियों के साथ अत्याचार की हिमायत करते हैं- उन्हें ज्योतिबा एवं सावित्रीबाई के साथ जोड़ना उनका कितना बड़ा अपमान है, जिन्होंने 1848 में महिलाओं के लिए खोले अपने पहले स्कूल के जरिये उस सामाजिक विद्रोह का बिगुल फूंका जिसकी प्रतिक्रियायें 21वीं सदी में भी जोर-शोर से सुनायी दे रही हैं.
इतिहास गवाह है कि 1851 तक आते आते महिलाओं, शूद्रों अतिशूद्रों के लिए उनके द्वारा खोले गए स्कूलों की संख्या पांच तक पहुंची थी, जिसमें एक स्कूल तो सिर्फ दलित महिलाओं के लिए था. जैसे कि उस समय हालात थे और ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियों में पढ़ने लिखनेवालों की तादाद बेहद सीमित थी, उस समय इस किस्म के ‘धर्मभ्रष्ट’ करनेवाले काम के लिए कोई महिला शिक्षिका कहां से मिल पाती.
ज्योतिबा ने बेहतर यही समझा कि अपनी खुद की पत्नी को पढ़ा-लिखाकर तैयार किया जाये और इस तरह 17 साल की सावित्रीबाई पहली महिला शिक्षिका बनीं. फातिमा शेख नामक दूसरी शिक्षित महिला ने भी इस काम में हाथ बंटाया.
महात्मा फुले ने अपने काम को महज शिक्षा तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने कई सारी किताबों के जरिये ब्राह्मणवाद से उत्पीड़ित जनता को शिक्षित जागरूक करने की कोशिश की. ‘गुलामगिरी’ ‘किसान का कोड़ा’ ‘ब्राह्मण की चालबाजी’ आदि उनकी चर्चित किताबें हैं.
अपने रचनात्मक कामों के अंतर्गत उन्होंने वर्ष 1863 में अपने घर में ही ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ खोला. अपने कार्यों को सुचारु रूप से आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिबा ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की.
फुले की दृष्टि की व्यापकता का अंदाज इस बात से भी लग सकता है कि उसकी पहली कार्यकारिणी में हमें हिंदू धर्म की विभिन्न जातियों के अलावा एक यहूदी और एक मुसलमान भी शामिल दिखता है.
उन्हीं दिनों अपने दो मित्रों के साथ मिलकर 1873 में ‘दीनबंधु’ नामक अखबार का प्रकाशन भी उन्होंने शुरू किया. ‘स्त्री पुरुष तुलना’ की रचयिता ताराबाई शिंदे हों या पुणे के सनातनियों से प्रताड़ित पंडिता रमाबाई हों, दोनों की मजबूत हिफाजत ज्योतिबा ने की.
सावरकर को भारत रत्न प्रस्तावित करके एक साथ न केवल आज़ादी के तमाम कर्णधारों को अपमानित किया जा रहा है बल्कि भारत में सामाजिक क्रांति के सूत्रधारों को भी साथ साथ लपेटे में लिया जा रहा है.
भारत में हिंदुत्व दक्षिणपंथ की यात्रा को बारीकी से देखने वाले जानकार बता सकते हैं कि किस तरह वह ऐसे तमाम प्रतीकों को- जो उत्पीड़ितों, शोषितों में नए उत्साह का संचार कर सकते हैं, उन्हें हथियाने में आगे रहते हैं.
6 दिसंबर- जिसे दलित-शोषित जनता डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के रूप में याद करती रही है, लेकिन 6 दिसंबर 1992 में हुई बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना, जिसे इन्हीं ताकतों ने कथित तौर पर सुनियोजित एवं सुचिंतित तरीके से अंजाम दिया था, के बाद अब मामला गड्ड-मड्ड हो गया है.
निकट भविष्य में चीजें किस तरह उद्घाटित होती हैं यह देखना अभी शेष है, लेकिन भाजपा और वृहद हिंदुत्व ब्रिगेड को यह बताना होगा कि भारत के रत्न के रूप में उनकी पसंद और उनकी तड़प भारत की सामाजिक क्रांति के कर्णधारों के प्रति, आज़ादी के ज्ञात-अज्ञात नेताओं की स्मृति के प्रति एक अपमान से कम नहीं है.
भाजपा तथा व्यापक संघ परिवार के दावे जो भी हों, यह सिर्फ उनके अभियान के नैतिक खालीपन को साबित करता है, जो नफरत और बहिष्कार पर आधारित है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)