भीम आर्मी रावण को नहीं, आंबेडकर को आंदोलन का हिस्सा बनाए

भले ही भीम आर्मी की कोई हिंसक गतिविधि न हो, पर प्रतिक्रियावादी हिंदुओं में यह हिंसक प्रतिक्रांति को और भी ज़्यादा हवा देगी. इससे समानता स्थापित होने वाली नहीं है.

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भले ही भीम आर्मी की कोई हिंसक गतिविधि न हो, पर प्रतिक्रियावादी हिंदुओं में यह हिंसक प्रतिक्रांति को और भी ज़्यादा हवा देगी. इससे समानता स्थापित होने वाली नहीं है.

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दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन करते भीम आर्मी के कार्यकर्ता. (फोटो: पीटीआई)

अगर नेतृत्व परिपक्व नहीं है, तो वह जिस तेज़ी से उभरता है, उसी तेज़ी से कमज़ोर भी हो जाता है. भीम आर्मी क्यों? अवश्य ही यह नाम तमाम तरह की उन सेनाओं के अनुकरण में रखा गया है, जिन्हें आरएसएस और हिन्दू संगठन चला रहे हैं. वे धर्म के नाम पर इस तरह की सेनाएं चला सकते हैं.

उनके पास संख्या बल है, सत्ता बल है और धन बल है. वे अपनी सेनाओं के लोगों को हर तरह की सहायता करते हैं. उनमें जो पूर्ण कालिक होते हैं, उन्हें जीवन-निर्वाह के लिए वेतन देते हैं, और उनको भरपूर राजनीतिक संरक्षण देते हैं. अगर वे हिंसक गतिविधियों में पकड़े जाते हैं, तो वे उनकी क़ानूनी मदद भी करते हैं.

किंतु, भीम आर्मी के पास क्या है? उसके पास न संख्या बल है, न धन बल है और न सत्ता बल है. जिन मायावती के चंद्रशेखर ने गुण गाये, उनने भी भीम आर्मी को नकार दिया.

सवाल है कि भीम आर्मी बनाने की क्या ज़रूरत थी? भीम संगठन भी बनाया जा सकता था. जिन सेनाओं का चंद्रशेखर अनुकरण कर रहे हैं, उनके सदस्यों की सांस्कृतिक ट्रेनिंग होती है, उनका ब्रेनवाश किया हुआ होता है. भीम आर्मी के किस सदस्य की सांस्कृतिक ट्रेनिंग हुई है?

मुझे चंद्रशेखर तक अपरिपक्व दिखाई देते हैं. वह अपने नाम के आगे ‘रावण’ शब्द लगाए हुए हैं. उनकी अपरिपक्वता यहीं से शुरू होती है. जंतर-मंतर पर अपने भाषण में वे रावण के गुण गिना रहे थे. कह रहे थे कि रावण चरित्रवान था, शीलवान था, विद्वान था, यह था..वह था..इत्यादि.

अगर रावण के मिथ को लेकर चलेंगे, तो राम की ज़बर्दस्त प्रतिक्रांति होगी, उसे आप रोक नहीं पाएंगे. महाराणा प्रताप के साथ यही तो हुआ. उसे संपूर्ण हिंदू समाज का आदर्श बनाने की कार्ययोजना आरएसएस की है. सहारनपुर में महाराणा प्रताप की शोभायात्रा इसी कार्ययोजना का हिस्सा थी. और अब जोर-शोर से उसे व्यापक बनाने का सिलसिला शुरू हो गया है. आज बलरामपुर में खुद मुख्यमंत्री योगी ने महाराणा प्रताप को हिंदू आदर्श बनाने की पुरज़ोर घोषणा की है.

याद कीजिए, जब महाराष्ट्र में नामदेव ढसाल अपने शुरूआती दौर में हनुमान को लेकर ज़ोर-शोर से तर्क करते थे, और मज़ाक उड़ाते थे, तो उनकी सभा में हज़ारों की संख्या में मौजूद दलित हंसते थे और तालियां बजाते थे. उसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि महाराष्ट्र में जिन हनुमान की कभी शोभायात्रा नहीं निकलती थी, वह गली-गली में निकलने लगी थी. हनुमान के रूप में एक बड़ी प्रतिक्रांति हुई. नामदेव ढसाल का क्या हुआ, उसे बताने की ज़रूरत नहीं है, सब जानते हैं.

इसलिए रावण के नाम से कोई भी राजनीति अपरिपक्व राजनीति के सिवा कुछ नहीं है. रावण को दलित आंदोलन का हिस्सा मत बनाइए. अपनी लड़ाई का हिस्सा डॉ. आंबेडकर को बनाइए, जोतिबा फुले को बनाइए, उसके केंद्र में बुद्ध को लाइए, कबीर को लाइए, रैदास को लाइए. इससे दलित आंदोलन को प्रगतिशील धार मिलेगी.

आर्मी से शांति और अहिंसा का बोध नहीं होता है, बल्कि हिंसा का बोध होता है. लगता है जैसे हथियारों से लैस कोई गिरोह हो. जो ज़ुल्म का बदला ज़ुल्म और हत्या का बदला हत्या से लेना चाहता हो. क्या भीम आर्मी ऐसा ही काम करना चाहती है? मैं समझता हूं, शायद ही चंद्रशेखर और उनके साथी इसका जवाब ‘हां’ में देंगे. फिर भीम आर्मी क्यों?

भले ही भीम आर्मी की कोई हिंसक गतिविधि न हो, पर प्रतिक्रियावादी हिंदुओं में यह हिंसक प्रतिक्रांति को और भी ज़्यादा हवा देगी. इससे समानता स्थापित होने वाली नहीं है.

जंतर-मंतर पर बेशक विशाल भीड़ थी. उसमें तमाम संगठनों के लोग थे, बहुत सारे दूसरे लोग भी थे, जो भीम आर्मी के सदस्य नहीं थे, बल्कि उनके प्रतिरोध को अपना समर्थन देने गए थे. मैंने चंद्रशेखर का भाषण भी सुना था, जिसमें मुद्दों की कोई बात नहीं थी.

उस पर उनका भाई हर पांच मिनट के बाद उनके कान में कुछ कह देता था, जो बहुत अशिष्ट लग रहा था. फिर माइक पर फोन नंबर बोले जा रहे थे. यह पूरी तरह राजनीतिक अपरिपक्वता थी. वहां जिग्नेश मेवाणी और कन्हैया कुमार भी मौजूद थे, जो ज्यादा परिपक्व हैं. उन्होंने अपने आंदोलन से न सिर्फ़ सरकार को झुकाया है, बल्कि देश भर में एक बड़ा प्रभाव भी छोड़ा है.

किंतु सहारनपुर की घटना को भीम आर्मी ने जिस अपरिपक्वता से दलित बनाम हिंदू का मुद्दा बना दिया है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. ‘दलित बनाम हिंदू’ और ‘दलित बनाम मुस्लिम’ पूरी तरह आरएसएस का एजेंडा है, इसे दलितों को समझना होगा. इससे हिंदूराष्ट्र की उसकी परिकल्पना को बल मिलेगा. यह लोकतंत्र के हित में नहीं है.

दलित बनाम हिदू की लड़ाई को हमें ‘सामाजिक न्याय की लड़ाई’ में बदलना होगा. इस लड़ाई में हमें उन तमाम लोगों को, जो किसी भी वर्ग, धर्म या जाति के हों, अपने साथ लेना होगा, जो अत्याचार और विषमता के विरुद्ध लड़ रहे हैं.

भीम आर्मी की एक अपरिपक्वता यह भी है कि तुरंत ही धर्म परिवर्तन की बात करने लगे. ‘हमें न्याय नहीं मिला तो धर्म परिवर्तन कर लेंगे’. यह क्या पागलपन है? धर्म परिवर्तन क्या धमकी देकर किया जाता है? क्या इसका मतलब यह है कि न्याय मिल गया, तो धर्म परिवर्तन नहीं करेंगे, हिंदू बने रहेंगे?

धर्म निजी मामला है, विचारों का मामला है. किसी को अगर धर्म परिवर्तन करना है, तो करे, उसकी धमकी देने की क्या ज़रूरत है? चलो मान लिया कि न्याय नहीं मिला, और धर्म परिवर्तन कर भी लिया, तो कितने दलित धर्म परिवर्तन कर लेंगे? हज़ार, दस हज़ार? बस इससे ज़्यादा तो नहीं. क्या कर लेंगे ये हज़ार-दस हज़ार धर्मांतरित लोग?

क्या पूरे यूपी के दलितों का धर्म परिवर्तन करा दोगे? दलितों में ही एक संगठन ‘भावाधस’ है, जो दलितों के धर्म बदलने पर आरएसएस की तरह ही उनकी घर वापसी का कार्यक्रम चलाता है. भीम आर्मी के सदस्यों ने बाबा साहेब की कोई किताब नहीं पढ़ी है, वरना वे इस तरह अपरिपक्व राजनीति नहीं करते.

(लेखक जाने माने चिंतक और साहित्यकार हैं. यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.) 

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