स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित एक स्तंभ हम इस सप्ताह शुरू कर रहे हैं - 'मैं बोली'. जिन्होंने यह आरंभिक क़िस्त लिखी है, वह अपने साथ होते आये अन्याय को पहली बार सार्वजनिक कर रही हैं. लेकिन अपनी आवाज उठाते वक्त भी वह अज्ञात रहना चाहती हैं. उनकी लंबी चुप्पी की तरह उनका अनाम रहे आना भी हमारे समाज पर एक सवाल है.
संभव है इसे पढ़ते वक्त आपको माया अंजेलो का वह अमर वाक्य याद आयेगा - 'जब