मृणाल सेन का सिनेमा कलात्मक और बौद्धिक संवेदना का नायाब संयोजन था. वह चाहते थे कि सिनेमा उपेक्षितों के पास और सुदूर देहातों में पहुंचे. उन्हें ‘नए सिनेमा’ से यह उम्मीद थी. उनकी फिल्म देखने के बाद बहुत देर तक उसकी छवियां बेताल की तरह सिर पर नाचती रहती हैं.
बनारस को दुनिया के दिल का नुक़्ता कहना दुरुस्त होगा. इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है. अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम न रहता.
अंग्रेज़ी के कवि पीबी शैली की एक कविता में उनका नायक मरने के बाद जब नर्क पहुंचता है तो पाता है कि नर्क तो बिल्कुल लंदन जैसा है. जो कुछ भी लंदन में मिल सकता है वह सब वहां है. उसकी पहचान, उसकी बेतहाशा आबादी और धुआं... राजधानी है इसलिए वहां राजा है, न्यायालय है और जैसा कि राजधानियों में होता है ख़याली पुलाव के रूप में क्रांति की बातें हैं. एक सदी पहले लिखी गई इस कविता का यह
जिस तरह केन नदी केदारनाथ अग्रवाल के संसार में बहती दिखती है ठीक वैसे ही कुआनो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के संसार में बह रही है. हम सभी के संसार में कोई न कोई भुला दी गई नदी बह रही है. सर्वेश्वर बस इसलिए अलग थे कि वह उस नदी और उसके पास लगने वाले फुटहिया बाज़ार को कभी भूले नहीं. वहां मुर्दा जलते और अधजले रह जाते. धोबी कपड़े धोते. औरतें छुपकर सिगरेट पीतीं.
केदारनाथ अग्रवाल का सौंदर्यबोध खेतों की धूल में गुंथकर बना है और इस तरह के सौंदर्यबोध के वह हिंदी के इकलौते कवि हैं.
श्रीकांत वर्मा के साहित्य में जीवन-मरण का स्मरण किसी प्रकार के रहस्यवाद से परे है. बात सीधी-सपाट है. आदमी अपने ‘रक्तचाप’ से मरता है, अपने ‘पाप’ से नहीं.
पुण्यतिथि विशेष: कुमायूं के किसी गांव का किसान जब उनके पास यह गुहार लेकर आता कि बाघ उनके घरेलू जानवर को खींच ले गया है तो वह अपना बटुआ मंगाते और किसान को हुए नुकसान का पूरा मुआवज़ा दे देते.
पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के अभिजात्य और शासक वर्गों में पर्यावरण और सामाजिक-नागरिक प्रतिरोध के केंद्र के रूप में सघन वन्य इलाक़ों को नकारात्मक रूप से देखने की प्रवृत्ति मिलती है.
केदारनाथ सिंह की कविताओं में सबसे अधिक आया हुआ बिंब वह है जो 'जोड़ता' है. उन्हें वह हर चीज़ पसंद थी जो जोड़ती है. वो चाहे सड़क हो या पुल, शब्द हो या सड़क, जो लोगों को मिलाती है, उनकी आंखों में एक छवि बनकर तैरती रहती और फिर पिघलकर कविता में ढल जाती.
निराला के देखने का दायरा बहुत बड़ा था. ‘देखना’ वेदना से गुज़रना है. उन्होंने अपने शहर के रास्ते पर ‘गुरु हथौड़ा हाथ लिए’ पत्थर तोड़ती हुई औरत देखी. सभ्यता की वह राह देखी जहां से ‘जनता को पोथियों में बांधे हुए ऋषि-मुनि’ आराम से गुज़र गए. चुपके से प्रेम करने वाला ‘बम्हन लड़का’ और उसकी ‘कहारिन’ प्रेमिका देखी.
1857 की बग़ावत के सदमे से अंग्रेज़ कभी उबर नहीं सके. भारतीयों के दमन और अपने औपनिवेशिक लक्ष्यों को पूरा करने के उद्देश्य से उन्होंने पुलिस एक्ट, 1861 बनाया, जो आज भी वर्तमान पुलिस प्रणाली का आधार बना हुआ है.
ग़ालिब की संवेदनाओं में ताउम्र बेबसी झलकती रहती थी. उन्हें लगता था कि उनकी प्रतिभा को समाज ने कभी वाजिब हक़ नहीं दिया.