मुकेश चंद्राकर की हत्या: बस्तर में पत्रकारिता की क़ब्र

पिछले डेढ़ दशक से बस्तर में माओवाद से मुकाबले के नाम पर ढेर सारी पूंजी पहुंची है, ठेकेदार पनपे हैं और तमाम निर्माण-कार्य शुरू हुए हैं. जाहिर है, उनसे जुड़े मुनाफे के तार को झकझोरने की कोशिश जानलेवा होगी. इसलिए इस हमलावर के पहले निशाने पर बस्तर के पत्रकार आ जाते हैं.

नक्सलवाद के सफाये की मुहिम में आदिवासियों के प्रश्न पीछे छूट रहे हैं

देश के सत्ताधारी आदिवासी के सवाल और माओवाद को एक आईने से देखते हैं. आदिवासी संघर्ष माओवाद की राजनीति के लिए स्पेस जरूर देते हैं, पर आदिवासी प्रश्न का अर्थ माओवाद नहीं है और आदिवासी होना माओवादी होना नहीं है.