आप जासूस कमाल के हैं, राजा कैसे बन गए

युवाओं की टीम ने जनता का हाल जानने के लिए राजा को कई सारा आइडिया दिया, मगर सब ख़ारिज हो गए. राजा को रात में निकलना पसंद नहीं आ रहा था. राजा ने समझाया कि इस शहर के चप्पे-चप्पे पर उसकी तस्वीर लगी है. इसलिए बाहर निकलते ही पहचाने जाने का ख़तरा है. तभी एक सदस्य ने कहा कि फोन की जासूसी करते हैं.

इस सरकार के झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं

बीते 20 जुलाई को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से राज्यसभा में कहा गया कि कोरोना वायरस संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की अप्रत्याशित मांग के बावजूद किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में इसके अभाव में किसी व्यक्ति के मरने की उसे जानकारी नहीं है. उसके पास इस बात की जानकारी भी नहीं है कि दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलित किसानों में से अब तक कितने अपनी जान गंवा चुके हैं.

पेगासस जासूसी: हम जनतंत्र का भ्रम जी रहे हैं…

जनता जागरूक तभी हो सकती है जब वह बाख़बर हो. पिछले 7 सालों से भारत की जनता के बड़े हिस्से तक पहुंच रखने वाले समाचार-समूहों ने जैसे तय कर लिया है कि वह उसे वो ख़बर नहीं देंगे जो उसके जनतांत्रिक नागरिक के दर्जे पर असर डालने वाली होगी. इतना ही नहीं वे सूचना को विकृत करके जनता तक पहुंचाते हैं.

खून बहने तक खून बहाने के प्रचार पर बात न करना ख़ुद को धोखा देना है…

बीते कुछ दिनों से हरियाणा में एक के बाद एक हो रही महापंचायतें मुस्लिम-विरोधी आह्वानों से गूंज रहीं हैं. देश में मुसलमानों के ख़िलाफ़ भाषाई और शारीरिक हिंसा रोज़ हो रही है, लेकिन नफ़रत का यूं खुला आयोजनपूर्वक प्रचार क्या बिना मक़सद किया जा रहा है? क्या जब बड़ी हिंसा होगी, हत्याएं होंगी, तभी हम जागेंगे?

क्या विश्वविद्यालय विद्यार्थियों के जीवन में अपनी निर्धारित भूमिका निभाने में विफल हो रहे हैं

विश्वविद्यालयों की स्थापना के पीछे सैद्धांतिक रूप से यह विचार कहीं न कहीं ज़रूर था कि ये ऐसी नई पीढ़ी के विकास में सक्षम होंगे, जो सामाजिक बुराइयों व कुरीतियों से मुक्त होगी. पर व्यावहारिक रूप से सामने यह आया कि विश्वविद्यालय इन बुराइयों को समाज से हटा तो नहीं सके, साथ ही ख़ुद इसका शिकार बन गए.

शोक में साथ होना हमें एक करता है…

जब हम उन लोगों के लिए और उनके साथ शोक मनाते हैं जो हमारे धर्म, भाषा और रंग के नहीं होते, तब हम उनकी कमज़ोरी और दुख के साथ ख़ुद को जोड़ते हैं. शोक संवेदना से सहभागिता का जन्म होता है. जब हम किसी के साथ शोक प्रकट करते हैं तो उनके जीवन की ज़िम्मेदारी लेते हैं. यह खोखला काम नहीं हो सकता.

उत्तर प्रदेश: ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा की जीत का हासिल क्या है

ज़िला पंचायत चुनाव में मिली विजय पर फूली न समा रही भाजपा भूल रही है कि ज़िला पंचायत अध्यक्षों के अप्रत्यक्ष चुनाव में जीत किसी भी अन्य अप्रत्यक्ष चुनावों की तरह किसी पार्टी की ज़मीनी पकड़ या लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती. कई बार तो संबंधित पार्टी को इससे मनोवैज्ञानिक बढ़त तक नहीं मिल पाती.

उत्तराखंड: आगे सीएम, पीछे सीएम, बोलो कितने सीएम

उत्तराखंड की स्थापना करने वाली भाजपा के माथे पर सबसे बड़ा दाग़ यह लगा है कि भारी बहुमत से सरकार चलाने के बावजूद उसने दस साल के शासन में राज्य पर सात मुख्यमंत्री थोप डाले. पार्टी की नाकामी यह भी है कि अब तक उसका कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका.

महामहिम, इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं है

उत्तर प्रदेश की तीन दिन की यात्रा के दौरान बीते 25 जून को कानपुर में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की विशेष ट्रेन के गुज़रने के दौरान रोके गए ट्रैफिक से लगे जाम में फंसकर इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के कानपुर चैप्टर की अध्यक्ष वंदना मिश्रा की जान चली गई थी. इसी दिन राष्ट्रपति की सुरक्षा व्यवस्था के लिए जा रहे सीआरपीएफ के तेज़ रफ़्तार वाहन ने एक बाइक को टक्कर मार दी थी, जिससे एक तीन साल की मासूम की मौत हो

क्या भारत में धर्म को लेकर कथनी और करनी में अंतर बना हुआ है

अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर ने भारत में धार्मिकता को लेकर सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की है. रिपोर्ट दिखाती है कि हम भारतीय दूर से सलाम का उसूल मानते हैं. आप हमसे ज़्यादा दोस्ती की उम्मीद न करें, हम आपको तंग नहीं करेंगे जब तक आप अपने दायरे में बने रहें.

जम्मू कश्मीर: किसी की ज़बान काटकर उससे कैसे बात की जाती है, सर्वदलीय बैठक उसकी मिसाल है

सर्वदलीय बैठक को समझने के लिए जम्मू कश्मीर का विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं, मामूली राजनीतिक और नैतिक सहज बोध काफी है. भारत सरकार ने क्यों उन्हीं नेताओं को बुलाया, जिन्हें वह खुद अप्रासंगिक कहती रही है? कारण साफ है. वह ऐसी बैठकों के ज़रिये 5 अगस्त 2019 को उठाए असंवैधानिक कदम को एक तरह की सार्वजनिक वैधता दिलाना चाहती है.

यूएपीए: क्या सुप्रीम कोर्ट ने इंसाफ की तरफ बढ़े क़दमों में फिर ज़ंजीर डाल दी है

दिल्ली हाईकोर्ट के तीन छात्र कार्यकर्ताओं को यूएपीए के मामले में ज़मानत देने के निर्णय को अन्य न्यायालयों द्वारा नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल न करने का आदेश देकर शीर्ष अदालत ने फिर बता दिया कि व्यक्ति की आज़ादी और राज्य की इच्छा में वह अब भी राज्य को तरजीह देती है.

सामाजिक मुद्दों पर हस्तियों की चुप्पी और इंग्लैंड की फुटबॉल टीम का नस्लवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध

इंग्लैंड की फुटबॉल टीम ने यूरो 2020 के दौरान 'ब्लैक लाइव्स मैटर' को समर्थन देने के लिए 'घुटनों पर बैठने' का निर्णय लिया है. खेल जगत के तमाम महानायक और मनोरंजन जगत के सम्राट, जो संवेदनशील मुद्दों पर मौन रहना चुनते हैं, शायद इंग्लैंड की टीम से कुछ सीख ले सकते हैं.

उत्तराखंड में भाजपा ख़ुद के लिए ही क्यों बन गई है​ चुनौती?

उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. हर चुनाव जनमानस में व्याप्त अवधारणा से जीता जाता है. चार साल में अराजक तरीके से जिस तरह से उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार चली, उसके चलते कुछ महीने बाद होने वाले चुनावों में भाजपा की डगमगाती नैया को अकेले तीरथ सिंह रावत कैसे पार लगा पाएंगे?