वीडियो: साहित्यकार प्रेमंचद ने हिंदी साहित्य को ज़मीन पर पांव टिकाना सिखाया और कड़वी ज़मीनी सच्चाई से रूबरू करवाया. 1918 से 1936 के कालखंड को 'प्रेमचंद युग’ कहा जाता है लेकिन यदि उनके समय और आज के समाज की समानताएं देखी जाएं तो लगता है कि प्रेमचंद युग अभी समाप्त ही नहीं हुआ है.
प्रेमचंद महात्मा गांधी की आंदोलन पद्धति के मुरीद थे. सशस्त्र आतंक के ज़रिये क्रांति या मुक्ति के नारे प्रेमचंद का खून गर्म नहीं कर पाते क्योंकि वे हिंसा के इस गुण या अवगुण को पहचानते थे कि वह कभी भी शुभ परिणाम नहीं दे सकती.
जून महीने के आख़िरी हफ्ते में मासिक पत्रिका हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा कि प्रेमचंद यथास्थितिवादी, प्रतिगामी थे और उनकी 25-30 कहानियों को छोड़कर अधिकतर कहानियां ‘कूड़ा’ हैं.
विशेष: प्रेमचंद अगर आज के हालात, ख़ासकर तथाकथित संस्कृति बचाने वालों को देखते, तो शायद अवसाद में चले जाते. उन्हें संस्कृति राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस्तेमाल होने वाला महज़ साधन लगती थी और उनके अनुसार यही तथाकथित संस्कृति, सांप्रदायिकता को भी स्वार्थ पूरे करने के अवसर देती थी.
गिरिराज किशोर द्वारा लिखा गया ‘पहला गिरमिटिया’ नामक उपन्यास महात्मा गांधी के अफ्रीका प्रवास पर आधारित था, जिसने इन्हें विशेष पहचान दिलाई.
कवि, उपन्यासकार, स्तंभकार और लघु कथाओं और यात्रा वृतांतों की लेखिका नवनीता देव सेन को रामायण पर उनके शोध के लिए भी जाना जाता था.
भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक वीएस नायपॉल को 1990 में ‘नाइटहुड’ का सम्मान मिला था और 2001 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा गया था.
प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल बेमानी जान पड़ता है, लेकिन हर दौर में उठता रहा है. अक्सर कहा जाता है कि अब भी भारत में किसान मर रहे हैं, शोषण है, इसलिए प्रेमचंद प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद शायद ऐसी प्रासंगिकता अपनी मृत्यु के 80 साल बाद न चाहते.
वर्दी वाला गुंडा, दुल्हन मांगे दहेज, दहेज में रिवॉल्वर जैसे उपन्यासों के रचयिता वेद प्रकाश शर्मा ने शुक्रवार देर रात दुनिया को अलविदा कह दिया.