जिस समाज को नारों के बिना कुछ सुनाई न पड़े उसके कान नारों से भोथरे भी हो सकते हैं. ज़ोर से बोलते रहना, शब्दों को पत्थर की तरह फेंकना, उनसे वार करते रहना, इससे मन को तसल्ली हो सकती है लेकिन इससे समाज में आक्रामकता बढ़ती है. ‘गर्मियों की रात में कितना अच्छा लगता है उस रास्ते पर चलना, जिस पर मालती ने अपनी गंध छिड़क दी हो… ‘ मैंने अपनी बेटी को यह कविता सुबह सुबह भेजी. उसके नाना
मेरा जीवन क्षणिक है, मैं इस अनंत में एक कण हूं लेकिन मैं हूं और मेरे होने का अर्थ है, अपने बारे में यह नवलजी का विश्वास था और इसका प्रमाण वे तमाम प्रकाशित और अप्रकाशित कृतियां हैं, जिनमें वे जीवित हैं.
विचारधारा की जकड़न से विचारों की स्वतंत्रता की नवल जी की यात्रा कष्टसाध्य रही. उन्हें ख़ुद को ही कई जगह अस्वीकार करना पड़ा. लेकिन चूंकि उनकी प्रतिबद्धता रचनाकार से भी आगे बढ़कर रचना से थी, और विचारधारा से तो कतई नहीं, सो उन्हें ख़ुद को बदलने में संकोच नहीं हुआ.