कोई भी राजनीतिक दल जाति व्यवस्था के अंत का बीड़ा नहीं उठाना चाहता है, न ही कोई सामाजिक आंदोलन इस दिशा में अग्रसर है. बल्कि, जाति आधारित संघों का विस्तार तेज़ी से हो रहा है. यह राष्ट्र एवं समाज के लिए एक घातक संकेत है.
जाति एक ऐसी बाधा है जो एक समाज का निर्माण नहीं होने देती. राष्ट्र बनकर भी नहीं बन पाता क्योंकि हम एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी नहीं होते. एकजुटता या बंधुत्व के अभाव में सामाजिक संपदा का निर्माण भी नहीं हो पाता.
जब कोई फल पक जाता है, तब उसे तोड़ने के लिए सभी लपक पड़ते हैं. उसी तरह आज राजनीति में आंबेडकर चहेते हो गए हैं, लेकिन आंबेडकर दिखने में चाहे जितने आकर्षक हों, अपनाने में उतने ही कठिन हैं. वर्तमान राजनीतिक दल इस बात को जानते हैं इसीलिए वे 14 अप्रैल और 6 दिसंबर पर उनका नाम तो लेते हैं लेकिन उनकी वैचारिक तेजस्विता से डरते हैं.
बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के रेडिकल पक्ष को नज़रअंदाज़ करने के पीछे की राजनीति बहुत पुरानी है. शासक जमातें उत्पीड़ित तबकों से आने वाले नेताओं को सीमित करके प्रस्तुत करती हैं.
जन्मदिन विशेष: भारत के जिस संविधान का भीमराव आंबेडकर को निर्माता कहा जाता है उसके लागू होने के बाद 1952 में हुए देश के पहले लोकसभा चुनाव में वे बुरी तरह हार गए थे.
जन्मदिन विशेष: आज हम अपनी राजनीति में नियमों, नीतियों, सिद्धांतों, नैतिकताओं, उसूलों व चरित्र के जिन संकटों से दो-चार हैं, उनके अंदेशे भीमराव आंबेडकर ने तभी भांप लिए थे.
जिन-जिन चीज़ों के बाबा साहब सख़्त ख़िलाफ़ थे, वो सारे पाखंड किए जा रहे हैं. बाबा साहब को अवतार कहा जा रहा है. यहां तक कि उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक बताया जा रहा है.
बाबा साहब के नाम पर बहुत सारे आयोजन और कर्मकांड हो रहे हैं. लेकिन उनके विचार, उनके लेखन और उनकी रचनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने की कोशिश सिरे से गायब है.