जब तीन दशक पहले यह उपासना स्थल विधेयक संसद में पेश किया गया था, भाजपा ने इसे 'सबसे काला' विधेयक बताया था. उनका दावा था कि यह 'मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान हिंदू मंदिरों पर किए गए सभी अतिक्रमणों को वैध बनाने' का प्रयास करता है. जबकि ग़ैर-भाजपा सांसदों ने इसका समर्थन करते हुए इसे धर्मनिरपेक्षता और सौहार्द्र की रक्षा के लिए अनिवार्य कदम बताया था.
जब तक भारतीय अदालतों को उपासना स्थल अधिनियम, 1991 की भावना का उल्लंघन करने की अनुमति दी जाती रहेगी, तब तक इतिहास के घावों को कुरेदा जाता रहेगा, सद्भाव बिगड़ता रहेगा और खून-खराबा होता रहेगा. हर्ष मंदर के निबंध की पहली क़िस्त.
कई जानकारों का कहना है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने कार्यकाल में (खासकर अंतिम दिनों में) जो कुछ भी कहा व किया, उससे इस बात को ख़ुद अपने ही हाथों निर्धारित कर डाला कि इतिहास उनके प्रति कैसा सलूक करे.
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने दलित-आदिवासी संस्कृति और परंपराओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है, साथ ही यह महत्वपूर्ण प्रश्न भी प्रस्तुत कर दिया हैं कि आरक्षण के प्रावधान के बावजूद जो जातियां और वर्ग अब तक पिछड़े हैं, उनकी उन्नति का उत्तरदायित्व कौन लेगा?
शीर्ष अदालत में दायर याचिका में कहा गया है कि समलैंगिक लोगों, ट्रांसजेंडरों और महिला सेक्स वर्कर्स को रक्तदान से रोकने का दिशानिर्देश संविधान द्वारा निहित समानता और गरिमा के साथ जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.
एक ओर योगेंद्र यादव और बेला भाटिया का कहना है कि इससे आरक्षण का लाभ सर्वाधिक वंचित समुदाय तक पहुंच सकेगा, वहीं, कुछ नेता इसे 'फूट डालो राज करो' की संज्ञा देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने बीते वर्ष 17 अक्टूबर को अपने फैसले में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया था. इसके ख़िलाफ़ दायर की गईं पुनर्विचार याचिकाओं पर अब मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ सुनवाई करेगी.