नैयरा नूर: सरहदों को घुलाती आवाज़

नैयरा नूर की पैदाइश हिंदुस्तान की थी, पर आख़िरी सांसे उन्होंने पाकिस्तान में लीं. वे इन दोनों मुल्कों की साझी विरासत की उन गिनी चुनी कड़ियों में थी, जिन्हें दोनों ही देश के संगीत प्रेमियों ने तहे-दिल से प्यार दिया.

नैयरा नूर: ग़म-ए-दुनिया से घबराकर, तुम्हें दिल ने पुकारा है

स्मृति शेष: नैयरा नूर ग़ालिब और मोमिन जैसे उस्ताद शायरों के कलाम के अलावा ख़ास तौर पर फ़ैज़ साहब और नासिर काज़मी जैसे शायरों की शायरी में जब 'सुकून' की बात करती हैं तो अंदाज़ा होता है कि वो महज़ गायिका नहीं थीं, बल्कि शायरी के मर्म को भी जानती-समझती थीं.

नूरजहां: गाएगी दुनिया गीत मेरे…

मंटो नूरजहां को लेकर कहते थे, 'मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई था. इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग्ज़िश के खड़े रहते हैं.'

आईआईटी कानपुर की जांच समिति ने कहा, फ़ैज़ की नज़्म गाने का समय और स्थान सही नहीं था

आईआईटी कानपुर के छात्रों द्वारा जामिया मिलिया इस्लामिया में हुई दिल्ली पुलिस की बर्बर कार्रवाई और जामिया के छात्रों के समर्थन में फ़ैज अहमद फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे' को सामूहिक रूप से गाए जाने पर फैकल्टी के एक सदस्य द्वारा आपत्ति दर्ज करवाई गई थी.

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का ‘हम देखेंगे’ मज़हब का नहीं अवामी इंक़लाब का तराना है…

जो लोग ‘हम देखेंगे’ को हिंदू विरोधी कह रहे हैं, वो ईश्वर की पूजा करने वाले 'बुत-परस्त' नहीं, सियासत को पूजने वाले ‘बुत-परस्त’ हैं.

‘हम देखेंगे: हर मुल्क़ में फ़ैज़ की इस नज़्म की ज़रूरत है’

वीडियो: आईआईटी कानपुर में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्रों द्वारा मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे' को गाए जाने पर एक फैकल्टी मेंबर ने इसे 'हिंदू विरोधी' बताया और इसकी दो पंक्तियों पर आपत्ति जताई है. इस नज़्म का अर्थ बता रही हैं रेडियो मिर्ची की आरजे सायेमा.

फ़ैज़ की रचना ‘हम देखेंगे’ हिंदू-विरोधी है या नहीं, आईआईटी कानपुर करेगा जांच

17 दिसंबर को आईआईटी कानपुर में जामिया मिलिया इस्लामिया में हुई पुलिस कार्रवाई के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण मार्च में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की 'हम देखेंगे' नज़्म गाई गई थी. एक फैकल्टी मेंबर द्वारा इसे हिंदू विरोधी बताते हुए नज़्म के 'बुत उठवाए जाएंगे' और 'नाम रहेगा अल्लाह का' वाले हिस्से पर आपत्ति उठाई है.

‘हुक्मरां हो गए कमीने लोग, ख़ाक में मिल गए नगीने लोग’

जनता के अधिकारों के लिए सत्ता से लोहा लेने वाले हबीब जालिब ने गांव-देहात को अपने पांव से बांध लिया था और उसी पांव के ज़ख़्म पर खड़े होकर सत्ता को आईना दिखाते रहे.

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: जैसे बीमार को बेवजह क़रार आ जाए…

फ़ैज़ ऐसे शायर हैं जो सीमाओं का अतिक्रमण करके न सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान, बल्कि पूरी दुनिया के काव्य-प्रेमियों को जोड़ते हैं. वे प्रेम, इंसानियत, संघर्ष, पीड़ा और क्रांति को एक सूत्र में पिरोने वाले अनूठे शायर हैं.