पिछले दो-तीन दशकों में ‘सांप्रदायिक चेतना का ग्रामीणीकरण’ हुआ है. परंपरागत भारतीय समाज में हमारे बुज़ुर्गों ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए अपनी एक प्रणाली विकसित की थी.
हमारी बदनसीबी ही है कि जिस सोच ने देश को तीन टुकड़ों में बांट दिया, आज भी हमारे दिमागों में काई की तरह जमी हुई है और सड़ांध फैला रही है.