जनतंत्र तरलता और निरंतर गतिशीलता से परिभाषित होता है. न तो व्यक्ति कभी अंतिम रूप से पूर्ण होता है, न कोई समाज. लेकिन अपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि आप अपने साथ कुछ करते ही नहीं, ख़ुद को पूर्णतर करने का प्रयास लगातार चलता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 31वीं क़िस्त.