संपादकीय: मीडिया की आज़ादी पर हमला

सरकार आलोचनात्मक रुख़ रखने वाले मीडिया का गला घोंटना चाहती है.

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सरकार आलोचनात्मक रुख़ रखने वाले मीडिया का गला घोंटना चाहती है.

Wire Hindi Editorial

कोई चाहे किसी भी नजर से एनडीटीवी के दफ्तरों और इसके प्रमोटर्स के आवासों पर सीबीआई के छापों को देखे, इस निष्कर्ष से बच पाना मुश्किल है कि इनके पीछे बदले की भावना का हाथ है.

यह पहली बार नहीं है जब किसी सरकार ने उसके विपक्ष में खड़े मीडिया का मुंह बंद करने की इतनी भद्दी कोशिश की है और इस तरह संविधान द्वारा दी गई बोलने की आजादी का गला घोंटने का प्रयास किया है, जिस पर हमारा लोकतंत्र टिका है.

1970 के मध्य में जब कांग्रेस पार्टी ने देश में आपातकाल लगाया था, उस वक्त छोटे-मोटे मामलों के आधार पर स्वतंत्र प्रेस को डराने की कोशिशें की गई थीं. उस समय मीडिया और जयप्रकाश नारायण से प्रभावित राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सरकार की इन कोशिशों का पूरी ताकत के साथ मुकाबला किया था.

मीडिया की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले इन भूतपूर्व योद्धाओं में से कुछ इस सरकार में ऊंचे ओहदों पर हैं. इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि वे एक ऐसी सरकार का हिस्सा हैं, जिसके चेहरे पर एनडीटीवी पर इस तरह की घृणित छापेमारी को लेकर रत्तीभर भी पछतावे का भाव नहीं है.

एनडीटीवी देश का सबसे पुराना न्यूज चैनल ही नहीं है, भारतीय टेलीविजन इंडस्ट्री के विकास और इसके रूप को बदलने में भी इसकी उल्लेखनीय भूमिका रही है.

चौंकाने वाली बात यह है कि सीबीआई के छापों के लिए यह बहाना बनाया गया कि एनडीटीवी ने एक निजी बैंक-आईसीआईसीआई को 375 करोड़ रुपये का कर्ज पूरी तरह से न चुका कर उसे नुकसान पहुंचाया था.

यहां सीबीआई द्वारा दायर किये गए केस की तफ़सील में जाये बिना, इस पूरे प्रकरण के बारे में प्रथम दृष्टया कुछ बातें की जा सकती हैं.

सीबीआई की एफआईआर में, जो उसी के मुताबिक एनडीटीवी के एक असंतुष्ट पूर्व कंसल्टेंट की याचिका के आधार पर दायर किया गया है, आरोप लगाया गया है कि एनडीटीवी ने आईसीआईसीआई से लिए गए कर्ज को पूरी तरह से चुकता नहीं किया, जिस वजह से बैंक को 48 करोड़ का नुकसान सहना पड़ा. सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि आईसीआईसीआई (जो एक निजी बैंक है) ने खुद ऐसी कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई है.

दूसरी तरफ एनडीटीवी ने आरोपों को खारिज करते हुए आईसीआईसीआई बैंक का एक लेटर जारी किया है, जिसमें यह प्रमाणित किया गया है कि बकाया राशि का पूरा भुगतान काफी पहले किया जा चुका है.

यहां यह सवाल पैदा होता है कि आखिर एक निजी उद्यम (एनडीटीवी) और एक निजी बैंक के बीच लेन-देन में सीबीआई की इतनी दिलचस्पी क्यों है, खासकर एक ऐसे समय में जब सार्वजनिक बैंकों में दर्जनभर बड़े कॉरपोरेट घरानों के करीब 10 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं, जिन्होंने वर्षों से व्यवस्था को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है और क़र्ज़ की अदायगी को लटकाए रखा है. साफ तौर पर यहां कोई कड़ी गायब है.

एनडीटीवी ने अपने आधिकारिक बयान में कहा है, ‘सीबीआई की प्राथमिकी एनडीटीवी के एक पूर्व असंतुष्ट कंसल्टेंट की बेबुनियाद शिकायत पर आधारित है…जो पिछले कई वर्षों से झूठे आरोप लगाता रहा है और अदालतों में केस दायर करता रहा है, मगर किसी भी कोर्ट ने अब तक उसकी याचिका को स्वीकार नहीं किया है.’

यह वाकई आश्चर्यजनक है कि सीबीआई ने एक ऐसी शिकायत पर कार्रवाई करने का फैसला किया जिसे अतीत में किसी कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया था. ये परिस्थितियां इस तथ्य की ओर इशारा कर रही हैं कि सरकार का मकसद सिर्फ एनडीटीवी की आवाज़ को दबाना है, जिसने खासतौर पर वर्तमान सत्ता के इशारे पर चलने से इनकार कर दिया है.

ये छापे बाकी मीडिया के लिए भी चेतावनी हैं. मौजूदा स्थितियों में उसके पास एकजुट होकर प्रेस की आज़ादी पर ऐसे दिनदहाड़े हमले का मुकाबला करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

इस संदर्भ में एक खुशी की बात यह है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने सीबीआई के छापों पर अपनी गहरी चिंता जताई है. गिल्ड ने मीडिया का मुंह बंद करने की किसी भी कोशिश की भर्त्सना की है और मीडिया के स्वतंत्र कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए एक कानून सम्मत उचित न्यायिक प्रक्रिया की मांग की है.

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