जिस मंडी टैक्स की मंत्री और भाजपा नेता आलोचना कर रहे, उसे वित्त मंत्रालय ने ज़रूरी बताया था

विशेष रिपोर्ट: द वायर द्वारा प्राप्त किए गए आधिकारिक दस्तावेज़ों से पता चलता है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मंडियों में लगने वाले इस तरह के टैक्स को सही ठहराया था और केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इसका समर्थन भी किया था. मंत्रालय ने कहा था कि मंडियों में मिलने वाली सेवाओं के लिए ये राशि वसूली जाती है.

New Delhi: Farmers shout slogans at Singhu border during a protest against the new farm laws, in New Delhi, Friday, Dec. 25, 2020. (PTI Photo/Ravi Choudhary)(PTI25-12-2020 000113B)

विशेष रिपोर्ट: द वायर द्वारा प्राप्त किए गए आधिकारिक दस्तावेज़ों से पता चलता है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मंडियों में लगने वाले इस तरह के टैक्स को सही ठहराया था और केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इसका समर्थन भी किया था. मंत्रालय ने कहा था कि मंडियों में मिलने वाली सेवाओं के लिए ये राशि वसूली जाती है.

दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे पर प्रदर्शनकारी किसान. (फोटो: पीटीआई)
दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे पर प्रदर्शनकारी किसान. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: केंद्र के विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे देशव्यापी आंदोलन के बीच राज्य की कृषि मंडियों में लगने वाले टैक्स को लेकर काफी विवाद खड़ा हुआ है.

सत्ताधारी दल भाजपा के नेताओं एवं मंत्रियों ने नए कानूनों का समर्थन करने के लिए समय-समय पर मंडी टैक्स की आलोचना की है और नए कानून की विशेषताओं को गिनाते हुए इसके तहत इससे निजात दिलाने की बात की है.

विरोध प्रदर्शनों में सिर्फ पंजाब के किसानों के शामिल होने की ओर इशारा करते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने हाल ही में कहा था, ‘पंजाब में मंडी शुल्क 8 फीसद है, जिससे राज्य सरकार और आढ़तियों-बिचौलियों को मोटी कमाई होती है, लेकिन किसान को नुकसान होता है. केंद्र के नए कृषि कानून इस कमाई पर चोट करते हैं, इसलिए बिचौलिये और कुछ राज्य सरकारें किसानों को भड़काकर प्रधानमंत्री की छवि खराब करना चाहती हैं.’

सुशील मोदी का आशय है कि इस टैक्स से राज्य सरकार तथा बिचौलियों एवं आढ़तियों की कमाई हो रही है.

हालांकि द वायर  द्वारा प्राप्त किए गए आधिकारिक दस्तावेजों से पता चलता है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मंडियों में लगने वाले इस तरह के टैक्स को सही ठहराया था और केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इसका समर्थन भी किया था. मंत्रालय ने कहा था कि मंडियों में मिलने वाली सेवाओं के लिए ये राशि वसूली जाती है.

कृषि संकट के समाधान के लिए साल 2004 में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग, जिसे स्वामीनाथन आयोग के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी सिफारिशों में राज्यों को कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) व्यवस्था में तत्काल सुधार करने के लिए कहा था.

इसी क्रम में आयोग ने ये भी कहा था कि एपीएमसी एक्ट या नियमों के तहत बाजार शुल्क, जिसे आमतौर पर मंडी टैक्स कहा जाता है, लेने के प्रावधान पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए और राज्य अगर चाहें तो वे इसकी जगह पर सर्विस चार्ज लगा सकते हैं, जिसकी वसूली किसानों द्वारा सेवाओं के इस्तेमाल के आधार पर होगी और इसके तहत अनिवार्य वसूली से बचा जा सकेगा. आयोग ने कहा था कि इससे ‘एक राष्ट्रीय बाजार’ बनाने में मदद मिलेगी.

इस सिफारिश को प्रमुखता देते हुए सरकार ने साल 2007 में इसे ‘राष्ट्रीय किसान नीति’ की 201 सिफारिशों में शामिल किया, जिसे कृषि मंत्रालय ने लागू करने की योजना बनाई थी.

हालांकि दस्तावेज दर्शाते हैं कि वित्त मंत्रालय ने कहा था कि मंडियों में इस तरह की राशि की वसूली उचित है, क्योंकि इसके बदले में लोगों को वहां पर सुविधाएं प्रदान की जाती हैं.

वित्त मंत्रालय ने कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय को भेजे अपने पत्र में कहा, ‘बाजार शुल्क (मार्केट फीस) कोई टैक्स नहीं है और संबंधित एपीएमसी इस राशि के बदले में मंडियों में सुविधाएं प्रदान करते हैं.

विभाग ने आगे ये भी कहा कि सरकार जीएसटी के रूप में टैक्स सुधार पर विचार कर रही है, जिसके तहत देश भर में कृषि उत्पादों पर एक तरह का शुल्क वसूलने का प्रावधान किया जाएगा. जीएसटी आने के बाद से इस तरह के शुल्क में कमी भी आई है.

खास बात ये है कि कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने इस प्रावधान का समर्थन किया था और इसी की तर्ज पर नवंबर 2007 में राज्यों को मॉडल एपीएमसी नियमों को भेजा था.

यह कृषि उत्पादों पर बाजार शुल्क वसूलने का प्रावधान करता है. इसी आधार पर 16 राज्यों ने अपने एपीएमसी एक्ट में संशोधन किया और चार राज्यों ने आंशिक संशोधन किया था. सात राज्यों में एपीएमसी एक्ट नहीं है.

स्वामीनाथन आयोग ने 29 दिसंबर 2005 को सौंपे अपनी तीसरे रिपोर्ट में कहा था, ‘सरकार को कृषि उत्पादों पर बाजार मूल्य एवं कई सेवाओं जैसे कि लोडिंग, अनलोडिंग, तौलना इत्यादि पर लगने वाले चार्ज को खत्म करने की जरूरत है. इसकी जगह पर मंडी में तमाम सुविधाओं के इस्तेमाल के लिए सिर्फ एक सर्विस चार्ज होना चाहिए.’

सिर्फ एक तरह का चार्ज वसूलने की वकालत करते हुए आयोग ने कहा था कि अलग-अलग शुल्क के चलते कई बार एक ही उत्पाद पर दो बार टैक्स लग जाता है. यह न सिर्फ दो राज्यों के बीच बल्कि राज्य के भीतर ही एक मंडी से दूसरी मंडी के बीच व्यापार में व्यवधान खड़ा करता है.

कहां कितना मंडी टैक्स लगता है

मंडी टैक्स को लेकर एक बड़ा भ्रम ये फैलाया जा रहा है कि अभी तक किसान को मंडियों में अपने उत्पाद बेचने के लिए टैक्स देना पड़ता था, इसलिए नया कानून उनको इससे निजात दिलाएगा.

हालांकि ये बात सही नहीं है. मंडियों में ट्रेडर्स यानी कि खरीददारों (सरकारी एवं प्राइवेट) को ही मार्केट फीस/मंडी चार्ज, ग्रामीण विकास फीस और कमीशन (बिचौलियों के चार्ज) देना पड़ता है.

भारत सरकार की एजेंसी भारतीय खाद्य निगम के मुताबिक, पंजाब में 8.5 फीसदी और हरियाणा में 6.5 फीसदी मंडी टैक्स लगता है. इसमें से पंजाब में तीन फीसदी मार्केट फीस, तीन फीसदी ग्रामीण विकास फीस और 2.5 फीसदी कमीशन चार्ज होता है.

mandi tax wheat
(स्रोत: कृषि लागत एवं मूल्य आयोग)

वहीं हरियाणा में दो फीसदी मार्केट फीस, दो फीसदी ग्रामीण विकास फीस और 2.5 फीसदी कमीशन चार्ज लगता है.

इसी तरह इस साल गेहूं खरीदी के समय राजस्थान में 3.6 फीसदी का मंडी टैक्स लगा था. इसके साथ ही प्रति क्विंटल गेहूं खरीदी पर 27 रुपये सोसायटी को कमीशन देना पड़ा था.

इसके अलावा उत्तर प्रदेश में गेहूं खरीदी के लिए 2.5 फीसदी और मध्य प्रदेश में 2.2 फीसदी का मंडी टैक्स लगा था.

इसी तरह अगर धान खरीदी की बात करें तो पंजाब और हरियाणा में गेहूं की तरह ही 8.5 फीसदी और 6.5 फीसदी मंडी टैक्स लगता है.

वहीं पिछले साल (2019-20) धान खरीदी के दौरान उत्तर प्रदेश में 2.5 फीसदी, मध्य प्रदेश में 2.2 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 2.2 फीसदी, महाराष्ट्र में 1.05 फीसदी, आंध्र प्रदेश में एक फीसदी का मंडी टैक्स लगाया गया था. इसके साथ ही इन राज्यों में प्रति क्विंटल धान पर करीब 32 रुपये सोसायटी को कमीशन भी देना होता है.

mandi tax paddy
(स्रोत: कृषि लागत एवं मूल्य आयोग)

केरल में सबसे कम 0.07 फीसदी का मंडी टैक्स लगाया गया था. वहीं कर्नाटक में कृषि उत्पादों पर 3.5 फीसदी कमीशन चार्ज लगता है.

मालूम हो कि केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए कृषि से संबंधित तीन विधेयकों– किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020, किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्‍य आश्‍वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 और आवश्‍यक वस्‍तु (संशोधन) विधेयक, 2020- के विरोध में पिछले करीब एक महीने से किसान दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे हैं.

किसानों को इस बात का भय है कि सरकार इन कानूनों के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने की स्थापित व्यवस्था को खत्म कर रही है और यदि इसे लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा.

दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली मोदी सरकार ने बार-बार इससे इनकार किया है. सरकार इन कानूनों को ‘ऐतिहासिक कृषि सुधार’ का नाम दे रही है. उसका कहना है कि वे कृषि उपजों की बिक्री के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था बना रहे हैं.

नए कानून के मुताबिक, एपीएमसी मंडियों के बाहर खरीद-बिक्री के बाद कोई टैक्स नहीं देना होगा. हालांकि किसानों का कहना है कि सरकार द्वारा कोई टैक्स लगाने से छूट देने पर प्राइवेट बाजार अपने मन-मुताबिक टैक्स लगाएंगे, जो कि पूरी संभावना है कि ये ट्रेडर और कंपनियों के ही हित में होगा.

इसे लेकर प्रदर्शन के बाद कृषि मंत्रालय ने कहा है कि एपीएमसी के बाहर निजी बाजारों पर राज्यों को कर लगाने की अनुमति दी जा सकती है.

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