उत्तराखंड में बन रहे पंचेश्वर बांध से 122 गांव डूब जाएंगे. यहां रहने वाले लोगों को सरकारों की चाहत से ही उजड़ना है और सरकारों के कहे पर ही कहीं और बस जाना है.
नदियों के बहने के किस्से कई सदियों के हैं. जब से नदियां हैं तब से. जब नदी नहीं होगी तब भी नदी को बहने से ही याद किया जाएगा. उनका बहना ही उनका नदी होना है. उन्हें बांध देने के किस्से बस कुछ ही बरस पुराने हैं.
नेहरू ने इसी बंधी हुई नदी को आधुनिक मंदिर कहा था. क्योंकि प्रधानमंत्री ने कहा था इसलिए अब बांध हमारे मंदिर हैं. अब जबकि प्रधानमंत्री के कहे हुए को न मानना देशद्रोह होने लगा है. ऐसे में पहले प्रधानमंत्री के कहे हुए को न मानना और भी पुराना देशद्रोह होना चाहिए.
हम जो आधुनिक सुविधाओं के साथ जीते हैं उनके उजाले यहीं, इन्हीं आधुनिक मंदिरों से आते हैं. हमारे सुख सुविधाओं के साथ जीने के लिए कई गांवों को जाना पड़ता है. अपनी वर्षों की ज़मीन को छोड़कर उन्हें कहीं और बसना पड़ता है. अपने घरों से उन्हें उजड़ना पड़ता है.
फिलवक्त हम जिस बल्ब की रोशनी में पढ़ रहे होते हैं. किसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे होते हैं. एक नदी वहीं रुक रही होती है. कई गांव उसमें डूब रहे होते हैं.
यहीं, कई लोग अपने गांव और घर डूबने की फिक्र में डूब रहे होते हैं. उन्हें विस्थापित कर दिया जाता है. उन्हें कहीं और स्थापित कर दिया जाता है. उन्हें नई स्मृतियां बनानी होती हैं.
विस्थापित हुए घर के नए पते के साथ उन्हें पता चलता है कि घर और ज़मीन के साथ उनका और भी बहुत कुछ डूब गया. कोई सरकार उसका कोई मुआवज़ा नहीं देती. पड़ोसी गांव जो नहीं डूबे उनके साथ रोज़मर्रा के रिश्ते डूब गए.
सरकार के पास रिश्ते डूबने का कोई मुआवज़ा नहीं होता. सरकार के पास बहुत कुछ डूबने का कोई मुआवज़ा नहीं होता. सरकारें किन्हीं और चीजों में डूबी होती हैं. जब सरकारें बदलती हैं तो पिछली सरकार किन-किन चीज़ों में डूबी थी उसका कुछ-कुछ पता चल पाता है या नहीं भी पता चल पाता.
बांध आधुनिक मंदिर हैं. विशाल बांध और बड़े मंदिर हैं. उत्तराखंड देवों की भूमि है. आधुनिक मंदिरों की भूमि भी वही बन रही है. प्राचीनता से आधुनिकता का और आधुनिकता से आपदा का यह फैलाव है.
अब तक का सबसे बड़ा आधुनिक मंदिर टिहरी बांध था. अब उससे भी बड़ा पंचेश्वर बांध बनाया जाने वाला है. यह एशिया का सबसे बड़ा और दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचाई पर बनने वाला बांध होगा. यह सच में विशाल है. आधुनिकता में यही विकास है. कुछ को उजाड़ देना और कुछ को उजाला देना. यह बांध दो मुल्क की सरहदों पर बनेगा.
भारत-नेपाल के बीच जो महाकाली नदी (भारत में शारदा नदी कहते हैं) सरहद बनाती है. वहां बांध बनेगा. वहीं झील बनेगी. वहां से बिजली पैदा होगी. इसकी क्षमता तकरीबन 5 हज़ार मेगावाट की होगी. परियोजना से जो बिजली पैदा होगी वह दोनों मुल्कों में बंटेगी. 50 हज़ार करोड़ की लागत से बनने वाले इस पंचेश्वर बांध की ऊंचाई 315 मीटर होगी.
इतनी ऊंचाई में जलभराव से 122 गांव डूब जाएंगे. 30 हज़ार से ज़्यादा लोग सरकारी आदेशों का पालन करते हुए कहीं और चले जाएंगे, जहां सरकार उन्हें बसाना चाहेगी. उन्हें सरकारों की चाहत से ही उजड़ना है और सरकारों के कहे पर ही बस जाना है.
बांधों के बनने और लोगों के उजड़ने में महाकाली का यह एक और इलाका शामिल हो जाएगा. जब भी बांध बनता है. लोगों के गांव डूबते हैं और उन्हें उनके गांवों से हटाया जाता है तो लोग ख़िलाफत करते हैं. पर उन्हें हटा दिया जाता है. कई बार उन्हें कहीं और बसा दिया जाता है.
कई बार उनमें से कुछ को नौकरियां भी दे दी जाती हैं. विस्थापन के बाद उन्हें पता चलता है कि जिसे वे अपनी ज़मीन समझते थे. जो उनका अपना गांव था. जो उनके अपने नदी नाले थे. वे सब उनके नहीं थे. दुनिया की समूची आबादी के पास जो उनका है वह उनका नहीं होता.
सरकारें सबसे ज़्यादा ताकतवर हैं. सरकारें जिनके लिए काम करती हैं वे और भी ज़्यादा ताकतवर हैं. वे बहुत कम हैं पर बहुत अमीर हैं. उन्हें हर रोज़ बहुत सारी बिजली चाहिए. वे सरकार से बिजली मांगते हैं.
सरकार नदियों को रोकती है. गांवों को उजाड़ती है और बांध बनाकर उन्हें बिजली देती है. वे बिजली से कंपनियां चलाते हैं. कंपनियों में सामान बनाते हैं. सामानों से मुनाफा कमाते हैं और एक और कंपनी लगाते हैं. फिर उन्हें और बिजली चाहिए होती है.
उनकी चाहतें अभी बहुत बची हुई हैं. अभी बहुत बांध बनने बचे हुए हैं. अभी बहुत गांव उजड़ने के लिए बचे हुए हैं. जबकि छह करोड़ से ज़्यादा आबादी अभी तक बांधों के बनने से विस्थापित हो चुकी है.
बिजली ज़रूरी है. बिजली की ज़रूरत बहुत कम है. जितनी बिजली देश में बनती है घरों में उसका 25% से भी कम प्रयोग होता है. बहुत बड़ा हिस्सा देश की कंपनियों को जाता है.
ऐसे में महाकाली पर बनने वाला पंचेश्वर बांध विस्थापितों की संख्या में कुछ और संख्या जोड़ देगा. पश्चिमी नेपाल और भारत के पिथौरागढ़ इलाके से 30 हज़ार से ज़्यादा परिवारों को अपने गांवों से जाना पड़ेगा.
महाकाली के दोनों किनारों पर बसे लोगों को ये सब आंकड़े नहीं पता. उन्हें नहीं पता कि बिजली किसके लिए बनाई जा रही है. उन्हें नहीं पता कि उन्हें कहां बसाया जाएगा. यह बात उन तक पहुंच गई है कि यहां गांव में झील बननी है और उन्हें हटाया जाएगा.
इसी महीने 11 अगस्त से जन सुनवाई शुरू होनी है. जन सुनवाई के बारे में भी उन्हें ख़बर नहीं है जिनके घर डूबने हैं. अपनी बात कहने के लिए गांव के लोगों को जिला मुख्यालय तक आना होगा.
तकरीबन 50-100 किमी. की पहाड़ी रास्ते की दूरी और बारिश के मौसम में उन्हें आना है. गांव के लोग अपनी बात कह सकते हैं पर सरकार अपनी बात कह चुकी है.
विस्थापित होने वालों के लिए मुआवज़ा ही एकमात्र सहारा है. पिथौरागढ़ उत्तराखंड का एक पिछड़ा इलाका है. कहा यह भी जा सकता है कि सरकार ने बीते कई सालों में सुविधाएं न देकर इसे और पिछाड़ दिया है.
वे सभी इलाके पिछड़े हुए होते हैं जो दूर जंगलों में होते हैं, जो दूर पहाड़ों पर होते हैं. उनके पास अकूत प्राकृतिक संपदाएं होती हैं. उनके जंगल फलों और खेतों से हरे होते हैं. अक्सर प्राकृतिक संपदाओं से अगड़े हुए इलाके ही पिछड़े हुए इलाके कहे जाते हैं. हमारी सरकारों के पास विविधता भरे देश के लिए विविधता भरा मॉडल नहीं है.
उसके पास एक ही मॉडल है कि चौड़ी सड़क और विशाल घरों से शहर खड़ा कर देना. गांवों को शहर की तरफ ढकेल देना. बीते सत्तर वर्षों में सभी सरकारों की उपलब्धि यही रही है कि वे लोगों से गांवों को खाली करवा रही हैं.
लोगों को भगा रही हैं. लोग भाग रहे हैं और किसी शहर में रुक जा रहे हैं या कहीं नहीं रुक रहे हैं. खनन कम्पनियों, बांधों, कोल माइंस के ज़रिये लोगों का अलग से विस्थापन हो रहा है. सत्तर सालों का यह देश एक भगदड़ भरा देश है.
लोगों की ज़िंदगी, जमीन और ज़ेहन से स्थिरता को मिटाया जा रहा है. उत्तराखंड में टिहरी का विस्थापन एक नमूना है. पंचेश्वर एक नमूना बनेगा.
कम आबादी वाले पहाड़ों में बहुत कम आबादी वाले दलितों की यहां बहुत ज़्यादा आबादी है. उनके पास ज़मीनें कम होती हैं. विस्थापन इन्हीं ज़मीनों के आधार पर किया जाना है.
मुआवज़े इन्हीं ज़मीनों के आधार पर मिलने हैं. जिसके पास जितनी ज़मीनें होंगी उसे उतना ज़्यादा मुआवजा मिलेगा. इन दलित समुदाय के लोगों को मुआवज़े के नाम पर बहुत कम मिलेगा.
नदी से हर रोज़ मछली पकड़ कर बेचने के बदले का कोई मुआवज़ा नहीं होता. जंगल से पत्तल बनाने, लकड़ी से बर्तन बनाने के हक छीन लिए जाएंगे. उसका कोई मुआवजा नहीं मिलना है. अलबत्ता उनके परिवार में से किसी एक को नौकरी मिलेगी. कम पढ़े-लिखे को कम पढ़ी-लिखी वाली नौकरी.
नीले पानी वाली महाकाली नदी उनके लिए रोज़गार गारंटी से पहले वाली रोज़गार गारंटी है. बहुत वर्षों से और कई पीढ़ियों से वह उनका रोज़गार है.
महाकाली के किनारे बसने वाले वनराजियों के लिए भी नदी और जंगल ही रोज़गार हैं. वे इसी के पत्थर से कुछ बना लेते थे. वे इसी के पानी से मछलियां निकाल लेते थे. यहीं जंगलों से लकड़ी निकाल वे बर्तन बनाते हैं. वे रह लेते हैं बगैर नौकरी के. अब उन्हें रहना पड़ेगा नौकरी करते हुए.
पूरे परिवार को नौकरी नहीं मिलनी है. कोई एक नौकरी करेगा, पूरे परिवार को उस पर आश्रित रहना पड़ेगा. यहां के लोग भारत से ज़्यादा नेपाल के साथ पुस्तैनी संबंधों से जुड़े हैं.
पश्चिमी नेपाल के साथ उनके रिश्ते इस तरह के हैं कि बाकी का पूरा भारत उन्हें नेपाली ही समझता है. वे नेपाल को नेपाल नहीं कहते. नेपाल उनके लिए कभी दूसरा मुल्क नहीं रहा. वह काली पार का इलाका है बस. उनके त्योहार भी साथ-साथ होते. उनके देवता भी आसपास होते है. अपने देवताओं को पूजने वे कालीपार चले जाते. यह किसी गैर मुल्क जाने की तरह नहीं होता. महाकाली उनके गीतों में है. महाकाली नेपाली गीतों में है.
वे कहते हैं कि नेपाली ही उनके अपने हैं. राष्ट्र से ज़्यादा मज़बूत रोजमर्रा की वह ज़िंदगी होती है जिनके साझा सहारे से कोई समाज जीता है. नेपाल के लोग जब मज़दूर बनकर कालीपार से आते हैं तो वे अपने पैसे उनके घरों में सहेज देते. लौटते वक्त वे पैसे वापस ले जाते. उनके बीच का यह भरोसा है.
बांध से बनी सैकड़ों किलोमीटर चौड़ी झील उनके इस रिश्ते में दूरी पैदा करेगी. गांव के लोगों ने जनसुनवाई के बहिष्कार की बात की है. वे अपना गांव नहीं छोड़ना चाहते.
उनका कहना है कि महाकाली नदी नहीं उनकी मां है. जबकि सरकार ने एक ही नदी और एक ही जानवर को मां की मान्यता दी है. मनुष्य का दर्जा दिया है. शायद गाय और गंगा के अलावा किसी और नदी को मां कहना देशद्रोह न हो जाए.
(लेखक जेएनयू में फेलो हैं.)