ग़ुलाम मीडिया के रहते कोई मुल्क आज़ाद नहीं होता…

डिजिटल मीडिया आज़ाद आवाज़ों की जगह है और इस पर ‘सबसे बड़े जेलर’ की निगाहें हैं. अगर यही अच्छा है तो इस बजट में प्रधानमंत्री जेल बंदी योजना लॉन्च हो, मनरेगा से गांव-गांव जेल बने और बोलने वालों को जेल में डाल दिया जाए. मुनादी की जाए कि जेल बंदी योजना लॉन्च हो गई है, कृपया ख़ामोश रहें.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

डिजिटल मीडिया आज़ाद आवाज़ों की जगह है और इस पर ‘सबसे बड़े जेलर’ की निगाहें हैं. अगर यही अच्छा है तो इस बजट में प्रधानमंत्री जेल बंदी योजना लॉन्च हो, मनरेगा से गांव-गांव जेल बने और बोलने वालों को जेल में डाल दिया जाए. मुनादी की जाए कि जेल बंदी योजना लॉन्च हो गई है, कृपया ख़ामोश रहें.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

डियर जेलर साहब,

भारत का इतिहास इन काले दिनों की अमानत आपको सौंप रहा है. आज़ाद आवाज़ों और सवाल करने वाले पत्रकारों को रात में ‘उनकी’ पुलिस उठा ले जाती है. दूरदराज़ के इलाक़ों में एफआईआर कर देती है. इन आवाज़ों को संभालकर रखिएगा.

अपने बच्चों को वॉट्सऐप चैट में बताइएगा कि सवाल करने वाला उनकी जेल में रखा गया है. बुरा लग रहा है लेकिन मेरी नौकरी है. जेल भिजवाने वाला कौन है, उसका नाम आपके बच्चे खुद गूगल सर्च कर लेंगे.

जो आपके बड़े अफ़सर हैं आईएएस और आईपीएस, अपने बच्चों से नज़रें चुराते हुए उन्हें पत्रकार न बनने के लिए कहेंगे. समझाएंगे कि मैं नहीं तो फलां अंकल तुम्हें जेल में बंद कर देंगे. ऐसा करो तुम ग़ुलाम बनो और जेल से बाहर रहे.

भारत माता देख रही हैं, गोदी मीडिया के सिर पर ताज पहनाया जा रहा है और आज़ाद आवाज़ें जेल भेजी जा रही हैं.

डिजिटल मीडिया पर स्वतंत्र पत्रकारों ने अच्छा काम किया है. किसानों ने देखा है कि यूट्यूब चैनल और फेसबुक लाइव से किसान आंदोलन की ख़बरें गांव-गांव पहुंची हैं. इन्हें बंद करने के लिए मामूली गलतियों और अलग दावों पर एफआईआर किया जा रहा है.

आज़ाद आवाज़ की इस जगह पर ‘सबसे बड़े जेलर’ की निगाहें हैं. जेलर साहब आप असली जेलर भी नहीं हैं. जेलर तो कोई और है. अगर यही अच्छा है तो इस बजट में प्रधानमंत्री जेल बंदी योजना लॉन्च हो, मनरेगा से गांव-गांव जेल बने और बोलने वालों को जेल में डाल दिया जाए.

जेल बनाने वाले को भी जेल में डाल दिया जाए. उन जेलों की तरफ देखने वाला भी जेल में बंद कर दिया जाए. मुनादी की जाए कि प्रधानमंत्री जेल बंदी योजना लॉन्च हो गई है. कृपया ख़ामोश रहें.

सवाल करने वाले पत्रकार जेल में रखे जाएंगे तो दो बातें होंगी. जेल से अख़बार निकलेगा और बाहर के अख़बारों में चाटुकार लिखेंगे. विश्व गुरु भारत के लिए यह अच्छी बात नहीं होगी.

जेल की दीवारें आज़ाद आवाज़ों से ऊंची नहीं हो सकती हैं. जो अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा लगाना चाहते है वो देश को जेल में बदलना चाहते हैं.

मेरी गुज़ारिश है कि सिद्धार्थ वरदराजन, राजदीप सरदेसाई, अमित सिंह सहित सभी पत्रकारों के ख़िलाफ़ मामले वापस लिए जाएं. मनदीप पुनिया को रिहा किया जाए. एफआईआर का खेल बंद हो.

मेरी एक बात नोटकर पर्स में रख लीजिएगा. जिस दिन जनता यह खेल समझ लेगी उस दिन देश के गांवों में ट्रैक्टरों, बसों और ट्रकों के पीछे, हवाई जहाज़ों, बुलेट ट्रेन, मंडियों, मेलों, बाज़ारों और पेशाबघरों की दीवारों पर यह बात लिख देगी.

‘ग़ुलाम मीडिया के रहते कोई मुल्क आज़ाद नहीं होता है. गोदी मीडिया से आज़ादी से ही नई आज़ादी आएगी.’

(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)

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