भारत में 2014-19 के बीच राजद्रोह के 326 मामले दर्ज हुए, महज़ छह लोगों को मिली सज़ा

केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, राजद्रोह के इन मामलों में से 141 में आरोप-पत्र दायर किए गए, जबकि छह साल की अवधि के दौरान इस अपराध के लिए महज छह लोगों को दोषी ठहराया गया. सबसे अधिक 54 मामले असम में दर्ज किए गए, लेकिन एक भी मामले में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया. मंत्रालय ने अभी तक 2020 के आंकड़े एकत्रित नहीं किए हैं.

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(फोटो: रॉयटर्स)

केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, राजद्रोह के इन मामलों में से 141 में आरोप-पत्र दायर किए गए, जबकि छह साल की अवधि के दौरान इस अपराध के लिए महज छह लोगों को दोषी ठहराया गया. सबसे अधिक 54 मामले असम में दर्ज किए गए, लेकिन एक भी मामले में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया. मंत्रालय ने अभी तक 2020 के आंकड़े एकत्रित नहीं किए हैं.

(फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: राजद्रोह पर औपनिवेशिक काल के विवादित दंडात्मक कानून के तहत 2014 से 2019 के बीच 326 मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें से महज छह लोगों को सजा दी गई है.

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते आईपीसी की धारा 124 ए (राजद्रोह) का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए केंद्र से पूछा था कि आजादी के 75 साल बाद इसे बनाए रखना क्यों जरूरी है, जबकि अन्य पुराने कानूनों को निरस्त कर रहे हैं.

केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह कानून के तहत कुल 326 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से सबसे अधिक 54 मामले असम में दर्ज किए गए. इन मामलों में से 141 में आरोप-पत्र दायर किए गए, जबकि छह साल की अवधि के दौरान इस अपराध के लिए महज छह लोगों को दोषी ठहराया गया.

अधिकारियों ने बताया कि गृह मंत्रालय ने अभी तक 2020 के आंकड़े एकत्रित नहीं किए हैं. असम में दर्ज किए गए 54 मामलों में से 26 में आरोप-पत्र दाखिल किए गए और 25 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई. हालांकि, राज्य में 2014 और 2019 के बीच एक भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

झारखंड में छह वर्षों के दौरान आईपीसी की धारा 124 ए के तहत 40 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से 29 मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए और 16 मामलों में सुनवाई पूरी हुई, जिनमें से एक व्यक्ति को ही दोषी ठहराया गया.

हरियाणा में राजद्रोह कानून के तहत 31 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से 19 मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए और छह मामलों में सुनवाई पूरी हुई, जिनमें महज एक व्यक्ति की दोषसिद्धि हुई.

बिहार, जम्मू कश्मीर और केरल में 25-25 मामले दर्ज किए गए. बिहार और केरल में किसी भी मामले में आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया जा सका, जबकि जम्मू कश्मीर में तीन मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए. हालांकि तीनों राज्यों में 2014 से 2019 के बीच किसी भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

कर्नाटक में राजद्रोह के 22 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 17 मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए, लेकिन सिर्फ एक मामले में सुनवाई पूरी की जा सकी. हालांकि, इस अवधि में किसी भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

उत्तर प्रदेश में 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के 17 मामले दर्ज किए गए और पश्चिम बंगाल में आठ मामले दर्ज किए गए. उत्तर प्रदेश में आठ और पश्चिम बंगाल में पांच मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए लेकिन दोनों राज्यों में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

दिल्ली में 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के चार मामले दर्ज किए गए, लेकिन किसी भी मामले में आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया गया.

मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप, पुदुचेरी, चंडीगढ़, दमन और दीव, दादरा और नागर हवेली में छह वर्षों में राजद्रोह का कोई मामला दर्ज नहीं किया गया. तीन राज्यों महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तराखंड में राजद्रोह का एक-एक मामला दर्ज किया गया.

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2019 में सबसे अधिक राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए. इसके बाद 2018 में 70, 2017 में 51, 2014 में 47, 2016 में 35 और 2015 में 30 मामले दर्ज किए गए.

देश में 2019 में राजद्रोह कानून के तहत 40 आरोप-पत्र दाखिल किए गए जबकि 2018 में 38, 2017 में 27, 2016 में 16, 2014 में 14 और 2015 में छह मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए.

जिन छह लोगों को दोषी ठहराया गया, उनमें से दो को 2018 में तथा एक-एक व्यक्ति को 2019, 2017, 2016 और 2014 में सजा सुनाई गई. साल 2015 में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

बता दें कि बीते 15 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह संबंधी ‘औपनिवेशिक काल’ के दंडात्मक कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त हुए केंद्र से पूछा था कि वह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रहा है, जबकि अन्य पुराने कानूनों को समाप्त कर रही है.

सीजेआई एनवी रमना की पीठ ने कहा था, ‘श्रीमान अटॉर्नी (जनरल), हम कुछ सवाल करना चाहते हैं. यह औपनिवेशिक काल का कानून है और ब्रितानी शासनकाल में स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए इसी कानून का इस्तेमाल किया गया था. ब्रितानियों ने महात्मा गांधी, गोखले और अन्य को चुप कराने के लिए इसका इस्तेमाल किया था. क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसे कानून बनाए रखना आवश्यक है?’

इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने बीते मई महीने में कहा था कि वह विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा करेगा.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)