ऐसी क़र्ज़माफ़ी करके योगी सरकार किसानों के जख़्मों पर नमक रगड़ रही है

उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने फसल ऋण योजना के तहत किसी किसान के 9 पैसे तो किसी के 84 पैसे का क़र्ज़ माफ़ किया है.

उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने फसल ऋण योजना के तहत किसी किसान के 9 पैसे तो किसी के 84 पैसे का क़र्ज़ माफ़ किया है.

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(फोटो: पीटीआई)

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में गत मार्च में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से सत्ता में आई भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार छह महीने की होते-होते ही बुरी तरह हांफने लगेगी, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो.

लेकिन उसके दुर्भाग्य से इस कल्पनातीत सच्चाई ने, उसके छह महीने पूरे होने से पहले ही ऐसा रूप धर लिया है कि एक के बाद एक बदनामियां बरबस उससे लिपटी जा रही हैं.

गोरखपुर स्थित मेडिकल कॉलेज में मासूमों की मौतों को लेकर सोती पकड़ी जाने और उससे जुड़े स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह के ‘अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं’ जैसे संवेदनहीन बयान की शर्म तो अभी इस सरकार से लिपटी ही हुई थी, उसकी बहुप्रचारित किसान ऋणमोचन योजना भी एक बड़े मजाक में बदलकर नेकनामी के बजाय बदनामी की वाहक बन गई है. हालांकि अभी उसका पहला ही चरण पूरा हुआ है.

सरकार की ओर से कहा गया था कि इस योजना के तहत लघु एवं सीमान्त किसानों के एक लाख रुपये तक के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे, लेकिन अब वह अपने मंत्रियों को जिले-जिले भेजकर समारोहपूर्वक ऋणमोचन प्रमाणपत्र बंटवा रही है तो उससे ‘लाभान्वित’ किसानों में अनेक ऐसे हैं, जिनमें किसी के प्रमाणपत्र में एक रुपये की माफी दर्ज है तो किसी के प्रमाणपत्र में डेढ़ रुपये की.

इटावा में अहेरीपुर के एक किसान को, जिसने 28 हजार रुपये का कर्ज लिये थे, एक रुपये 80 पैसे की माफी मिली है, जबकि मुकुटपुर के 2 लाख से ज्यादा के कर्जदार किसान के डेढ़ रुपये माफ हुए हैं. बिजनौर की बलिया देवी के हिस्से में तो सिर्फ नौ पैसे की माफी आई है.

हमीरपुर में आयोजित समारोह में श्रम एवं रोजगार मंत्री ने मुन्नीलाल नामक किसान को ऋणमोचन प्रमाण-पत्र सौंपा तो उसमें रुपये 215.03 की माफी दर्ज थी, जबकि उसकी बैंक पासबुक पचास हजार रुपयों का ऋण दिखा रही थी.

उसने शिकायत की तो मंत्री ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि यह टाइपिंग की गलती है, लेकिन यह साफ होते देर नहीं लगी कि मामला टाइपिंग की गलती का नहीं है. मिर्जापुर में तो किसानों ने सरकार के इस धोखे के खिलाफ प्रदेश के वित्तमंत्री राजेश अग्रवाल के सामने ही जमकर हंगामा किया.

अब सरकार की ओर से इसकी कई और तरह की सफाइयां दी जा रही हैं लेकिन वे किसी के गले नहीं उतर रहीं. अलबत्ता, प्रबुद्ध व जागरूक किसान इसके लिए प्रदेश सरकार को कम, उस प्रशासनिक ढर्रे को ज्यादा कोस रहे हैं जो आमतौर पर उनके हितों के खिलाफ ही सक्रिय रहता है और जो सरकार बदलने पर भी नहीं बदलता.

पिछली अखिलेश सरकार के दौरान सूखा पड़ा तो किसानों को सूखा राहत के चेक भी ऐसे ही दस-दस बीस-बीस और सौ या डेढ़ सौ रुपयों के मिले थे. तब कहा गया था कि लेखपालों द्वारा फसलों की क्षति के संवेदनहीन मूल्यांकन के कारण ऐसा हुआ था और अब नौ-दस पैसे व रुपये-डेढ़ रुपये की कर्जमाफी के पीछे बैंकों के अधिकारियों का खेल बताया जा रहा है. लेकिन खेल जिसका भी हो, जिम्मेदारी तो अंततः सरकार की ही है.

एक जिला कृषि अधिकारी ने बताया कि किसान क्रेडिट कार्ड से ऋण लेने जाते हैं तो बैंक में नया खाता खोलने में उन्हें काफी लिखा-पढ़ी करनी पड़ती है. इसलिए ऋण चुकता कर देने के बावजूद चंद रुपये या कुछ पैसे बकाया रखकर वे अपना पुराना खाता चालू रहने देते हैं, ताकि अगली बार उसी में फिर ऋण ले सकें.

सरकार ने किसानों के एक लाख तक के कर्जे माफ करने का ऐलान किया तो शातिर बैंक अधिकारियों ने बकायेदार किसानों की सूची में ऐसे किसानों के नाम भी शामिल कर दिए. माफी वाले किसानों की संख्या बढ़ाने के लिए उन्होंने यह चालाकी की. फिर तो यह करिश्मा होना ही था.

दूसरी ओर एक बैंक अधिकारी ने बताया कि कर्जमाफी योजना में तरह-तरह की शर्तें हैं, जिनके तहत किसानों के 31 मार्च, 2016 तक के ही बकाये माफ होने हैं जबकि कुछ और ही समझे बैठे किसान अब निराश हो रहे हैं.

खुद राज्य सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार पहले चरण में जिन 11 लाख 93 हजार किसानों का कर्ज माफ किया गया है, उनमें एक रुपये से लेकर एक हजार रुपये तक की माफी वाले किसानों की संख्या 34,262 है.

इनमें भी 4,814 किसानों को एक से एक सौ रुपये तक की कर्ज माफी मिली है. एक हजार से दस हजार रुपये तक का कर्ज माफ होने वाले किसान 41, 690 हैं, जबकि 11 लाख 27 हजार किसानों का दस हजार रुपये से ज्यादा का ऋण माफ हुआ है.

स्वाभाविक ही अब इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप आरंभ हो गये हैं और भाजपा इस बात को लेकर अपना बचाव नहीं कर पा रही कि विधानसभा चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ने के लिए उसने बिना सोचे-विचारे कि कर्जमाफी किसानों की समस्याओं का रामबाण इलाज नहीं है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वादा करा दिया कि वह सत्ता में आई तो प्रदेश नई सरकार की कैबिनेट की पहली ही बैठक में किसानों के कर्जे माफ करने की घोषणा कर दी जायेगी.

इस वादे पर उसे वोट मिल गये और योगी की सरकार बन गई तो वायदाखिलाफी की तोहमत से बचने के लिए पहल कैबिनेट की पहली बैठक में देरी की गई, फिर केंद्र सरकार ने कर्जमाफी के लिए धन देने से मनाकर दिया तो प्रदेश के संसाधनों से कर्जमाफी का निर्णय हुआ.

इसके लिए बजट में 36 हजार करोड़ रुपयों की व्यवस्था भी की गई और दावा किया गया कि इससे 86 हजार किसान लाभान्वित होंगे. इसके बाद का किस्सा यह है कि एक ओर योगी सरकार इस कर्जमाफी को वायदाखिलाफी से भी ज्यादा विडम्बनापूर्ण ढंग से जमीन पर उतारने में लगी और दूसरी ओर इसके आकर्षण में बंधे कई भाजपाशासित राज्यों के किसान भी कर्जमाफी के लिए आंदोलित हो गये.

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात आदि में तो वे हिंसा और तोड़फोड़ पर भी उतर आये. ऐसे में नरेंद्र मोदी की सरकार को कोई राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया तो किसानों के दबाव में कई प्रदेश सरकारों को भी उप्र की राह पर जाना पड़ा.

अलबत्ता, तमिलनाडु के किसान देश की राजधानी में जंतर-मंतर पर इसके लिए कई तरह के आंदोलन करके भी सफल नहीं हुए. अब कर्जमाफी के इस मजाक से योगी सरकार की व्यापक किरकिरी के बीच एक अच्छी बात यह है कि किसानों की कर्जमाफी के विभिन्न पहलुओं पर नए सिरे से बहस आरंभ हो गयी है.

वरिष्ठ गांधीवादी पत्रकार कुमार प्रशांत कहते हैं कि किसानों की जिंदगी सचमुच सुधारनी हो तो कर्ज की यह व्यवस्था ही खत्म कर देनी चाहिए और कृषि का ऐसा माॅडल विकसित करना चाहिए जिसमें कर्ज की जरूरत ही न पड़े.

स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव के अनुसार भी किसानों को कर्जमाफी की नहीं कर्जमुक्ति की जरूरत है-फसल के पूरे दाम यानी आय की गारंटी के साथ. लेकिन स्वामीनाथन समिति की सिफारिशें लागू करने के वादे पर आई नरेंद्र मोदी सरकार इस ओर से मुंह मोड़े हुए है.

वे कहते हैं कि पिछले पचास सालों में देश की सरकारों ने अपने किसानों से हर साल हजारों करोड़ रुपये छीने हैं. 1966-67 के अकाल के बाद से ही उन्होंने खाद्य उत्पादन बढ़ाने की चिंता में किसानों के हितों की अनदेखी की और उनकी उपजों के दाम दबा कर रखे, ताकि खाद्यान्न महंगे न हों.

इतना ही नहीं, गरीबों को सस्ते अनाज का सारा बोझ भी किसानों पर ही डाल दिया. अब किसानों को यह सब एक साथ लौटाने का वक्त है तो उन्हें कर्जमुक्ति व आय की गारंटी दोनों दी जानी चाहिए. नजराना कहकर नहीं, हरजाना कहकर.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)