शीर्ष अदालत में केंद्र की दलील ऐसे समय में आई है, जब उसे विपक्षी दलों और यहां तक कि जदयू जैसे उसके सहयोगियों से जातिगत जनगणना की मांग लगातार की जा रही है. बीते 20 जुलाई को लोकसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि भारत सरकार ने फैसला किया है कि जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा अन्य जाति-वार आबादी की गणना नहीं की जाएगी.
नई दिल्ली: केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पिछड़े वर्गों की जाति आधारित जनगणना ‘प्रशासनिक रूप से कठिन और दुष्कर’ है और जनगणना के दायरे से इस तरह की सूचना को अलग करना ‘सतर्क नीति निर्णय’ है.
केंद्र का रुख इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हाल में बिहार से दस दलों के प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी और जाति आधारित जनगणना कराए जाने की मांग की थी.
सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे के मुताबिक, सरकार ने कहा है कि सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी), 2011 में काफी गलतियां एवं अशुद्धियां हैं.
महाराष्ट्र की एक याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया गया.
महाराष्ट्र सरकार ने याचिका दायर कर केंद्र एवं अन्य संबंधित प्राधिकरणों से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित एसईसीसी 2011 के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग की है और कहा कि बार-बार आग्रह के बावजूद उसे यह उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है.
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के सचिव की तरफ से दायर हलफनामे में कहा गया है कि केंद्र ने पिछले वर्ष जनवरी में एक अधिसूचना जारी कर जनगणना 2021 के लिए जुटाई जाने वाली सूचनाओं का ब्योरा तय किया था और इसमें अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति से जुड़े सूचनाओं सहित कई क्षेत्रों को शामिल किया गया, लेकिन इसमें जाति के किसी अन्य श्रेणी का जिक्र नहीं किया गया है.
सरकार ने कहा कि एसईसीसी 2011 सर्वेक्षण ‘ओबीसी सर्वेक्षण’ नहीं है, जैसा कि आरोप लगाया जाता है, बल्कि यह देश में सभी घरों में जातीय स्थिति का पता लगाने की व्यापक प्रक्रिया थी.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र ने अदालत को बताया, ‘जनगणना में जातिवार गणना 1951 के बाद से छोड़ दी गई थी और इस प्रकार अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के अलावा अन्य जातियों को 1951 से आज तक किसी भी जनगणना में शामिल नहीं किया गया है.’
सरकार के हलफनामे के अनुसार, ‘स्वतंत्रता के बाद जब पहली बार 1951 की जनगणना की तैयारी चल रही थी, तब भारत सरकार ने जाति संबंधित नीति पर निर्णय लिया था. यह निर्णय लिया गया था कि सामान्य तौर पर किसी वंश/जाति/जनजाति की पूछताछ नहीं की जानी चाहिए और ऐसी पूछताछ संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अनुसरण में भारत के राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित अनुसूचित जातियों और जनजातियों तक ही सीमित होनी चाहिए.’
यह मामला बृहस्पतिवार को जस्टिस एएम खानविलकर की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए आया, जिसने इस पर सुनवाई की अगली तारीख 26 अक्टूबर तय की.
शीर्ष अदालत में केंद्र की दलील ऐसे समय में आई है, जब उसे विपक्षी दलों और यहां तक कि जदयू जैसे उसके सहयोगियों से जातिगत जनगणना की मांग लगातार की जा रही है.
बीते 20 जुलाई को लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था, ‘भारत सरकार ने नीति के रूप में फैसला किया है कि जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा अन्य जाति-वार आबादी की गणना नहीं की जाएगी.’
रिपोर्ट के अनुसार, सरकार की ओर से कहा गया कि एससी और एसटी सूची के विपरीत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की कई राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में अलग-अलग सूचियां हैं. कुछ राज्यों में अनाथ और बेसहारा ओबीसी के रूप में शामिल हैं.
हलफनामे में कहा गया है कि कुछ अन्य मामलों में ईसाई धर्म में शामिल एससी को ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. इसके लिए जनगणना करने वालों को ओबीसी और एससी दोनों सूचियों की जांच करने की आवश्यकता होगी, जो उनकी क्षमता से परे है.
केंद्र ने कहा कि उसकी सूची के अनुसार, देश में जहां 2,479 ओबीसी समुदाय हैं, वहीं राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सूची के अनुसार यह संख्या 3,150 है. ओबीसी में सैकड़ों-हजारों जातियां और उपजातियां भी हैं और इस तरह से उन्हें सही ढंग से वर्गीकृत करना मुश्किल हो सकता है.
सरकार का कहना है कि आगामी जनगणना में पिछड़े वर्गों के संबंध में आंकड़ों का संग्रह जनगणना करने वाले उन लोगों के लिए गंभीर चुनौती साबित होगा, जो ज्यादातर स्कूली शिक्षक होते हैं और जिनके पास संबंधित सूचना की प्रामाणिकता को सत्यापित करने के साधन नहीं है.
रिपोर्ट के अनुसार, इसने कहा कि जनगणना की तैयारी 3-4 साल पहले से शुरू हो जाती है और केंद्र सरकार ने 7 जनवरी, 2020 को पूछे जाने वाले प्रश्नों पर आवश्यक अधिसूचना जारी कर दी है, जो कुल मिलाकर 31 हैं. इस स्तर पर सर्वसम्मत अनुसूची में किसी भी अतिरिक्त प्रश्न को शामिल करना है, अब संभव नहीं है.
केंद्र ने यह भी बताया कि कई उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने अतीत में जाति के आधार पर जनगणना की मांगों को खारिज कर दिया है.
2010 में मद्रास हाईकोर्ट ने जनगणना विभाग को जाति जनगणना करने के लिए कहा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील पर माना कि हाईकोर्ट की कार्रवाई ‘न्यायिक समीक्षा की शक्ति का एक बड़ा उल्लंघन’ थी.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)