कोरोना काल में चुनाव: बड़े होते जा रहे निष्पक्षता से जुड़े सवाल

चुनाव आयोग से न सिर्फ स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने बल्कि यह सुनिश्चित करने की भी अपेक्षा की जाती है कि केंद्र व प्रदेशों में सत्तारूढ़ दलों को सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर अपनी स्थिति मजबूत करने के अनैतिक व अवांछनीय मौके न मिलें. हालांकि कोरोना के दौर में हुए चुनावों में लगातार इस पहलू पर सवाल ही उठे हैं.

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बंगाल चुनाव के दौरान भाजपा की एक रैली. (फोटो: पीटीआई)

चुनाव आयोग से न सिर्फ स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने बल्कि यह सुनिश्चित करने की भी अपेक्षा की जाती है कि केंद्र व प्रदेशों में सत्तारूढ़ दलों को सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर अपनी स्थिति मजबूत करने के अनैतिक व अवांछनीय मौके न मिलें. हालांकि कोरोना के दौर में हुए चुनावों में लगातार इस पहलू पर सवाल ही उठे हैं.

बंगाल चुनाव के दौरान भाजपा की एक रैली. (फोटो: पीटीआई)

चुनाव आयोग द्वारा सबसे बड़े उत्तर प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही यह सवाल और बड़ा हो गया है कि क्या कोरोना की लगातार बड़ी होती जा रही तीसरी लहर और कड़ी की जा रही पाबंदियों के बीच वह इन चुनावों को स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से संपन्न कराने में सफल हो पाएगा?

इस पर विचार करें तो जो पहली बात ध्यान में आती है, वह यह कि चुनाव आयोग से न सिर्फ स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने बल्कि यह सुनिश्चित करने की भी अपेक्षा की जाती है कि केंद्र व प्रदेशों में सत्तारूढ़ दलों को सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके अपनी स्थिति मजबूत करने के अनैतिक व अवांछनीय मौके न मिलें और न ही ऐसी स्थिति बने, जिससे वे चुनाव की शुरुआत या कहें स्टार्टिंग लाइन से ही प्रतिद्वंद्वी दलों से कई कदम आगे दिखाई देने लगें.

क्योंकि प्रतिद्वंद्वी पक्षों से समता का व्यवहार, जो किसी भी अंपायर या रेफरी का कर्तव्य है, सुनिश्चित किए बिना निष्पक्ष चुनाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

यह व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए ही कई लोकतांत्रिक देशों में पार्टियों व प्रत्याशियों को चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद ही प्रचार शुरू करने की अनुमति होती है. ताकि सारा प्रचार चुनाव आयोग की आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू और प्रशासकीय मशीनरी पर उसके पूर्ण नियंत्रण के बाद उसकी देख-रेख में ही किया जाए.

ऐसे में सत्तारूढ़ दलों के पास सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के मौके लगभग नहीं के बराबर रह जाते हैं. क्योंकि तब प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री अपनी पार्टी का प्रचार में जाते हैं तो उनकी सभाओं के प्रबंधन का खर्च भी उनकी पार्टी को ही उठाना पड़ता है. चुनाव आयोग को प्रतिदिन उसका हिसाब देना पड़ता है, सो अलग.

दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसा नहीं है और सत्ता दलों को अघोषित ‘सहूलियत’ हासिल है कि वे चुनाव के ऐलान का इंतजार किए बिना अपनी सरकारों को इलेक्शन मोड में लाकर मतदाताओं को अपनी ‘उपलब्धियां’ बताने और नये सब्जबाग दिखाने लग जाएं.

गत दिनों इसका सबसे बड़ा गवाह उत्तर प्रदेश बना, जहां देश-प्रदेश दोनों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकारों ने मिलकर चुनावों के विधिवत ऐलान से कई महीने पहले ही उद्घाटनों, लोकार्पणों व शिलान्यासों के साथ मोबाइलों, टेबलेटों व नियुक्ति पत्रों वगैरह की रेवड़ियों, साथ ही प्रलोभनों के वितरण के सरकारी खर्चे पर आयोजित भव्य समारोहों व रैलियों की मार्फत अपना प्रचार शुरू कर दिया था.

प्रधानमंत्री हों, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री, सरकारी संसाधनों से आयोजित रैलियों व समारोहों में विपक्ष पर भरपूर बरसते थे- बिना इसका लिहाज किए कि वहां विपक्ष अपने बचाव के लिए मौजूद नहीं है और इससे चुनावी मुकाबले में सारे दलों व प्रत्याशियों के साथ समान व्यवहार के सिद्धांत, नैतिकताओं व मर्यादाओं का उल्लंघन होता है. तिस पर सत्ता की हनक कुछ ऐसी थी कि यह उल्लंघन होता है तो उनकी बला से हुआ करे.

इस हनक में विपक्ष का मनोबल गिराने के लिए ऐन चुनाव के वक्त उसके नेताओं व समर्थकों के ठिकानों पर प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर वगैरह के बदनीयत छापों को भी जोड़ दें, तो समझा जा सकता है कि स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के चुनाव आयोग के दायित्व में सत्तारूढ़ दल के तौर पर भाजपा को रंचमात्र नैतिक हिस्सेदारी भी अभीष्ट नहीं है.

भले ही चुनाव आयोग के सदस्यों को केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है और इस नाते केंद्र की सत्ता संभालने वाली पार्टी से उन्हें स्वाभाविक अपेक्षा होती है कि वह उनके दायित्व निर्वहन के कम से कम आड़े आए.

लेकिन हमारा अतीत भी गवाह है और वर्तमान भी कि उनकी यह अपेक्षा प्रायः पूरी नहीं होती, जिससे उनका दायित्व निर्वहन का रास्ता कुछ ज्यादा कंटकाकीर्ण हो जाता है. इसके उलट कई बार केंद्र में सत्तारूढ़ दल व चुनाव आयोग के सदस्यों की मिलीभगतों के किस्से भी आम होते रहते हैं.

लेकिन इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनाव का रास्ता साफ करने के लिए अपेक्षित चुनाव सुधारों की बात को अब केंद्र सरकार के स्तर पर भी पीछे छोड़ दिया गया है और चुनाव आयोग के स्तर पर भी.

दूसरी ओर चुनाव प्रक्रिया को पाक-साफ रखने के नाम पर जो कदम उठाए गए हैं, वे कोढ़ भी में खाज ही सिद्ध हुए हैं. इसलिए मामला इतना ही नहीं रह गया है कि सर्वोच्च न्यायालय अपराधियों को इस प्रक्रिया से बाहर करने के लिए कानून बनाने को कहता है तो प्रायः सारे दल संसद में अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल करके उसे नहीं बनने देते.

एक समय हम यह सुनिश्चित करने के लिए कि धनबल से मतदाताओं के विवेक को प्रभावित न किया जा सके, सारे उम्मीदवारों के सरकारी खर्च पर साझा प्रचार जैसे विकल्पों पर विचार कर रहे थे, लेकिन अब चुनाव दर चुनाव उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाकर खुश हो लेते हैं. क्या अर्थ है इसका?

यही तो कि जो उम्मीदवार उतना खर्च करने की हैसियत न रखते हों, चुनाव मैदान में उतरें ही नहीं और उतरें तो मुकाबले में गैर बराबरी के दंश झेलकर बाहर हो जाएं. उनकी जनसेवा कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, उनके पास इसके अलावा और रास्ता भी क्या है, जब तमाम तरह के कारण बताकर परचे-पैम्फलेट बांटने, पोस्टर लगाने या वॉल राइटिंग जैसे प्रचार के परंपरागत साधनों पर प्रतिबंध लगा दिए गए हैं.

लेकिन बड़ी पूंजी द्वारा संचालित व प्रायोजित टीवी न्यूज चैनल प्रचार की समूची अवधि तक दिन-रात मतदाताओं के शयन कक्षों तक में घुसकर नाना प्रकार के दूषित व मिथ्या प्रचारों से उनका मानस बदलने के अजीबोगरीब खेल करते रह सकते हैं.

यह मानने के कारण हैं कि इस चुनाव में अनेक उम्मीदवारों को यह दंश कुछ ज्यादा ही झेलना पड़ेगा क्योंकि कोरोना के कारण सभाओं, पदयात्राओं और रैलियों वगैरह के भी न हो पाने और प्रचार का सारा दारोमदार प्रिंट, इलेक्ट्राॅनिक व डिजिटल माध्यमों और सोशल मीडिया पर ही रहने के आसार हैं.

पूछना जरूरी है कि इन हालात में चुनाव आयोग अपना कर्तव्य कैसे निभाएगा, जबकि उसकी आदर्श चुनाव आचार संहिता जिस रूप में राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और सरकारों पर लागू होती है, उस रूप में प्रचार माध्यमों पर नहीं लागू होती.

यही माध्यम प्रचार के एकमात्र माध्यम होंगे और उम्मीदवारों के पास मतदाताओं तक अपनी बातें पहुंचाने का कोई और विकल्प होगा ही नहीं, यहां तक कि जनसंपर्क भी कठिन होगा, तो मतदाताओं को भ्रमित करने व चुनाव की निष्पक्षता की राह में कांटे बिछाने के लिए क्या-क्या गुल खिलाए जाएंगे, इसकी सहजता से कल्पना की जा सकती है.

दूसरे पहलू पर जाकर देखें, तो विपक्ष दलों को एक्चुअल रैलियों के दौर में भी सत्ता दलों के ‘लाव-लश्कर’ से अस्वस्थ व अनैतिक प्रतिस्पर्धा झेलनी ही होती थी, अब वर्चुअल रैलियों व प्रचार के बदले हुए माध्यमों की मार्फत उन्हें सिर्फ इन दलों को ही नहीं, वहां प्रभुत्व जमाए बैठे खास मानसिकता वाले महानुभावों को भी चुनौती देनी होगी.

उनकी चुनौती इस अर्थ में भी दोहरी होेगी कि राज्य सरकारों की जिस नौकरशाही पर चुनाव आयोग निर्भर करता है, उक्त मानसिकता का उसमें भी कुछ कम प्रभुत्व नहीं है.

कोढ़ में खाज यह कि चुनाव आयोग ने यह जानते हुए भी कि लंबे चुनाव कार्यक्रम साधनों से संपन्न कहें या सत्ता व काले धन से संपन्न दलों व उनके प्रत्याशियों को ही रास आते हैं, पश्चिम बंगाल के गत विधानसभा चुनाव के वक्त लंबे चुनाव कार्यक्रम को लेकर की गई गंभीर आलोचनाओं से भी कोई सबक नहीं लिया और उत्तर प्रदेश के चुनाव एक बार फिर सात चरणों में कराने का फैसला लिया है.

साथ ही उसने जिस तरह पोस्टल बैलेट का दायरा बढ़ाकर उसमें कोरोना संक्रमितों व बुजुर्गों को शामिल किया है, उससे इस तरह के मतदान की शुचिता को लेकर भी कई तरह के अंदेशे जताए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस तरह का मतदान संसाधनसंपन्न राजनीतिक दलों के लिए ऐन मतदान के वक्त मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित करने की नई राह खोल देगा.

जहां तक चुनावों में काले धन के इस्तेमाल की बात है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी घोषित की, तो दावा किया था कि उससे काले धन की समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी. लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ और चुनावों में काले धन का इस्तेमाल आज तक बेरोकटोक होता चला आ रहा है, तो चुनावी बॉन्डों की मार्फत दाताओं का खुलासा किए बिना दलों के लिए धन इकट्ठा करने की राह पर चल पड़े हैं, जो सत्तारूढ़ दलों के पक्ष में होने के कारण किसी विडंबना से कम नहीं हैं.

यहां ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर कही जाने वाली तमाम विपरीत बातों का जिक्र न भी करें तो इन हालात में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनावों की उम्मीद तभी की जा सकती है, जब चुनाव आयोग जमीनी हकीकतों को ठीक से समझकर कदम उठाए और चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बनाए रखने के लिए अपने दायित्व के प्रति अतिरिक्त सतर्कता बरते.

बहरहाल, अभी यही कह सकते हैं कि इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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