मैं ये बचपन से सुनता आ रहा हूं कि मस्जिदों में असलहे और बम रखे जाते हैं. हिंदुओं की एक बड़ी आबादी इसे सच मानती है. ये उनके अवचेतन में रहता हैं. आप उसको कुरेद सकते हैं, उसको उकसा सकते है. हिंसक बना सकते हैं.
बीते दिनों उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि भेदभाव नहीं होना चाहिए लेकिन अगर ध्यान से देखें तो इस भाषा के पीछे स्पष्ट सांप्रदायिक संदेश था.
हिंदुओं के मन में बहुत पहले से ही एक धारणा बैठी है कि उनके साथ भेदभाव होता है. बचपन से हम सुनते आए हैं कि होली में पानी नहीं आता है जबकि रमज़ान में सुबह-सुबह पानी आ जाता है और दिनभर रहता है. उसी तरह दिवाली पर बिजली कट जाया करती है, लेकिन ईद में नहीं कटती. उस वक़्त मैं बिहार के सीवान में था और यह एक तरह का मिथ है.
उसी तरह एक दूसरा मिथ है कि जो मुआवज़ा दिया जाता है, उससे मुसलमानों को फायदा होता है. हिंदुओं को मुआवज़ा नहीं मिलता है. ये मिथ हिंदुओं में गहरे धंसा हुआ है.
इसको बीच-बीच में उकसाना और उनमें (हिंदुओं) ये भाव भरना कि उनके खिलाफ भेदभाव किया जा रहा है, यह काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगातार करता रहा है. सिर्फ करना ये होता है कि आप इस भाव को एक बार फिर उकसा दें.
अगर आपने सुना हो, पीयूष गोयल ने चुनाव के पहले ही दौर में कहा था कि उत्तर प्रदेश में बिजली मुसलमानों की दी जाती है, हिंदुओं को नहीं दी जाती है. तब प्रदेश के बिजली विभाग के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा था कि ये बिल्कुल बकवास और गलत है लेकिन पीयूष गोयल जो कि देश के बिजली मंत्री हैं, ने कहा कि मुरादाबाद में इस बात की जांच की गई है.
उनका ये बयान बिल्कुल ग़लत है और गैर जिम्मेदाराना है, लेकिन वे कहकर निकल गए. नरेंद्र मोदी जो अभी कर रहे हैं ये काम उन्होंने पिछले साल बिहार में किया था. उन्होंने कहा था कि जो सर्वाधिक पिछड़ा समूह है उसका आरक्षण एक विशेष धर्म के लोगों को दे दिया जाता है.
उत्तर प्रदेश में उन्होंने इसे ढका भी नहीं साफ़ कह दिया कि ये मुसलमानों को जा रहा है. यह बहुत स्पष्ट है कि एक भेदभाव या पक्षपात का मिथ हिंदुओं में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले 80 साल में बोया है उसको बढ़ाया जा रहा है.
ये उनकी फितरत है चूंकि वे उसी संस्कृति में पले-बढ़े हैं और इसके बिना वे रह नहीं सकते. जो मेरी समझ है ये एक सांप्रदायिक प्रचार है, इसमें किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए.
इस रणनीति से उन्हें कितना फायदा मिलेगा ये हम नहीं जानते क्योंकि मनुष्य का जो मनोविज्ञान है वह एक पहेली की तरह है. सांप्रदायिक राजनीति का पूरा गणित यही है कि आप कभी भी किसी भी मसले को न छोड़ें.
अब हम लोग ने ये सोचा कि राम मंदिर का मसला ख़त्म हो गया, अब ये नहीं उठेगा. लेकिन चुनाव से ठीक पहले इस मसले को प्रमुखता से फिर ले आया गया.
पूरा खेल ये है कि कुछ चीज़ें हैं जिनसे चौखटा बनता है. जैसे- राम मंदिर, धारा 370, यूनिफॉर्म सिविल कोड और चार शादियां वगैरह-वगैरह… इसके भीतर आप ढेर सारे स्थानीय मुद्दों को उठाते हैं.
150 साल पुराना एक मिथ कि हिंदू लड़कियों से मुसलमान जबरदस्ती शादी कर रहे हैं. उनका धर्म परिवर्तन करा रहें है. हिंदुओं की आबादी कम हो जाएगी. मुसलमान ज़्यादा पैदा हो रहे हैं. 150 साल से ये चल रहा है. इसको कभी छोड़ा नहीं गया.
हम समझते हैं कि बिहार में ये हार गए तो अब इन मुद्दों को ये छोड़ देंगे लेकिन नहीं. जब तक इस भाषा का आप निरंतर व्यवहार नहीं करते रहेंगे तब तक लोगों की आदत नहीं बनेगी.
प्रधानमंत्री का बयान पढ़कर मुझे अपने बचपन की याद आ गई. ये सब मैं 50 वर्ष से सुन रहा हूं. ये चीज़ कितनी पुरानी है और कब कारगर हो जाएगी. ये कई दूसरों तथ्यों पर निर्भर है और अगर वे तत्व मददगार साबित हो गए तो ये कारगर साबित हो जाएगी और अपना असर दिखाएगी.
चुनाव में जीत-हार बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन लोगों के दिमाग को बदल देना या उनके सोचने के तरीके को प्रभावित कर देना, ये एक ज्यादा गहरी चीज़ है. आप ये नहीं कह सकते कि बिहार में चूंकि ये हार गए हैं तो वहां सांप्रदायिकरण नहीं हुआ है.
आप ईर्ष्या का बीज बोते हैं. इसे कई तरीके से बोया जा सकता है. जैसे- एक हिंदू मर्द के अंदर मुसलमान मर्द के खिलाफ कि वे चार शादी कर सकते हैं और मैं केवल एक. वे ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, ये पूरी तरह से मिथ है. एक मिथ है कि हिंदुओं की आबादी कम हो रही है. हिंदुओं में एक बड़ी आबादी है जो इसमें सचमुच विश्वास करती है.
वे विश्वास करते हैं कि मुसलमान चूंकि मांस खाते हैं, इसलिए वे हमलावर होते हैं. दिल्ली के त्रिलोकपुरी में जब सांप्रदायिक हिंसा हुई थी तब हम वहां गए थे. वहां लोग कहने लगे आप जानते नहीं, मस्जिदों में इनकी ट्रेनिंग होती है.
मैं ये बचपन से सुनता आ रहा हूं कि मस्जिदों में असलाह और बम रखे जाते हैं. हिंदुओं में ये मानने वाले एक बड़ी संख्या में मौजूद हैं. ये उनके अवचेतन में रहता हैं. आप उसको कुरेद सकते हैं, उसको उकसा सकते है. हिंसक बना सकते हैं या फिर हिंसा का समर्थक बना सकते हैं.
यह तो फिक्र है ही कि क्या उत्तर प्रदेश में ऐसी राजनीति शासन में आएगी. लेकिन बड़ी चिंता ये है कि अगर इस भाषा का व्यवहार इतने लंबे समय तक होता रहा और इसका विरोध नहीं हुआ तो क्या होगा?
जैसे मैंने देखा कि प्रधानमंत्री के भाषण का किसी भी अख़बार ने विरोध नहीं किया. जैसे कि ये मामूली बात है. लोगों को आप भड़का सकते हैं, अपनी तरफ लाने के लिए. 2014 में नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे तब इस तर्क को पेश किया जा रहा था कि नहीं-नहीं उस वक़्त उनको लोगों को लाने की जरूरत थी इसलिए उन्होंने नफरत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई ख़ास बात नहीं और अब तो वो सबके साथ और सबके विकास की बात कर रहें हैं.
यानी ये चीज़ चलती रहती है. आपने बिहार में देखा कि ये चीज़ चली. बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में चली. उससे पहले हरियाणा में चल रही है. ये रुकेगी नहीं मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि अगर लोग ये सोच रहे हैं कि ये एक दौर है जो ख़त्म हो जाएगा. ऐसा नहीं है. इस दौर के बीच में आपको राहत मिलेगी लेकिन यह एक सिलसिलेवार सांप्रदायिक परियोजना है जो ख़त्म नहीं होगी.
इस दौर के खिलाफ दुर्भाग्य से नहीं कोई नहीं. क्योंकि इस देश की लगभग सारी राजनीतिक पार्टियों में एक ‘हिंदू भय’ समा गया है और उन्हें ऐसा लगता है अगर वे कुछ भी बोलेंगे जो वाकई सही है उससे हिंदू नाराज़ हो जाएंगे. वे हिंदुओं को नाराज़ नहीं करना चाहते है. इसलिए तो वे एकदम ख़ामोश हो गए हैं.
जहां तक मेरी समझ है कि उन्हें गांधी और नेहरू जैसे साहस की ज़रूरत है कि वे खड़े होकर कह सकें कि तुम ग़लत कर रहे हो. जैसे पाकिस्तान में सुन्नी ग़लत कर रहे हैं. पाकिस्तान में कोई अल्पसंख्यक नहीं बचा. लगभग शियाओं, अहमदियों, सूफ़ियों को मारा जा रहा है.
बर्मा (म्यांमार) में रोहिंग्या लोगों को बौद्ध मार रहे हैं. श्रीलंका में सिंहली बौद्ध वहां के तमिलों को मार रहे हैं, तमिल तो हिंदू हैं. जब तक इस बात को गांधी के साहस के साथ नहीं कहा जाएगा कि बहुसंख्यकवाद एक बहुत बड़ा खतरा है.
ये बहुसंख्यकवाद भारत में हिंदू के नाम पर आएगा. पाकिस्तान में सुन्नी मुसलमान, बांग्लादेश में मुसलमान, श्रीलंका में बौद्ध और बर्मा में बौद्धों के नाम पर आएगा. इस समझ को लेकर हर रोज़ बात करनी होगी.
अगर सांप्रदायिकवाद रोज़ का कार्यक्रम हो सकता है तो धर्म-निरपेक्षता क्यों नहीं रोज़ का कार्यक्रम हो सकती है. इसमें हम ऊब क्यों जाते हैं? हमें क्यों ऐसा लगता है हम दोहरा रहे हैं. हमें कोई नई बात करनी चाहिए. हमें रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान की बात करनी चाहिए. अक्सर यही कहा जाता है. अगर आप दुनिया का इतिहास देखें तो लोग सांस्कृतिक कारणों से जान देते हैं, आर्थिक कारणों से जान देने वाली घटनाएं बहुत कम हैं.
कांग्रेस की बात करें तो मैं जहां तक समझ पाया हूं. राहुल गांधी की समझ बहुत स्पष्ट है कि उन्हें सांप्रदायिक ताकतों के ख़िलाफ़ लड़ना है. दूसरी तरफ कांग्रेस में यह डर समा गया है कि वो मुस्लिम परस्त पार्टी है और हिंदू विरोधी. कांग्रेस को अपनी यह छवि तोड़नी है. इसलिए जहां-जहां उसे बोलना चाहिए वो हिचकिचा जाती है.
होना यह चाहिए कि आप अपने धर्म-निरपेक्ष मूल्यों पर जोर दें और बिना समझौता किए बात करें. तो कांग्रेस को जितना मुख़र होना चाहिए था, जितना स्पष्ट होना चाहिए था और मजबूत होना चाहिए था, वो हिचकिचा जाती है. मैं देखता हूं उनके नेता राहुल गांधी साहस दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन पूरी कांग्रेस को जितनी तत्परता से सामने आना चाहिए वो नहीं आ पाती.
2002 के गुजरात दंगों के समय सांसद एहसान ज़ाफ़री को मार दिया गया. तब उनकी पत्नी ज़किया ज़ाफ़री से कांग्रेस का कोई बड़ा नेता मिलने नहीं गया. सोनिया आज तक उनसे मिल नहीं सकीं.
ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस यह समझ रही थी कि अगर सोनिया गांधी उनसे मिलने जाती हैं, तो गुजराती हिंदू नाराज हो जाएगा. इससे बड़ा अपराध कुछ और हो नहीं सकता है. यही आशंका अख़लाक के मारे जाने के बाद जताई जा रही थी कि राहुल गांधी उनके घरवालों से मिले कि नहीं. लेकिन राहुल ने ये साहस दिखाया. उन पर हमला हुआ फिर भी वो गए.
जवारहलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जब छात्रों पर हमला हुआ था तब भी यहीं आशंका थी लेकिन राहुल वहां गए. मेरा ख्याल है कि आप वह साहस दिखलाइए तब लोगों को यक़ीन होगा कि आप उसमें विश्वास करते हैं. वरना अगर आप हिचकिचाते रहेंगे तो हिचकिचाहट कोई बढ़िया संदेश नहीं है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में उनकी भाषा की बात करें तो सामाजिक मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी ने 10 साल पहले अर्चित याग्निक के साथ उनका इंटरव्यू किया था. इंटरव्यू के बाद आशीष ने याग्निक से कहा, मैं एक टेक्स्ट बुक फासिस्ट को देखकर आ रहा हूं.
यह कोई राजनीतिक बयान नहीं, यह एक विशेषज्ञ का बयान है. यह एक मनोविश्लेषक का बयान है. जो आपके बारे में, मनोविज्ञान के बारे में आपसे बात करके बताना की कोशिश करता है कि वह क्या हैं.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद आशीष नंदी से दोबारा यह सवाल किया गया कि वो अब प्रधानमंत्री बन गए हैं और ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात कर रहें है. तो अब आपका क्या कहना है? तब आशीष नंदी ने कहा कि मैं अभी भी अपनी उस प्रोफेशनल राय पर कायम हूं.
ऐसे में मैं इस पेशेवर राय को महत्व दूंगा. उनके व्यक्तित्व की जो बनावट है उसे मैं प्राकृतिक नहीं कहता. ये निर्मित है और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूरे वातावरण से बनी है, जिसकी बुनियाद मुस्लिम घृणा है.
दूसरी बुनियाद हिंसा है, जो जा नहीं सकती है. इसलिए जैसे ही एक ऐसा अवसर आता है जिसे आप कह सकते हैं ‘असावधान’ या ऐसा अवसर आता है जिसमें आप बहुत निश्चिंत रहते हैं, जिसमें आपको लगता है कोई चुनौती नहीं है, वहां यह स्वभाव निकल आता है.
मसलन इंडियन एक्सप्रेस के पुरस्कार समारोह का पूरा भाषण आप याद कीजिए. आखिर उस भाषण में रूपक क्या था? बीएमडब्ल्यू से किसी के दबने का. यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसके पहले भी नरेंद्र मोदी ने कहा था कार के नीचे पिल्ला आ जाता है.
इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम में कहा कि बीएमडब्ल्यू के नीचे कोई दब जाए इसमें दलित के दबने का जिक्र किया था. मतलब प्रधानमंत्री बीएमडब्ल्यू की तरफ से बोल रहा है. कोई दब जाए तो उसके साथ प्रधानमंत्री नहीं है बीएमडब्ल्यू के स्टीयरिंग पर है उसकी तरफ से वे बोल रहे थे.
उसी तरह कोई पिल्ला भी दब जाए तो पीछे की सीट पर मैं बैठा हूं. ये हिंसक भाषा है और हिंसक व्यक्तित्व है. यह हिंसक व्यक्तित्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पाठशाला में तैयार हुआ है. ये हिंसा जा नहीं सकती है क्योंकि उस राजनीति की पूरी बुनियाद ही यहीं है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
(यह बातचीत पर आधारित लेख है. बातचीत देखने के लिए यहां क्लिक करें)