‘न्यूज़क्लिक’ को जनता को बाख़बर रखने के साथ ख़बरदार करने की सज़ा मिल रही है

सरकार के जिस कदम से देश का नुक़सान हो, उसकी आलोचना ही देशहित है. 'न्यूज़क्लिक’ की सारी रिपोर्टिंग सरकार के दावों की पड़ताल है लेकिन यही तो पत्रकारिता है. अगर सरकार के पक्ष में लिखते, बोलते रहें तो यह उसका प्रचार है. इसमें पत्रकारिता कहां है?

मनोज झा के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया ने दिखाया कि ‘उच्च जातियां’ अपना वर्चस्व नहीं छोड़ना चाहतीं

मनोज झा के एक वक्तव्य पर जिस प्रकार की हिंसक प्रतिक्रिया हुई है, उससे वर्चस्वशाली समुदाय के हिंसक स्वभाव को समझा जा सकता है.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा मुस्लिम विरोधी गाली संस्कृति का क़ायदे से निर्माण कर रही है

भाजपा की संस्कृति बदज़बानी और बदतमीज़ी की संस्कृति है. प्रतिपक्षियों, मुसलमानों को अपमानित करके उन्हें साबित करना होता है कि वे भाजपा के नेता माने जाने लायक़ हैं. बिधूड़ी सिर्फ़ सबसे ताज़ा उदाहरण हैं.

उदयनिधि के बयान पर आई प्रतिक्रिया दिखाती है कि ‘सनातनी’ झूठ में ही जीना चाहते हैं

उदयनिधि के बयान पर हुई प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हिंदू ख़ुद को सनातनी कह लें, पर अपनी आलोचना नहीं सुन सकते. फिर वे उदार कैसे हुए? 

2023 का भारत 1938 का जर्मनी बन चुका है, यह बार-बार साबित हो रहा है

मुज़फ़्फ़रनगर की अध्यापिका से पूछ सकते हैं कि वे छात्र के लिए ‘मोहम्मडन’ विशेषण क्यों प्रयोग कर रही हैं? वे कह सकती हैं कि उनकी सारी चिंता मुस्लिम बच्चों की पढ़ाई को लेकर थी. मुमकिन है कि इसका इस्तेमाल इस प्रचार के लिए हो कि मुस्लिम शिक्षा के प्रति गंभीर नहीं हैं और उन्हें जब तक दंडित न किया जाए, वे नहीं सुधरेंगे.

15 अगस्त 1947 के भारत के मुक़ाबले आज देश कहीं अधिक विभाजित है

हिंदुस्तान में जगह-जगह दरारें पड़ रही हैं या पड़ चुकी हैं. यह कहना बेहतर होगा कि ये दरारें डाली जा रही हैं. पिछले विभाजन को याद करने से बेहतर क्या यह न होगा कि हम अपने वक़्त में किए जा रहे धारावाहिक विभाजन पर विचार करें और उसे रोकने को कुछ करें? 

पीएम के भाषण पर भले तालियां बजें, जनता को अपने शासक की क्रूर आत्ममुग्धता से चिंतित होना चाहिए

अफ़सोस की बात थी कि जिस वक़्त संसद में सरकार के लोग ठिठोली, छींटाकशी कर रहे थे जब मणिपुर में लाशें 3 महीने से दफ़न किए जाने का इंतज़ार रही हैं. इतनी बेरहमी और इतनी बेहिसी के साथ कोई समाज किस कदर और कितने दिन ज़िंदा रह सकता है?

राष्ट्रगान न गाने पर सज़ा: किसी का सम्मान करने को बाध्य कैसे किया जा सकता है

भारत का कश्मीर के साथ रिश्ता इंसानी रिश्ता नहीं है. वह ताक़तवर और कमज़ोर का संबंध है. कमज़ोर जब चीख नहीं सकता तो ख़ामोश रहकर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है. ताक़तवर के पास उसे इसकी सज़ा देने की ताक़त है.

किसी एक के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करते हुए ‘बुलडोज़र न्याय’ का विरोध कैसे होगा?

शुक्ला और त्यागी के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करने के पहले यह सोच लेना चाहिए कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ौरी कार्रवाई का औचित्य बन जाएगा. अब खुलकर बुलडोज़र का इस्तेमाल होगा. सरकारें यह करके कह सकेंगी कि वे कोई भेदभाव नहीं करतीं.

बहुसंख्यकवाद असलियत था, है और उसका ख़तरा भी असली है

बहुसंख्यकवाद का जो मतलब मुस्लिमों के लिए है, वह हिंदुओं के लिए नहीं. वे कभी उसकी भयावहता महसूस नहीं कर सकते. मसलन, डीयू के शताब्दी समारोह में जय श्री राम सुनकर हिंदुओं को वह भय नहीं लग सकता जो मुसलमानों को लगेगा क्योंकि उन्हें याद है कि उन पर हमला करते वक़्त यही नारा लगाया जाता है.

इस मुल्क में हम मुसलमानों को मुजरिम मानकर कार्यवाही कर रहे हैं: प्रो. अपूर्वानंद

वीडियो: जेएनयू के पूर्व छात्र उमर ख़ालिद ने वर्ष 2020 में उत्तर-पूर्व दिल्ली में भड़के दंगों से जुड़े एक मामले में जेल में 1,000 दिन पूरे कर लिए हैं. बीते दिनों उनकी रिहाई की मांग और उनके समर्थन में हुई एक सभा में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने अपने विचार रखे.

नेहरू ने सेंगोल को संग्रहालय में रखवाकर उसका तिरस्कार नहीं किया था

जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी के समय तमिलनाडु के अधीनम (शैव मठ) के पुराहितों के द्वारा सेंगोल को तो ले लिया, लेकिन उसके पीछे के विचार से असहमति के कारण उसको संग्रहालय में रखवा दिया, ताकि भविष्य में अध्येता यह समझ सकें कि भारतीय जनतंत्र का जन्म अनेक परस्पर विरोधी विचारों के बीच हुआ है.

क्या दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू जैसे कैंपस हिंदुत्व के प्रशिक्षण केंद्र में शेष हो जाएंगे

कुछ वक़्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है.

‘द केरला स्टोरी’ से मुसलमान विरोधी घृणा प्रचार के लिए अन्य फ़िल्मकारों को प्रेरणा मिलेगी

फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ के बाद ‘द केरला स्टोरी’ का बनाया जाना एक सिलसिले की शुरुआत है. कम पैसों में, ख़राब अभिनय और निर्देशन के बावजूद सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार के विषय के सहारे अच्छी कमाई हो सकती है, क्योंकि ऐसी फ़िल्मों के प्रचार में अब राज्य की मशीनरी और भाजपा का एक पूरा तंत्र काम करता है. 

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