जब नौ साल की उम्र में कोरेगांव गए आंबेडकर को जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा

प्रासंगिक: अपनी किताब ‘वेटिंग फॉर अ वीज़ा’ में भीमराव आंबेडकर ने 1901 में कोरेगांव यात्रा के दौरान हुए छुआछूत के कटु अनुभव पर विस्तार से चर्चा की है.

/
(फोटो साभार: फेसबुक)

हमारा परिवार मूल रूप से बॉम्बे प्रेसिडेंसी के रत्नागिरी जिले में स्थित डापोली तालुके का निवासी है. ईस्ट इंडिया कंपनी का राज शुरू होने के साथ ही मेरे पुरखे अपने वंशानुगत धंधे को छोड़कर कंपनी की फौज में भर्ती हो गए थे.मेरे पिता ने भी परिवार की परंपरा के मुताबिक फौज में नौकरी कर ली. वे अफसर की रैंक तक पहुंचे और सूबेदार के पद से सेवनिवृत्त हुए. सेवानिवृत्ति के बाद मेरे पिता परिवार के साथ डापोली गए, ताकि वहां पर फिर से बस जाएं. लेकिन कुछ वजहों से उनका मन बदल गया. परिवार डापोली से सतारा आ गया, जहां हम 1904 तक रहे.

मेरी याददाश्त के मुताबिक पहली घटना 1901 की है, जब हम सतारा में रहते थे. मेरी मां की मौत हो चुकी थी. मेरे पिता सतारा जिले में खाटव तालुके के कोरेगांव में खजांची की नौकरी पर थे, वहां बंबई की सरकार अकाल पीड़ित किसानों को रोजगार देने के लिए तालाब खुदवा रही थी. अकाल से हजारों लोगों की मौत हो चुकी थी.

मेरे पिता जब कोरेगांव गए तो मुझे, मेरे बड़े भाई और मेरी बड़ी बहन के दो बेटों को (बहन की मौत हो चुकी थी) मेरी काकी और कुछ सहृदय पड़ोसियों के जिम्मे छोड़ गए. मेरी काकी काफी भली थीं लेकिन हमारी खास मदद नहीं कर पाती थीं.

वे कुछ नाटी थीं और उनके पैरों में तकलीफ थी, जिससे वे बिना किसी सहारे के चल-फिर नहीं पाती थीं. अक्सर उन्हें उठा कर ले जाना पड़ता था. मेरी बहनें भी थीं. उनकी शादी हो चुकी थी और वे अपने परिवार के साथ कुछ दूर पर रहती थीं.

खाना पकाना हमारे लिए एक समस्या थी. खासकर इसलिए कि हमारी काकी शारीरिक असहायता के कारण काम नहीं कर पाती थीं. हम चार बच्चे स्कूल भी जाते थे और खाना भी पकाते थे. लेकिन हम रोटी नहीं बना पाते थे इसलिए पुलाव से काम चलाते थे. वह बनाना सबसे असान था क्योंकि चावल और गोश्त मिलाने से ज्यादा इसमें कुछ नहीं करना पड़ता था.

मेरे पिता खजांची थे इसलिए हमें देखने के लिए सतारा से आना उनके लिए संभव नहीं हो पाता था. इसलिए उन्होंने चिट्ठी लिखी कि हम गर्मियों की छुट्टियों में कोरेगांव आ जाएं. हम बच्चे यह सोचकर ही काफी उत्तेजित हो गए, क्योंकि तब तक हममें से किसी ने भी रेलगाड़ी नहीं देखी थी.

भारी तैयारी हुई. सफर के लिए अंग्रेजी स्टाइल के नए कुर्ते, रंग-बिरंगी नक्काशीदार टोपी, नए जूते, नई रेशमी किनारी वाली धोती खरीदी गई. मेरे पिता ने यात्रा का पूरा ब्यौरा लिखकर भेजा था और कहा था कि कब चलोगे यह लिख भेजना ताकि वे रेलवे स्टेशन पर अपने चपरासी को भेज दें जो हमें कोरेगांव तक ले जाएगा.

इसी इंतजाम के साथ मैं, मेरा भाई और मेरी बहन का बेटा सतारा के लिए चल पड़े. काकी को पड़ोसियों के सहारे छोड़ आए जिन्होंने उनकी देखभाल का वायदा किया था.

रेलवे स्टेशन हमारे घर से दस मील दूर था इसलिए स्टेशन तक जाने के लिए तांगा किया गया. हम नए कपड़े पहन कर खुशी में झूमते हुए घर से निकले लेकिन काकी हमारी विदाई पर अपना दुख रोक नहीं सकीं और जोर-जोर से रोने लगीं.

हम स्टेशन पहुंचे तो मेरा भाई टिकट ले आया और उसने मुझे व बहन के बेटे को रास्ते में खर्च करने के लिए दो-दो आना दिए. हम फौरन शाहखर्च हो गए और पहले नींबू-पानी की बोतल खरीदी. कुछ देर बाद गाड़ी ने सीटी बजाई तो हम जल्दी-जल्दी चढ़ गए, ताकि कहीं छूट न जाएं. हमें कहा गया था कि मसूर में उतरना है, जो कोरेगांव का सबसे नजदीकी स्टेशन है.

ट्रेन शाम को पांच बजे मसूर में पहुंची और हम अपने सामान के साथ उतर गए. कुछ ही मिनटों में ट्रेन से उतरे सभी लोग अपने ठिकाने की ओर चले गए. हम चार बच्चे प्लेटफार्म पर बच गए. हम अपने पिता या उनके चपरासी का इंतजार कर रहे थे. काफी देर बाद भी कोई नहीं आया.

घंटा भर बीतने लगा तो स्टेशन मास्टर हमारे पास आया. उसने हमारा टिकट देखा और पूछा कि तुम लोग क्यों रुके हो. हमने उन्हें बताया कि हमें कोरेगांव जाना है और हम अपने पिता या उनके चपरासी का इंतजार कर रहे हैं. हम नहीं जानते कि कोरेगांव कैसे पहुंचेंगे.

हमने कपड़े-लत्ते अच्छे पहने हुए थे और हमारी बातचीत से भी कोई नहीं पकड़ सकता था कि हम अछूतों के बच्चे हैं. इसलिए स्टेशन मास्टर को यकीन हो गया था कि हम ब्राह्मणों के बच्चे हैं. वे हमारी परेशानी से काफी दुखी हुए.

लेकिन हिंदुओं में जैसा आम तौर पर होता है, स्टेशन मास्टर पूछ बैठा कि हम कौन हैं. मैंने बिना कुछ सोचे-समझे तपाक से कह दिया कि हम महार हैं (बंबई प्रेसिडेंसी में महार अछूत माने जाते हैं). वह दंग रह गया. अचानक उसके चेहरे के भाव बदलने लगे.

हम उसके चेहरे पर वितृष्णा का भाव साफ-साफ देख सकते थे. वह फौरन अपने कमरे की ओर चला गया और हम वहीं पर खड़े रहे. बीस-पच्चीस मिनट बीत गए, सूरज डूबने ही वाला था. हम हैरान-परेशान थे.

यात्रा के शुरुआत वाली हमारी खुशी काफूर हो चुकी थी. हम उदास हो गए. करीब आधे घंटे बाद स्टेशन मास्टर लौटा और उसने हमसे पूछा कि तुम लोग क्या करना चाहते हो. हमने कहा कि अगर कोई बैलगाड़ी किराए पर मिल जाए तो हम कोरेगांव चले जाएंगे, और अगर बहुत दूर न हो तो पैदल भी जा सकते हैं.

वहां किराए पर जाने के लिए कई बैलगाड़ियां थीं लेकिन स्टेशन मास्टर से मेरा महार कहना गाड़ीवानों को सुनाई पड़ गया था और कोई भी अछूत को ले जाकर अपवित्र होने को तैयार नहीं था. हम दूना किराया देने को तैयार थे लेकिन पैसों का लालच भी काम नहीं कर रहा था.

हमारी ओर से बात कर रहे स्टेशन मास्टर को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. अचानक उसके दिमाग में कोई बात आई और उसने हमसे पूछा, ‘क्या तुम लोग गाड़ी हांक सकते हो?’ हम फौरन बोल पड़े, ‘हां, हम हांक सकते हैं.’

यह सुनकर वह गाड़ीवानों के पास गया और उनसे कहा कि तुम्हें दोगुना किराया मिलेगा और गाड़ी वे खुद चलाएंगे. गाड़ीवान खुद गाड़ी के साथ पैदल चलता रहे. एक गाड़ीवान राजी हो गया. उसे दूना किराया मिल रहा था और वह अपवित्र होने से भी बचा रहेगा.

शाम करीब 6.30 बजे हम चलने को तैयार हुए. लेकिन हमारी चिंता यह थी कि यह आश्वस्त होने के बाद ही स्टेशन छोड़ा जाए कि हम अंधेरे के पहले कोरेगांव पहुंच जाएंगे. हमने गाड़ीवान से पूछा कि कोरेगांव कितनी दूर है और कितनी देर में पहुंच जाएंगे.

उसने बताया कि तीन घंटे से ज्यादा नहीं लगेगा. उसकी बात पर यकीन करके हमने अपना सामान गाड़ी पर रखा और स्टेशन मास्टर को शुक्रिया कहकर गाड़ी में चढ़ गए. हममें से एक ने गाड़ी संभाली और हम चल पड़े. गाड़ीवान बगल में पैदल चल रहा था.

स्टेशन से कुछ दूरी पर एक नदी थी. बिलकुल सूखी हुई, उसमें कहीं-कहीं पानी के छोटे-छोटे गड्ढे थे. गाड़ीवान ने कहा कि हमें यहां रुककर खाना खा लेना चाहिए, वरना रास्ते में कहीं पानी नहीं मिलेगा.

हम राजी हो गए. उसने किराए का एक हिस्सा मांगा ताकि बगल के गांव में जाकर खाना खा आए. मेरे भाई ने उसे कुछ पैसे दिए और वह जल्दी आने का वादा करके चला गया.

भीमा-कोरेगांव में बना विजय स्तंभ. भीमा-कोरेगांव की लड़ाई में पेशवा बाजीराव द्वितीय पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने जीत दर्ज की थी. इसकी याद में कंपनी ने विजय स्तंभ का निर्माण कराया था, जो दलितों का प्रतीक बन गया. कुछ विचारक और चिंतक इस लड़ाई को पिछड़ी जातियों के उस समय की उच्च जातियों पर जीत के रूप में देखते हैं. हर साल 1 जनवरी को हजारों दलित लोग श्रद्धाजंलि देने यहां आते हैं. (फोटो साभार: विकीपीडिया)

हमें भूख लगी थी. काकी ने पड़ोसी औरतों से हमारे लिए रास्ते के लिए कुछ अच्छा भोजन बनवा दिया था. हमने टिफिन बॉक्स खोला और खाने लगे.

अब हमें पानी चाहिए था. हममें से एक नदी वाले पानी के गड्ढे की ओर गया. लेकिन उसमें से तो गाय-बैल के गोबर और पेशाब की बदबू आ रही थी. पानी के बिना हमने आधे पेट खाकर ही टिफिन बंद कर दिया और गाड़ीवान का इंतजार करने लगे. काफी देर तक वह नहीं आया. हम चारों ओर उसे देख रहे थे.

आखिरकार वह आया और हम आगे बढ़े. चार-पांच मील हम चले होंगे कि अचानक गाड़ीवान कूदकर गाड़ी पर बैठ गया और गाड़ी हांकने लगा. हम चकित थे कि यह वही आदमी है जो अपवित्र होने के डर से गाड़ी में नहीं बैठ रहा था लेकिन उससे कुछ पूछने की हिम्मत हम नहीं कर पाए. हम बस जल्दी से जल्दी कोरेगांव पहुंचना चाहते थे.

लेकिन जल्दी ही अंधेरा छा गया. रास्ता नहीं दिख रहा था. कोई आदमी या पशु भी नजर नहीं आ रहा था. हम डर गए. तीन घंटे से ज्यादा हो गए थे. लेकिन कोरेगांव का कहीं नामोनिशान तक नहीं था. तभी हमारे मन में यह डर पैदा हुआ कि कहीं यह गाड़ीवान हमें ऐसी जगह तो नहीं ले जा रहा है कि हमें मारकर हमारा सामान लूट ले. हमारे पास सोने के गहने भी थे.

हम उससे पूछने लगे कि कोरेगांव और कितना दूर है. वह कहता जा रहा था, ‘ज्यादा दूर नहीं है, जल्दी ही पहुंच जाएंगे. रात के दस बज चुके थे. हम डर के मारे सुबकने लगे और गाड़ीवान को कोसने लगे. उसने कोई जवाब नहीं दिया.

अचानक हमें कुछ दूर पर एक बत्ती जलती दिखाई दी. गाड़ीवान ने कहा, ‘वह देखो, चुंगी वाले की बत्ती है. रात में हम वहीं रुकेंगे. हमें कुछ राहत महसूस हुई. आखिर दो घंटे में हम चुंगी वाले की झोपड़ी तक पहुंचे.

यह एक पहाड़ी की तलहटी में उसके दूसरी ओर स्थित थी. वहां पहुंचकर हमने पाया कि बड़ी संख्या में बैलगाड़ियां वहां रात गुजार रही हैं. हम भूखे थे और खाना खाना चाहते थे लेकिन पानी नहीं था. हमने गाड़ीवान से पूछा कि कहीं पानी मिल जाएगा.

उसने हमें चेताया कि चुंगी वाला हिंदू है और अगर हमने सच बोल दिया कि हम महार हैं तो पानी नहीं मिल पाएगा. उसने कहा, ‘कहो कि तुम मुसलमान हो और अपनी तकदीर आजमा लो.’

उसकी सलाह पर मैं चुंगी वाले की झोपड़ी में गया और पूछा कि थोड़ा पानी मिल जाएगा. उसने पूछा, ‘कौन हो? मैंने कहा कि हम मुसलमान हैं. मैंने उससे उर्दू में बात की जो मुझे अच्छी आती थी. लेकिन यह चालाकी काम नहीं आई.

उसने रुखाई से कहा, ‘तुम्हारे लिए यहां पानी किसने रखा है? पहाड़ी पर पानी है जाओ वहां से ले आओ. मैं अपना-सा मुंह लेकर गाड़ी के पास लौट आया. मेरे भाई ने सुना तो कहा कि चलो सो जाओ.

बैल खोल दिए गए और गाड़ी जमीन पर रख दी गई. हमने गाड़ी के निचले हिस्से में बिस्तर डाला और जैसे-तैसे लेट गए. मेरे दिमाग में चल रहा था कि हमारे पास भोजन काफी है, भूख के मारे हमारे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं लेकिन पानी के बिना हमें भूखे सोना पड़ रहा है और पानी इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि हम अछूत हैं.

मैं यही सोच रहा था कि मेरे भाई के मन में एक आशंका उभर आई. उसने कहा कि हमें एक साथ नहीं सोना चाहिए, कुछ भी हो सकता है इसलिए एक बार में दो लोग सोएंगे और दो लोग जागेंगे. इस तरह पहाड़ी के नीचे हमारी रात कटी.

तड़के पांच बजे गाड़ीवान आया और कहने लगा कि हमें कोरेगांव के लिए चल देना चाहिए. हमने मना कर दिया और उससे आठ बजे चलने को कहा. हम कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे. वह कुछ नहीं बोला.

आखिर हम आठ बजे चले और 11 बजे कोरेगांव पहुंचे. मेरे पिता हम लोगों को देखकर हैरान थे. उन्होंने बताया कि उन्हें हमारे आने की कोई सूचना नहीं मिली थी. हमने कहा कि हमने चिट्ठी भेजी थी. बाद में पता चला कि मेरे पिता के नौकर को चिट्ठी मिली थी लेकिन वह उन्हें देना भूल गया.

इस घटना की मेरे जीवन में काफी अहमियत है. मैं तब नौ साल का था. इस घटना की मेरे दिमाग पर अमिट छाप पड़ी. इसके पहले भी मैं जानता था कि मैं अछूत हूं और अछूतों को कुछ अपमान और भेदभाव सहना पड़ता है.

मसलन, स्कूल में मैं अपने बराबरी के साथियों के साथ नहीं बैठ सकता था. मुझे एक कोने में अकेले बैठना पड़ता था. मैं यह भी जानता था कि मैं अपने बैठने के लिए एक बोरा रखता था और स्कूल की सफाई करने वाला नौकर वह बोरा नहीं छूता था क्योंकि मैं अछूत हूं. मैं बोरा रोज घर लेकर जाता और अगले दिन लाता था.

स्कूल में मैं यह भी जानता था कि ऊंची जाति के लड़कों को जब प्यास लगती तो वे मास्टर से पूछकर नल पर जाते और अपनी प्यास बुझा लेते थे. पर मेरी बात अलग थी. मैं नल को छू नहीं सकता था. इसलिए मास्टर की इजाजत के बाद चपरासी का होना जरूरी था. अगर चपरासी नहीं है तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था.

घर में भी कपड़े मेरी बहन धोती थी. सतारा में धोबी नहीं थे, ऐसा नहीं था. हमारे पास धोबी को देने के लिए पैसे नहीं हो, ऐसी बात भी नहीं थी. हमारी बहन को कपड़े इसलिए धोने पड़ते थे क्योंकि हम अछूतों का कपड़ा कोई धोबी धोता नहीं था. हमारे बाल भी मेरी बड़ी बहन काटती थी क्योंकि कोई नाई हम अछूतों के बाल नहीं काटता था.

मैं यह सब जानता था. लेकिन उस घटना से मुझे ऐसा झटका लगा जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था. उसी से मैं छुआछूत के बारे में सोचने लगा. उस घटना के पहले तक मेरे लिए सब कुछ सामान्य-सा था, जैसा कि सवर्ण हिंदुओं और अछूतों के साथ आम तौर पर होता है.

(साभार: हिंदी समय, अनुवाद: सविता पाठक )

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games pkv games bandarqq dominoqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq https://sayalab.com.mx/lab/pkv-games/ https://sayalab.com.mx/lab/dominoqq/ https://sayalab.com.mx/lab/bandarqq/ https://blog.penatrilha.com.br/penatri/pkv-games/ https://blog.penatrilha.com.br/penatri/bandarqq/ https://blog.penatrilha.com.br/penatri/dominoqq/ http://dierenartsgeerens-mechelen.be/fileman/Uploads/logs/bocoran-admin-jarwo/ https://www.bumiwisata-indonesia.com/site/bocoran-admin-jarwo/ http://dierenartsgeerens-mechelen.be/fileman/Uploads/logs/depo-25-bonus-25/ http://dierenartsgeerens-mechelen.be/fileman/Uploads/logs/depo-50-bonus-50/ https://www.bumiwisata-indonesia.com/site/slot77/ https://www.bumiwisata-indonesia.com/site/kakek-merah-slot/ https://kis.kemas.gov.my/kemas/kakek-merah-slot/