संस्मरण: मां जब छोटी थी तभी उनकी शादी करा दी गई. मां बड़ी हुईं तो उनकी सास ने उन्हें कोलकाता के एक कोठे पर बिठा दिया. सास और उनके बेटे का धंधा छोटी लड़कियों को ब्याह कर सोनागाछी में बेचने का था.
एक बार जब मेरी मां कोलकाता से मुंबई मुझसे मिलने आयी, तो उन्होंने मुझसे पूछा, ‘ये कंप्यूटर-इंटरनेट पर कितने सारे लोगों की तस्वीरें आती हैं, तूने मेरी फोटो क्यों नहीं लगाई?’
उन्हें लगा कि मैंने उनसे शर्मिंदा होकर उनकी तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर नहीं की है, लेकिन मैंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं था और चूंकि मुझे सेल्फी लेने में खास दिलचस्पी नहीं है तो वह बात इसी तरह आई-गई हो गई.
मां ने गिन-चुनकर कुछ ही फोटो के लिए पोज़ किया है. उनकी जिंदगी का सबसे पहला फोटो शूट शायद तब का है, जब बचपन में ही उनकी शादी करवा दी गयी थी. तब उन्हें शायद यह एहसास और समझ भी नहीं थी कि वे शादीशुदा हैं.
उस फोटो को देखकर लगता है कि उनकी उम्र 10 साल या उससे भी कम है. उस फोटो में उनके बगल में एक नौजवान खड़ा है. स्टूडियो में लिया गया वह फोटोग्राफ एक सबूत है कि शादी जायज़ है. हालांकि अगर सही नज़र से देखा जाए तो वह फोटोग्राफ एक सबूत है कि इस तरीके की शादी कानूनन जुर्म है.
मां की मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र और आंखों में एक जाना-पहचाना खालीपन है- एक बच्ची की बेजारी का, जो यह पूछ नहीं सकती कि वह यहां क्या कर रही है? इस बारे में पूछ भी कैसे सकती है, जब कोई अपना उसके पास है ही नहीं.
पुणे के कंजरभात समाज में जहां आज भी बेटियां मुसीबत का जड़ मानी जाती हैं, मेरी मां एक ऐसे परिवार में जन्मी जिस घर में अनाज के दाने से ज्यादा बेटियां पैदा हो गयी. बेटियों की लाइन इस उम्मीद में लग गयी के एक बेटे का सुख मिल जाए तो बच्चे-बनाने वाली मशीन यानी मेरी नानी सांस ले सके.
जब खाने को निवाला कम पढ़ने लगा तो तुरंत सबकी शादी करा दी गयी. मां का बनड़ा (समाज की भाषा में दूल्हा) आगरा से था. वह आगरा का ताजमहल दिखाने से रहा, अपने घर पर काम करवाकर कुछ सालों तक मां को खटाया और खूब सताया. उस दौर के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ठीक रहेगा. बहुत मुश्किल है उस समय को दोहराना.
आगरा में जब मां बड़ी हुई तो उनकी सास ने उन्हें कोलकाता के एक कोठे पर बिठा दिया. आगरा की कालकोठरी से कोलकाता की रंगीन गालियां ही सही. सास और बेटे का धंधा छोटी लड़कियों को ब्याह कर सोनागाछी में बेचने का था.
यहां मां की किस्मत अच्छी निकली कि वह तब नाबालिग नहीं थीं. कोठे पर उन्हें नाचना और गाना सिखाया गया ताकि वह मुजरा कर सकें.
अपनी किस्मत से लड़ने की बजाय मां ने उसे गले लगा लिया. जिसने कभी स्कूल न देखा हो, जिसने अपने नाम का अक्षर तक न समझा हो, वह औरत अगर अपनी मर्जी के खिलाफ ऐसी जगह पहुंच जाए, जहां से निकलने का कोई सुराख तक न दिखे, तो वह वहां से भागकर करेगी भी क्या?
क्या आसान है उसके लिए एक इज्जत की रोटी कमाना? क्या कंजरभात समाज खुद उसे सम्मान देकर एक नए सिरे से दूसरा मौका देगा? क्या लोग उसे अपने फैसले खुद करने देंगे? इन सबके बावजूद मां ने अपने सारे फैसले खुद किये. अपने सम्मान और अपने परिवारवालों के सम्मान के लिए.
उन्होंने कोठे पर काम करके अपने परिवार को उस माहौल से दूर रखा, छोटी बहनों को पढ़ाया, उनकी शादी कराकर उन्हें कोठे से बचाया. यहां तक कि नौ बेटियों के बाद पैदा हुए छोटे भाई को पढ़ा-लिखाकर, शादी करवा कर उसका घर बसाया.
यह सब एक ऐसी औरत कर रही थी जो खुद इन खुशियों से महरूम थी- और शायद यही वजह थी कि वो इसका अर्थ और महत्व समझती थी.
1980 के दौर में जब हम कोलकाता के बउबाजार और मुंबई में कांग्रेस हाउस के कोठे में रहे थे. तब वहां के कोठों का माहौल ऐसा था, जहां ग़ज़लें गाई जाती थीं, जहां कथक मशहूर हुआ करता था, जहां गुंडे-मवाली कभी-कभार शराफत से पेश आते थे.
उस माहौल को अच्छा नहीं समझा जाता था, पर मेरे लिए वह इसलिए बुरा नहीं था क्योंकि मैंने कोई और माहौल देखा ही नहीं था. कैसा होगा वो माहौल जहां हर चीज सही हो? मुझे जो दिखा वो गलत कैसे हो सकता है, जब मैंने कुछ सही देखा ही न हो? जो मेरे घर में था फिर वो गलत कैसे हो सकता था?
मेरा ऐसा सोचना सही इसलिए भी था क्योंकि शिक्षा से ही एक बच्चे का दिमाग बढ़ता है और तब ही उसमें समझ आती है- मैं यह भी मानता हूं कि ऐसा कहना मेरे लिए आसान है- क्योंकि मैंने खुद इसे समझ लेना आसान बनाया. यह हर किसी के बस की बात नहीं.
मेरे साथ और भी बच्चे थे कोठे में पर सब का नसीब एक जैसा तो नहीं होता है- खुद बनाना पड़ता है- जो शायद मैंने तब किया जब मां ने मुझे दार्जिलिंग के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिला दिलाया. यही वो वजह थी, जिससे मुझे दोनों दुनिया को समझने की समझ मिली.
स्कूल में पढ़ाई की और घर पर पढ़ाई पर ही ध्यान दिया. जो कोठे के दूसरे बच्चे शिक्षा के बावजूद नहीं कर सके. पर इसमें उनकी उतनी ही गलती है जितनी उस समाज की, जहां उनका कोई मोल नहीं है. शायद मैंने बिना कुछ सोचे-समझे इस सोच को बदलने का प्रयास किया सिर्फ अपनी शिक्षा पर ध्यान देकर.
घर में तबला, बाजा, घुंघरू देख-सुनकर, मुझे बहुत शौक होता कि नाचूं, गाऊं, पर मां के मन में एक ही लौ थी कि मैं पढ़-लिखकर एक अच्छा इंसान बनूं. फिर बढ़ते-बढ़ते पढ़ाई-लिखाई में इतना कुछ खास नहीं निकला, कॉलेज तक तो पढ़ाई से बोर हो गया, खराब मार्क्स आने लगे, लेकिन तब तक खुद पर विश्वास हो गया था कि अच्छे से अंग्रेजी बोल लेता हूं और लिखने का बहुत शौक है. ऐसे में कुछ तो कर ही लूंगा.
बचपन से एक ही ख्वाहिश थी कि किसी रोज एक दिन एक किताब लिखूं. वो ख्वाहिश अब पूरी हो गई है. मैं कई सालों से एक पत्रकार के बतौर नौकरी करता आया हूं. मिड डे, द हिंदू जैसे अखबारों के लिए रिपोर्टिंग की. स्क्रॉल वेबसाइट के लिए काम किया. इस महीने मेरी किताब आने वाली है लीन डेज़ (Lean Days). यह एक ट्रेवल-फिक्शन नॉवेल है.
यह सब इसलिए मुमकिन हो सका क्योंकि मां ने मुझे पांच साल की उम्र में बोर्डिंग स्कूल में भर्ती करवाया, जहां मैंने अंग्रेज़ी सीखी. मुझे ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ी एक ऐसी भाषा है, जिसके जरिये हम पूरी दुनिया तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं.
महिला दिवस के मौके पर अगर हम ऐसी मां को सलाम करें, जो अब तक गुमनाम रही है.