केदारनाथ सिंह की कविताओं में सबसे अधिक आया हुआ बिंब वह है जो ‘जोड़ता’ है. उन्हें वह हर चीज़ पसंद थी जो जोड़ती है. वो चाहे सड़क हो या पुल, शब्द हो या सड़क, जो लोगों को मिलाती है, उनकी आंखों में एक छवि बनकर तैरती रहती और फिर पिघलकर कविता में ढल जाती.
अज्ञेय ने जब ‘तीसरा सप्तक’ का संपादन किया तो उसमें शामिल केदारनाथ सिंह ने अपने आत्म परिचय में लिखा, ‘कविता संगीत और अकेलापन, तीन चीजें मुझे बेहद प्रिय हैं. हर लंबे दिन के बाद जब लौट कर आता हूं तो कुछ देर तक कमरे के दानव से लड़ना पड़ता है. पराजित कोई नहीं होता, पर समझौता भी कोई नहीं करता. शायद हम दोनों को यह विश्वास है कि हमारे बीच एक तीसरा भी है जो अजन्मा है. कौन जाने यह संघर्ष उसी के लिए हो.’
उनकी पूरी कविता अपने समय में इसी ‘तीसरे’ की खोज यात्रा की मजमून है. अब जब वे इस खोज यात्रा में क्लांत हो, अनंत विश्राम के लिए किसी ‘मांझी के पुल’ के नीचे सुस्ताने और बंसी मल्लाह और हल चलाते हुए लालमोहर से गप्प लड़ाने के लिए ठहर गए हैं, चलो आज उनकी इस कविता के इस ‘तीसरे’ को खोज लिया जाए.
उनकी कविता में यह ‘तीसरा’ अलग अलग छवियों में लिपटा हुआ मिलता है. वह ‘बिंबों के कवि’ थे. तीसरे सप्तक में उन्होंने कहा भी था कि कविता की बनावट के स्तर पर वह इस पर ‘सबसे अधिक ध्यान देते थे.’
‘मेरा घर गंगा और घाघरा के बीच में है. घर के ठीक सामने एक छोटा सा नाला है जो दोनों को मिलाता है. मेरे भीतर भी कहीं गंगा और घाघरा की लहरें बराबर टकराती रहती हैं. खुले कछार, मक्का के खेत और दूर-दूर तक फैली पगडंडियों की छाप आज भी मेरे मन पर उतनी ही स्पष्ट है जितनी उस दिन थी, जब मैं पहली बार देहात के ठेठ वातावरण से शहर के धुमैले और शतशः खंडित आकाश के नीचे आया.’
उन मामूरों की ओर उन्होंने खुद इशारा कर दिया था जहां वो शहर के धुमैले परिवेश में रहकर उस तीसरे की खोज शुरू करने वाले थे.
केदारनाथ सिंह की कविताओं में सबसे अधिक आया हुआ बिंब वह है जो ‘जोड़ता’ है. उन्हें वह हर चीज पसंद थी जो जोड़ती है. वो चाहे सड़क हो या पुल, शब्द हो या सड़क. हर चीज जो लोगों को मिलाती है, उनकी आंखों में एक छवि बनकर तैरती रहती और फिर पिघलकर कविता में ढल जाती.
उनके बचपन के दिनों में यूपी और बिहार की सीमा पर ‘सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए’ घाघरा पर बना ‘मांझी का पुल’ उन्हें जीवन भर खींचता रहा!
उन्होंने लिखा,
‘मगर पुल क्या होता है
आदमी को अपनी तरफ क्यों खींचता है पुल?
ऐसा क्यों होता है कि रात की आख़िरी गाड़ी
जब मांझी के पुल की पटरियों पर चढ़ती है
तो अपनी गहरी नींद में भी
मेरी बस्ती का हर आदमी हिलने लगता है?’ [मांझी का पुल (1979)]
और फिर एक खतरनाक डर जो हर एक संजीदा रचनाधर्मी का डर होता है. पुल के भरभराकर गिर जाने का डर! बस्ती के लोगों के लिए उनका भी डर पुल के गिरने का डर था.
‘मैं सोचता हूं
और सोचकर कांपने लगता हूं
उन्हें कैसा लगेगा अगर एक दिन पता चले
वहां नही है मांझी का पुल !
मैं खुद से पूछता हूं
कौन बड़ा है
वह जो नदी पर खड़ा है मांझी का पुल
या वह जो टंगा है लोगों के अंदर?‘
उनका डर ‘शब्द के ठंडे पड़ जाने’ का डर था. एक अंधेरी सड़क पर जब चेहरे ढके हुए और हाथों में कोई धारदार-सी चीज लिए पांच सात स्वस्थ और सुंदर शब्दों ने उन्हें घेर लिया तो एक ‘एक हांफता हुआ कुबड़ा-सा शब्द न जाने कहां से आया और बोला, चलो पहुंचा दूं घर!’ शब्दों में उनकी अटूट आस्था थी. उन्होंने लिखा भी,
‘ठंड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
कई बार मौसम की नमी से
मर जाते हैं शब्द.’ [शब्द (1985)]
‘शब्द’ उनका प्रिय शब्द था जो उनकी कई कविताओं में बार बार आता है. उनके अवचेतन में ‘शब्द’ मानो कहीं गहरे धंस गया था. ‘रोटी’ शीर्षक अपनी कविता में वह फसल के दानों का सादृश्य बिंब ‘शब्द’ से जोड़ते हैं.
‘चुप रहने से कोई फायदा नहीं
मैंने दोस्तों से कहा और दौड़ा
सीधे खेतों की ओर
कि शब्द कहीं पक न गए हों!’
वे ‘शब्दों’ की सीमा पहचानते थे. 1978 में लिखी अपनी एक कविता ‘मुक्ति’ में फिर से ‘शब्दों’ ने उन्हें घेर लिया. वे ‘पूरी ताकत के साथ शब्दों को आदमी की तरफ फेंकना चाहते थे.’
‘यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है,
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं.’
अपने समय की मुश्किलातों में उन्होंने लोगों को हालातों से टूटते देखा. वे इस टूटने से खुद टूट जाते थे.
‘मैंने अपने समय के सबसे मजबूत आदमी को
अंधेरे से कूदकर
एक माचिस के अंदर जाते हुए देखा है’
बावजूद इसके उन्हें आदमी के सिर पर भरोसा था, इसलिए एक मजबूत ‘दीवार’ को लेकर वे कहते थे,
‘एक फावड़े की तरह उस से पीठ टिकाकर
एक समूची उम्र काट देने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि
लोहा नहीं
सिर्फ आदमी का सिर उसे तोड़ सकता है.’
केदारनाथ सिंह की कविताओं में प्रकृति के सबसे निर्मल बिंब मिलते हैं. नदी, नालों, खुले जुते पड़े हुए खेतों, पुरवा और पछुवा, चिड़िया, घास और फुनगी से वे कभी दूर नहीं जा पाए.
ठेठ देहाती में वे प्रकृति के प्रति सहज साधुवाद के भाव को पाते थे. ‘गंगा को देखते हुए’ उन्होंने सिर्फ गंगा को ही नहीं देखा, उसके किनारे खड़े एक थके बूढ़े मल्लाह को भी देखा जो एक निष्कपट कृतज्ञता से गंगा के चंचल जल से यूं विदा ले रहा था,
‘मानो उसकी आंखें कहती हों-
अब हो गई शाम
अच्छा भाई पानी
राम !राम!’
चुपचाप बहती कीचड़, सिवार और जलकुंभियों से भरी ‘बिना नाम की नदी’ के पास उन्होंने झुम्मन मियां को बैठे देखा. एकटक निहारकर नदी के नाम की ढूंढते हुए झुम्मन मियां. शहर लोगों की पहचान निगल जाने वाली शै है. फसल के दानों तक को ये पता था, इसीलिए खलिहान छोड़ने से पहले दाने बेचैन थे.
‘नहीं
हम मंडी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने’
उन्होंने हिदायत भी दी,
‘जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे
जाते जाते कहते जाते हैं दाने
अगर लौट कर आये भी
तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे
अपनी अंतिम चिट्ठी में
लिख भेजते हैं दाने’
केदारनाथ सिंह की कविता ‘दानों’ की इसी चिंता की कविता है. आदमी और दानों को बदलकर रख देने वाले बाजार की ताकत के ख़िलाफ़ एक कविता. दाना आदमी के वजूद का प्रतीक है और यह भी उनकी कविता में बार-बार आने वाला शब्द है.
‘बढ़ई और चिड़िया’ शीर्षक की कविता में ‘दाना’ उस लकड़ी के अंदर गिरा पड़ा है जिसे बढ़ई चीर रहा था. दाने की तड़प में आरी जैसे चिड़िया पर चल रही हो. यह बाजार ही है जो हर उस जगह के पास आ खड़ा हुआ है जहां चिड़ियों के दाने गायब हो जाते हैं. चिड़िया का दर्द मानो बाजार में गुम गयी मनुष्यता का दर्द हो गया हो!
‘वह चीर रहा था
और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर
कहीं थी
और चीख रही थी!’
इसलिए जहां-जहां उनकी कविता में ‘शहर’ है, वह नए जमाने के मनुष्य की पूरी पीड़ा का इकबालिया बयान है. उन्हें बनारस पसंद है तो इसलिए कि जब भी,
‘इस शहर में बसंत अचानक आता है
और जब आता है
तो लहरतारा और मडुआडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है’
बनारस में गांव की गंध रची बसी है. वह उन्हें प्रिय है. नहीं तो शहर सभी देशज स्मृतियों के विरुद्ध एक परियोजना है. गांव के गड़रिये का उदास झुर्रियों भरा चेहरा और दिल्ली में उसे अपनी चेतना में लिए लिए घूमना… वे दर्ज करते हैं,
‘मेरे दोस्त, कितना मुश्किल है
भरी सड़क पर
एक पत्ते की तरह उड़ना
और इस शहर दिल्ली में
सुबह से शाम तक
अपनी चेतना के अंदर
एक बूढ़े उदास गड़रिये का चेहरा
लिए लिए फिरना?’
स्मृतियों को जैसे वह संरक्षित कर जीना चाहते हों! स्मृतियों के लिए उनकी दिलखेज तड़प जैसे उनके लिए कोई दवा हो जिसे पीकर वह नूर मियां को याद करते हैं और खुद से सवाल करते हैं,
‘तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह
गेंहुए नूर मियां
ठिगने नूर मियां.’ (सन 47 को याद करते हुए)
केदारनाथ सिंह की कविता बिंबों से आवेशित स्मृतियों की एक विराट तंतुमयी कोलाज है. एक के बाद एक चित्र. शब्द और संवेदना; दोनों को बचाये रखने की एक करुण जद्दोजहद. शहर में खोये इंसान को खोजने की लालसा. वही उनका ‘अजन्मा तीसरा’ है, जो शहर की रेलमपेल में नदी की बीच धार में बने पुल को निहार रहा है.
‘यह कितना अदभुत है
कि पानी भागा जा रहा है
और वहां वह पुल बीच धार में
बांहे उठाये हुए
उसी तरह खड़ा है
बिना ईश्वर के भी!’
अब केदारनाथ सिंह भी एक पुल से होकर गुजर गए. वही पुल जो उन्हें सबसे ज्यादा पसंद थे.
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं.)