पुलिस सुधारों को लेकर प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए निर्देशों पर कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है.
पुलिस सुधारों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लेकर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की अनुपालन स्थिति केे एक आकलन में यह खुलासा हुआ है कि शीर्ष अदालत के निर्देशों को पूरी तरह से किसी भी एक राज्य ने लागू नहीं किया है. सरकारों ने इन निर्देशों को या तो अनदेखा किया है या फिर स्पष्ट रूप से मानने से इनकार कर दिया है या फिर निर्देशों की महत्वपूर्ण विशेषताओं को कमजोर कर दिया है.
यह अध्ययन कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) द्वारा किया गया है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि केवल 18 राज्यों ने 2006 के बाद नए पुलिस एक्ट को पारित किया है जबकि बाकी राज्यों ने सरकारी आदेश/अधिसूचनाएं जारी की हैं लेकिन किसी भी एक राज्य ने अदालत के निर्देशों का पूरे तरीके से पालन नहीं किया है. सीएचआरआई का अध्ययन प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में 2006 को पुलिस सुधारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए निर्देशों को लेकर था.
गौरतलब है कि 1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके पुलिस सुधार की मांग की. याचिका में उन्होंने अपील की थी कि कोर्ट केंद्र व राज्यों को यह निर्देश दे कि वे अपने-अपने यहां पुलिस की गुणवत्ता में सुधार करें और जड़ हो चुकी व्यवस्था को प्रदर्शन करने लायक बनाएं.
इस याचिका पर न्यायमूर्ति वाईके सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनवाई करते हुए 2006 में कुछ दिशा-निर्देश जारी किए. न्यायालय ने केंद्र और राज्यों को सात अहम सुझाव दिए.
इन सुझावों में प्रमुख बिंदु थे- हर राज्य में एक सुरक्षा परिषद का गठन, डीजीपी, आईजी व अन्य पुलिस अधिकारियों का कार्यकाल दो साल तक सुनिश्चित करना, आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करना और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन. कोर्ट के इस दिशा-निर्देश को करीब 12 साल बीत चुके हैं और अब तक कोई कारगर पहल नहीं हो सकी है.
सीएचआरआई ने अपने अध्ययन में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए प्रमुख निर्देशों को राज्यों द्वारा लागू किए जाने की स्थिति की पड़ताल की है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों में सबसे पहले हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में सुरक्षा आयोग के गठन की बात कही गई थी. ताकि राज्य सरकारें पुलिस पर अनावश्यक दबाव न डाल सकें. रिपोर्ट के मुताबिक देश के 29 राज्यों में से 27 में राज्य सुरक्षा आयोग का गठन पुलिस एक्ट या फिर सरकारी आदेश के जरिए किया गया है. लिखित तौैर पर सिर्फ जम्मू कश्मीर और ओडिशा ने राज्य सुरक्षा आयोग का गठन नहीं किया है.
हालांकि जब हम राज्य सुरक्षा आयोग के गठन की प्रक्रिया को देखें तो कई राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया है. 27 में से छह राज्य असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, पंजाब और त्रिपुरा ने राज्य सुरक्षा आयोग में विपक्ष के नेता को शामिल नहीं किया है.
इसी प्रकार, 18 राज्यों में आयोग में स्वतंत्र सदस्यों को शामिल किया गया है, लेकिन उनकी नियुक्तियों के लिए एक स्वतंत्र चयन पैनल का गठन नहीं किया है. वहीं, बिहार, कर्नाटक और पंजाब के राज्य सुरक्षा आयोग में स्वतंत्र सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है.
इसी तरह 29 राज्यों में से केवल आठ राज्य अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल ने सुरक्षा आयोग की वार्षिक रिपोर्ट तैयार की और इसे राज्य विधान मंडल के सामने इसे प्रस्तुत किया.
इसके अलावा डीजीपी व दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लेकर जारी सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश का पालन सिर्फ नगालैंड द्वारा किया गया. 23 राज्यों ने डीजीपी की नियुक्ति को लेकर जारी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया है.
इसी तरह डीजीपी का कार्यकाल कम से कम दो साल होने के निर्देश का पालन सिर्फ चार राज्यों द्वारा किया गया है. वहीं, तीसरे निर्देश इंस्पेक्टर जनरल आॅफ पुलिस, डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल आॅफ पुलिस, सुपरिंटेंडेंट आॅफ पुलिस और स्टेशन हाउस अॉफिसर को कम से कम दो साल के कार्यकाल दिए जाने के निर्देश का पालन सिर्फ छह राज्यों ने किया है.
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करने का काम 12 राज्यों ने नहीं किया है.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन किसी भी राज्य ने नहीं किया है. 12 राज्यों ने अपने यहां पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन किया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया है.
इस मामले में याचिकाकर्ता रहे पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह इस बात को स्वीकार करते हैं कि सरकारें अपने फायदे के लिए पुलिस का दुरुपयोग करती हैं. राज्यसत्ता के पास पुलिस ऐसी ताकत है जो विरोधियों से निपटने से लेकर अपनी नाकामी छुपाने तक में काम आती है. यह एक मुख्य वजह है कि जिसके कारण सरकारें पुलिस प्रणाली में सुधार करने के लिए तैयार नहीं हैं.
द वायर से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘सीएचआरआई से पहले 2008 में गठित थामस कमेटी की रिपोर्ट में भी यही बात कही गई थी कि सुप्रीम कोर्ट के गाइडलांइस का राज्यों ने अनुपालन नहीं किया है. पुलिस रिफार्म को लेकर उसी बात को सीएचआरआई भी दोहरा रही है. 12 साल उस फैसले को बीत चुके हैं. पुलिस सुधार न लागू करने की कोशिश खास तौर से ब्यूरोक्रेसी और राजनीतिक तबके की है. सुप्रीम कोर्ट के सामने यह भी दिखाना है कि हम कुछ कर रहे हैं, इसलिए सिर्फ कागज पर कुछ सुधार हो रहा है. पर वास्तव में वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का सही से पालन नहीं कर रहे हैं.’
वो आगे कहते हैं, ‘पुलिस सुधार न होने से किसी को फायदा नहीं है. बस ब्यूरोक्रेसी और नेता लोग अपनी जमीदारी छोड़ना नहीं चाहते हैं. अभी वह पुलिस को जैसे चाहे वैसा घुमा सकते हैं. तो वह यही जमीदारी नहीं छोड़ना चाहते हैं. स्थिति यह होनी चाहिए कि पुलिस को किसी गलत काम के लिए ये लोग कहें और वह मना कर दे और ये लोग उसका कोई नुकसान भी न कर पाएं. सही मायने में पुलिस तभी स्वायत्त होगी. अभी के हालात यह हैं कि पुलिस का तबादला कर दिया जाता है. उन्हें कई तरीके से परेशान किया जाता है.’
प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘जहां तक बात आजकल पुलिस के सामने आने वाली चुनौतियों को लेकर है तो अगर पुलिस सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को लागू होते तो वह निसंदेह बेहतर तरीके से काम करती. अभी उन्नाव वाले मामले में भी यह बात सामने आई कि पुलिस ने एफआईआर नहीं दर्ज किया जो उसे करना चाहिए था. कही न कही वह सत्ताधारी दल के नेताओं के दबाव में थी. दरअसल सत्ताधारी दलों का इशारा हो जाता है तो पुलिस कमजोर पड़ जाती है. वैसे पुलिस सुधार का यह मतलब नहीं है कि पुलिस स्वतंत्र हो जाए. दरअसल पुलिस सुधार का मतलब यह है कि नीति नियंता यह तय कर दे कि पुलिस कौन-से कानून से चलेगी, किस सिद्धांत का पालन करेगी, उसकी भूमिका क्या होगी, उसके ऊपर जिम्मेदारी क्या रहेगी. उसके बाद पुलिस अपने हिसाब से काम करेगी. ’