बेस्ट ऑफ 2018: प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने अपने बेशकीमती चार साल मुकेश अंबानी जैसे उद्योगपतियों व उनके परिवारों के प्रति अनुराग के प्रदर्शन और आम देशवासियों के तिरस्कार व ‘सबका साथ सबका विकास’ के अपने नारे के द्वेषपूर्ण क्रियान्वयन में बर्बाद कर दिया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की सत्ता संभालने के कुछ ही महीनों बाद 25 अक्टूबर, 2014 को दक्षिण मुंबई में सर एचएन रिलायंस फाउंडेशन अस्पताल का उद्घाटन करने पहुंचे तो सोशल मीडिया पर मुकेश अंबानी व नीता अंबानी के साथ उनकी एक बहुत खूबसूरत तस्वीर वायरल हो गई थी.
यह अस्पताल वास्तव में 90 वर्ष पहले 1925 में स्थापित पहले जनरल अस्पताल का रिलायंस फाउंडेशन द्वारा पुनर्निर्मित 19 मंजिल का अत्याधुनिक टावर रूप है, (रिलायंस उद्योग समूह के बहुचर्चित मालिक मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी रिलायंस फाउंडेशन की अध्यक्ष हैं और उन्होंने इस अस्पताल में दो हेरिटेज विंग भी बनवाए हैं.)
इस तस्वीर में नीता अंबानी के सामने खड़े प्रधानमंत्री ने उनके हाथों को बेहद गर्मजोशी के साथ अपने हाथ में ले रखा था, जबकि मुकेश अंबानी का एक हाथ प्रधानमंत्री की पीठ पर था.
तब ‘जनसत्ता’ के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने, जो इन दिनों ‘राजस्थान पत्रिका’ समूह के सलाहकार संपादक हैं, चुटकी लेते हुए लिखा था, ‘यह पारदर्शिता का जमाना है साहब! पत्रकार नेताओं के प्रति अपना आसक्ति नहीं छिपाते, नेता पूंजीपतियों के प्रति. इनको उनका हाथ अपने सिर पर चाहिए, तो उनको उनका हाथ अपने कंधे पर.’
वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने एक अन्य महत्वपूर्ण टिप्पणी में लिखा था, ‘यह तस्वीर अखबारों में छपी, लेकिन एक दिन बाद. जिस रोज़ खींची गई थी दुर्भाग्य से दबकर रह गई. ‘सेल्फियों’ के बीच में संभवतः आत्ममुग्धता में, पत्रकारों ने अपनी तस्वीरों को तवज्जो दी.
आभासी मीडिया दिनभर उसी मायाजाल में उलझा रह गया. इन ‘सेल्फियों’ की आलोचनाएं जमकर हुईं, लेकिन बात असल तस्वीर पर आई, तो चर्चा शुरू हुई कि तस्वीर अगर कोई है, तो यही है. इससे पहली बार नुमायां हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीठ पर किसका हाथ है, प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो उसे हाथों-हाथ उठाए हुए है?’
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उपाध्याय यहीं नहीं रुके. उन्होंने लिखा, ‘भारत में प्रधानमंत्री अपने पद की शपथ लेते समय कहता है कि वह ‘राग-द्वेष’ से ऊपर होगा. माना जाता है कि उसका कोई मित्र या शत्रु नहीं होगा और वह ख़ुद प्रधानमंत्री के शब्दों में, ‘सबका साथ-सबका विकास’ की दिशा में चलेगा. पर तस्वीर में कुछ और ही था. एक और मुहावरे की तर्ज पर हाथ, अगर कुछ इंच ऊपर, कंधे पर होता तब भी स्वीकार्य न होता. उसे मित्रता का प्रतीक माना जाता.’
उन्होंने आगे लिखा, ‘पहले (प्रधानमंत्री की पीठ के हाथ के बारे में) इशारे में कुछ बातें कही जाती थीं, (कई महानुभाव) अपनी सारी मेधा यह सिद्ध करने में झोंके दे रहे थे कि प्रधानमंत्री की पीठ पर ‘नागपुर’ का हाथ है. उनकी असली ताकत वहीं से आती है. हो सकता है ‘नागपुर’ ख़ुद इससे आश्चर्यचकित हो क्योंकि उसकी ज़मीन तो ‘स्वदेशी जागरण’ है.’
तब मुकेश अंबानी और नीता अंबानी से नज़दीकियों को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय की भी कुछ कम आलोचना नहीं हुई थी. सोशल मीडिया पर तो यहां तक लिखा गया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय पागल हो गया है.
कभी मुकेश अंबानी और कभी उनकी पत्नी नीता अंबानी की बातों और कार्यक्रमों को वाक्य दर वाक्य ट्वीट कर रहा है. एक क्षुब्ध फेसबुक यूज़र ने प्रधानमंत्री को सुझाया था कि अगर उन्हें अंबानी परिवार से इतना ही लगाव है तो वे उसे अपने नाम वाले ट्विटर हैंडल से प्रदर्शित करें क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय भारत के प्रधानमंत्री का है, किसी उद्योगपति की जागीर नहीं.
सच कहूं तो यह सब अकस्मात तब याद आया, जब ख़बर पढ़ी कि नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा ‘इंस्टिट्यूशन ऑफ एमिनेंस’ यानी उत्कृष्ट संस्थान का दर्जा पाने वाले छह संस्थानों में अंबानी परिवार के रिलायंस फाउंडेशन का वह जियो इंस्टिट्यूट भी शामिल है, जिसने अभी जन्म ही नहीं लिया.
ऐसे संस्थानों को केंद्र सरकार की ओर से विशेष फंड और पूर्ण स्वायत्तता दी जाती है और मंत्रालय ने यह जो कारनामा किया है, उससे साफ ज़ाहिर है कि 25 अक्टूबर, 2014 को मुकेश अंबानी का हाथ प्रधानमंत्री की पीठ पर दिखने का मामला एकतरफा नहीं है. दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई. यानी प्रधानमंत्री का हाथ भी मुकेश अंबानी की पीठ पर है और उनका हर तरह का वरदहस्त उन्हें प्राप्त है.
यों, इस सिलसिले में याद करने की कई और चीजें हैं. रिलायंस ने अपनी धमाकेदार जियो 4जी सर्विस लॉन्च की तो देश ने उसके विज्ञापन में भी भारत के प्रधानमंत्री की फोटो देखी.
यह फोटो अद्भुत तो थी ही, अभूतपूर्व भी थी. क्योंकि देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार किसी निजी कंपनी के विज्ञापन में प्रधानमंत्री को ‘माॅडल’ बनाया गया था.
अलबत्ता, डिजिटल इंडिया के गुणगान के बहाने. बाद में मुकेश अंबानी ने नोटबंदी का खुला समर्थन तो किया ही, रिलायंस इंडस्ट्रीज़ की 40वीं सालाना आम बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बारंबार प्रशंसा भी की.
उनके बेटे आकाश और बेटी ईशा ने तो आभार जताने में भी कोताही नहीं की. आज न उनकी रिलायंस गैस के प्रति प्रधानमंत्री की हमदर्दी किसी से छिपी हुई है और न प्रधानमंत्री की नागरिकों से एलपीजी गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील का रिलायंस द्वारा समर्थन.
Yet another landmark quality initiative of @narendramodi Government. The #InstituteofEminence are selected by the Experts Panel & today we are releasing list of 6 universities – 3 each in public and private sector. #TransformingEducation #48MonthsOfTransformingIndia @PIB_India
— Prakash Javadekar (@PrakashJavdekar) July 9, 2018
कई लोग तो यह भी कहते हैं कि नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उनमें बेहतर प्रधानमंत्री के गुण पहले पहले मुकेश अंबानी ने ही देखे थे.
तो क्या इसीलिए अब प्रधानमंत्री उनके उस ‘देखने’ के प्रति ‘हार्दिक कृतज्ञता’ प्रदर्शित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते? ऐसा बहुत संभव है और शायद इसीलिए मध्य प्रदेश के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ को इस सिलसिले में ‘मिडास टच’ और उसकी कहानियां याद हो आई हैं.
वे कहानियां, जिनमें किसी राजा के पास यह शक्ति रहती है कि वह पत्थर भी छूता है, तो वह सोना बन जाता है. दैनिक ने लिखा है कि नरेंद्र मोदी सरकार को मुकेश अंबानी में भी ऐसी ही शक्ति होने का विश्वास है. वह ‘आश्वस्त’ है कि मुकेश जो भी खोलेंगे, मोबाइल सर्विस प्रवाइडर कंपनी या जियो इंस्टिट्यूट, वह सोना हो जाएगा. उनकी इसी शक्ति को देखकर सरकार ने उनके अजन्मे शैक्षणिक संस्थान को छह उत्कृष्ट संस्थानों में शामिल कर लिया है.
वीडियो में देखें: एक अजन्मे संस्थान का ‘श्रेष्ठ’ हो जाना मोदी सरकार में ही संभव था
दैनिक के अनुसार, ‘अमित शाह ने कभी गांधी जी के लिए ‘चतुर बनिया’ विशेषण का इस्तेमाल किया था. गांधी जी में व्यापार की कला कितनी थी पता नहीं, लेकिन मोदी जी में व्यापार के लाभ-हानि को समझने की कला ख़ूब है. वे जानते हैं कि मुकेश अंबानी जो भी काम करेंगे, वह मुनाफे वाला ही होगा, इसलिए उनका जो जियो इंस्टिट्यूट अगले 2-3 सालों में अस्तित्व में आएगा, उसे अभी से उत्कृष्ट मान लिया है.’
भले ही उनके मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक को उसके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता. उसके पास तो जियो इंस्टिट्यूट की कोई तस्वीर तक नहीं है. हो भी कैसे सकती है?
इसीलिए उत्कृष्ट संस्थानों में उसके ऐलान के वक्त उसे रिलायंस फाउंडेशन द्वारा बनाए गए उसके पोस्टर से काम चलाना पड़ा. तिस पर मंत्रालय द्वारा दी गई सफाई भी कुछ कम नहीं है.
उसके अनुसार यूजीसी रेगुलेशन 2017 के क्लॉज 6.1 में लिखा है कि इस प्रोजेक्ट में बिल्कुल नए या हालिया स्थापित संस्थानों को भी शामिल किया जा सकता है क्योंकि इसका उद्देश्य निजी संस्थानों को अंतरराष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक ढांचे तैयार करने के लिए बढ़ावा देना है, ताकि देश को इसका लाभ मिल सके.
यों, अजन्मे जियो इंस्टिट्यूट को लेकर इस सरकारी ‘आश्वस्ति’ को एकदम से निराधार नहीं कहा जा सकता. अगर किसी संस्थान को धन की उपलब्धता से उत्कृष्ट बनाया जा सकता हो तो कोई भी आश्वस्त हो सकता है कि जियो इंस्टिट्यूट में दुनिया भर की ख़ासियतें होंगी क्योंकि रिलायंस ग्रुप के पास धन की कोई कमी नहीं है. संसाधनों की भी नहीं.
शायद इसीलिए ‘देशबंधु’ का निष्कर्ष है, ‘जिस तरह समाज के अति उच्च तबके के लोग ही रिलायंस के बनाए स्कूल या अस्पताल में जा पाते हैं, उसी तरह इस इंस्टिट्यूट में भी अमीरों में अमीर विद्यार्थी ही पढ़ने आएंगे. अलबत्ता, रिलांयस समूह समाजसेवा के नाम पर कुछ वंचित बच्चों को भी मौका दे देगा. हां, वे व्यापारी हैं. उन्हें पूरा हक है कि अपने लाभ के प्रति समर्पित रहें. लेकिन सवाल है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद को किस श्रेणी में रखना चाहते हैं?’
ऊपर उद्धृत मधुकर उपाध्याय की टिप्पणी से साफ है, प्रधानमंत्री के तौर पर देशसेवा के लिहाज़ से अपने बेशकीमती चार साल नरेंद्र मोदी ने मुकेश अंबानी जैसे उद्योगपतियों व उनके परिवारों के प्रति राग के प्रदर्शन और आम देशवासियों के तिरस्कार व ‘सबका साथ सबका विकास’ के अपने नारे के द्वेषपूर्ण क्रियान्वयन में जाया कर दिया है.
स्वाभाविक ही इससे राग और द्वेष से परे रहकर कर्तव्यपालन करने की उनकी उस शपथ का गंभीर उल्लंघन हुआ है, जो उन्होंने पदासीन होते वक्त ली थी.
सवाल है कि क्या अपने कार्यकाल के आख़िरी और चुनावी साल में भी वे यह समझना गवारा नहीं करेंगे कि शैक्षणिक संस्थानों की उत्कृष्टता का उनका यह नया पैमाना पिछले दिनों उनके द्वारा युवाओं व बेरोज़गारों को दिए गए पकौड़े तलने में अपना भविष्य देखना शुरू करने के उपदेश को भी मात करता है? गवारा करें तो ठीक वरना मिडास की कहानियों में पहले से दर्ज है: उसका अंत अच्छा नहीं होता.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)