गोरापन और भारतीय मन

नोएडा में अफ्रीकी छात्रों पर हमले की रिपोर्टिंग के दौरान जब हम एक छात्र जेसन से मिले तो उन्होंने बताया कि पड़ोस की महिला बच्चों को डराने के लिए उनका नाम लेती हैं. वो हैरान थे कि वह किसी को डराने की चीज़ कैसे हो सकते हैं. मतलब मां-बाप ट्रेनिंग दे रहे होते हैं कि वो काला है, वो तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा.

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नोएडा में अफ्रीकी छात्रों पर हमले की रिपोर्टिंग के दौरान जब हम एक छात्र जेसन से मिले तो उन्होंने बताया कि पड़ोस की महिला बच्चों को डराने के लिए उनका नाम लेती हैं. वो हैरान थे कि वह किसी को डराने की चीज़ कैसे हो सकते हैं. मतलब मां-बाप ट्रेनिंग दे रहे होते हैं कि वो काला है, वो तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा.

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एक फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन. (फोटो साभार: यूट्यूब)

बचपन से ही हमें ‘नॉर्मल’ होने की ट्रेनिंग दी जाती है. हम कुछ और ना सीखते हों लेकिन ‘नॉर्मल’ होना ज़रूर सीख जाते हैं. सब कितना नॉर्मल है आस-पास. जातियां, धर्म, पढाई, शादियां, बच्चे, नौकरी, रंग.

जैसे ये ज़रूरी है कि लड़के को लड़की से ज़्यादा कमाना ही चाहिए. लड़के की लंबाई लड़की से ज़्यादा होनी ही चाहिए.

शादी तो धूमधाम से होनी ही चाहिए. टीचर से सवाल होना ही नहीं चाहिए. वैसे भी किसी से सवाल करना ही क्यों है. किसी जाति के लोगों को ही सीवर में उतरना चाहिये. धर्म के सामने कोई तर्क होना ही नहीं चाहिए.

और सबसे ज़रूरी बात, शादी के विज्ञापन में लड़की को गोरी, पतली, लंबी लिखना ही चाहिए. अगर गोरी नहीं है तो कोई और रंग ना लिखें, उसे छिपा लें. ऐसा क्यों?

ऐसा इसलिए क्योंकि जब इस देश के नेताओं और सेलिब्रिटीज के लिए गोरा होना और गोरा होने की चाह रखना नॉर्मल है तो आम लोगों के लिए तो ये अनिवार्यता ही होगी.

काले रंग की वजह से आपकी शादी में अड़चन होना भी सामान्य है, क्योंकि आपके जीवन का उद्देश्य तो शादी ही है ना. ये ‘नॉर्मल’ हमारे दिमाग में इतना ठूंसा जा चुका है कि इस गंभीर मुद्दे को नज़रअंदाज़ करना भी ‘नॉर्मल’ है.

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अभिनेत्री और एक्टिविस्ट नंदिता दास तो काफी वक़्त से गोरेपन की क्रीम के खिलाफ मुहिम चला रही हैं. अभिनेत्री कंगना रनौत भी ऐसे विज्ञापन करना अपने उसूलों के खिलाफ मानती हैं.

अब ये मामला फिर से अभिनेता अभय देओल की वजह से उछला है. उन्होंने कई बॉलीवुड के लोगों को गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन करने के लिए निशाने पर लिया.

इस बहस में ट्विटर पर सोनम कपूर ने अभय देओल से ईशा देओल का विज्ञापन दिखाते हुए पूछा कि क्या ये भी गलत है जिसका जवाब अभय देओल ने खुल कर दिया कि हां, ये भी गलत है. लेकिन सोनम कपूर इसके आगे कुछ ना कह पायीं और ट्वीट हटा कर चली गयीं.

दरअसल, कुछ लोग समझ नहीं पाते हैं कि एक आम इंसान को सिर्फ उसके रंग की वजह से कितना कमतर और हीन महसूस करवाया जाता है.

कुछ दिन पहले ही एक अफ़्रीकी लड़के पर नोएडा के कुछ लोगों ने हमला कर दिया था. इसी सिलसिले में रिपोर्टिंग के दौरान जब हम ‘जेसन’ से बात करने लगे तो उसने बताया कि पड़ोस कि एक महिला अपने बच्चों को डराने के लिए उनका नाम लेती हैं.

वो हैरान भी था और मुस्कुरा रहा था कि मैं किसी को डराने की चीज़ कैसे हूं. मतलब बचपन से ही मां-बाप ट्रेनिंग दे रहे होते हैं कि वो काला है और वो तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा.

उससे डरो और उसे किसी दूसरी दुनिया से आया समझो. बाहर किसी देश में अपने लिए ऐसा सलूक आप नहीं पसंद करेंगे लेकिन अपने देश में तो हम करेंगे ही. क्यों- क्योंकि ये तो नॉर्मल है.

2015 में जब कुछ नर्स भूख हड़ताल पर थीं और तत्कालीन मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर से मिलने गयीं तो पारसेकर जी ने उन्हें सलाह दे डाली कि धूप में बैठ कर हड़ताल ना करो, रंग काला हो जायेगा और फिर बढ़िया दूल्हा नहीं मिलेगा.

हाल ही में बीजेपी नेता तरुण विजय एक इंटरव्यू में कह रहे थे कि हम अगर ‘रेसिस्ट’ होते तो साउथ इंडियन लोगों के साथ कैसे रह रहे होते. मतलब सिर्फ रंग की वजह से ही नेता जी को लगा कि वो अलग रेस है और हम ‘गोरे’ लोग उनके साथ निर्वाह कर रहे हैं.

घर में ही एक बहन गोरी और एक काली या जिसे सांवली भी कहते हैं, तो मां-बाप बचपन से ही सिखा देते हैं कि गोरी वाली की तो आराम से शादी हो जाएगी, सांवली के लिए मुश्किल होगी.

सांवली लड़की के लिए दहेज ज़्यादा देते हैं. जैसे कि कोई भरपाई हो जाएगी. ये सारे उदाहरण हर घर में मौजूद हैं.

सोचिये दुनिया के इतने बड़े स्टार माइकल जैक्सन अश्वेत थे, महात्मा गांधी को यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लंदन अश्वेत छात्र की लिस्ट में रखता है, बराक ओबामा अश्वेत हैं, एगबानी डेरेगो पहली अश्वेत मिस वर्ल्ड बन चुकी हैं.

हमारे देश के खिलाड़ियों को ले लीजिये. पी वी सिंधु या महेंद्र सिंह धोनी या साक्षी मलिक गोरे रंग की श्रेणी में तो नहीं ही हैं. इन सबकी सफलता में इनके रंग की क्या प्रासंगिकता है. दरअसल, जहां एवरेज लोगों की भीड़ ज़्यादा होगी, वहां एक ख़ास साइकोलोजी ज़रूर होगी.

आप खुद को दूसरे से बेहतर दिखाने के लिए या समझने के लिए जाति, धर्म, रंग तक का सहारा ले सकते हैं. ऐसी हर चीज़ जिसको हासिल करने में आपका कोई हाथ नहीं और जो चीज़ें हासिल करने लायक है, उसके लिए टैलेंट आपके पास होता नहीं.

लेकिन ये गोरेपन की चाहत आयी कैसे. क्या ये भारत में ब्रिटिश राज की देन है? क्योंकि प्राचीन साहित्य को देखिये तो श्याम रंग तो सुंदरता का प्रतीक माना जाता था. श्री कृष्ण को श्याम सुन्दर कहा जाता है.

कालिदास ने अपने काव्य में सभी महिला किरदारों को श्याम रंग ही दिया. इसके बारे में पढ़ते हुए कई और मिसालें मिली. जैसे, जयदेव की गीता गोविंदा में राधा का रंग सांवला है.

काम्बा रामायण में सीता को गोरी नहीं बताया गया है. भानुभट्ट की नेपाली रामायण में सीता सांवली हैं. मतलब कवियों ने तो सांवले रंग को ख़ूबसूरती के साथ जोड़ा है.

चलिए, फिर भी आपको गोरेपन की चाह है तो एक बात जान लीजिये. कोई भी क्रीम आपको गोरा नहीं बना सकती. बाज़ार लोगों की बेवकूफी और अज्ञानता से काफी फलता-फूलता है. ये अज्ञानता सिर्फ भारत में नहीं है.

दरअसल पूरे विश्व में गोरेपन के प्रोडक्ट्स का बाजार अरबों-खरबों का है. आप अपनी त्वचा को साफ़ रख सकते हैं, अच्छे खान-पान से चमका सकते हैं लेकिन उसका रंग नहीं बदल सकते.

जैसे पतले होने का मतलब ये नहीं कि आप फिट हैं. जैसे गोरे होने का मतलब ये नहीं कि शादी निभ जाएगी. अब आपका जीवन इसी उम्मीद पर चल रहा है तो चलने दीजिये.

(लेखिका टीवी पत्रकार हैं)

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