जिस भाजपा को लोगों ने त्याग और बलिदान से बनाया, उसमें विकृतियां आ गई हैं: सरताज सिंह

साक्षात्कार: मध्य प्रदेश में भाजपा के वरिष्ठ नेता सरताज सिंह ने पिछले दिनों पार्टी से अपना चार दशकों पुराना संबंध तोड़ लिया और कांग्रेस में शामिल हो गए. सरताज सिंह भाजपा से पांच बार सांसद रहे थे और दो बार विधायक. वे केंद्र और राज्य सरकारों में मंत्री भी रहे. कभी कोई चुनाव हारे नहीं. इस बार वे मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष सीतासरण शर्मा के सामने कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं. उनसे दीपक गोस्वामी की बातचीत.

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साक्षात्कार: मध्य प्रदेश में भाजपा के वरिष्ठ नेता सरताज सिंह ने पिछले दिनों पार्टी से अपना चार दशकों पुराना संबंध तोड़ लिया और कांग्रेस में शामिल हो गए. सरताज सिंह भाजपा से पांच बार सांसद रहे थे और दो बार विधायक. वे केंद्र और राज्य सरकारों में मंत्री भी रहे. कभी कोई चुनाव हारे नहीं. इस बार वे मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष सीतासरण शर्मा के सामने कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं. उनसे दीपक गोस्वामी की बातचीत.

कांग्रेस नेता सरताज सिंह (फोटो साभार: फेसबुक/सरताज सिंह)
कांग्रेस नेता सरताज सिंह (फोटो साभार: फेसबुक/सरताज सिंह)

आपने बार-बार कहा कि भाजपा में आपके खिलाफ षड्यंत्र हुआ. क्या षड्यंत्र हुआ, किसने, क्यों और कैसे किया?

इसका उत्तर मेरे पास नहीं है लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद हैं. कुछ लोग मुझे देखना नहीं चाहते. मैंने जब पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को हराया था, उसके बाद मेरा टिकट कट गया था. मतलब कि इतना बड़ा काम करने के बाद मुझे पार्टी में कोई अहम स्थान मिल जाता या प्रोत्साहन मिल जाता तो कुछ नहीं मिला.

लेकिन, मैंने तब भी इसे नजरअंदाज किया. लेकिन हर बार हर चुनाव में पार्टी के अंदर मेरा विरोध होता रहा और किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. मेरे शिकायत करने के बाद भी नहीं हुई. इसलिए मुझे शंका रहती है कि जो भी हो रहा है, सब ऊपर बैठे लोगों के समर्थन से हो रहा है.

अगर घटनाओं पर क्रमवार बात करूं तो बहुत लंबी चर्चा हो जाएगी, सबका उल्लेख नहीं कर सकता. बस यह है कि मुझे ऐसा लगता था कि मैं अपनी पार्टी में मित्रों के बीच नहीं बैठा हूं. विपक्षियों की मुझे कोई चिंता नहीं रही लेकिन हमारे लोगों ने मुझे बहुत परेशान किया. लेकिन, जनता मुझे निपटने नहीं देती.

एक पार्टी में होता यह है कि अगर कोई खुलकर किसी का विरोध करता है तो उस पर कार्रवाई होती है, सब जगह होती है. मेरे ही मामले में नहीं होती. मेरा हमेशा यह मानना रहा कि मैं सम्मान देता हूं और सम्मान लेता हूं.

कांग्रेस ने भी कभी मेरे लिए गलत भाषा का उपयोग नहीं किया था. जिनके खिलाफ भी मैं चुनाव लड़ा हूं और जीता हूं उनसे आज भी मेरे मित्रवत व्यवहार हैं. अर्जुन सिंह भले ही अब न रहे हों लेकिन हजारीलाल रघुवंशी जीवित हैं. सब मेरे बेहद निकट हैं.

लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जिले भर में अकारण ही एक बार मेरे पुतले फूंक दिए, कारण बस इतना था कि मैं एक कॉलेज की इमारत बनवाना चाहता था.

उनका कहना था कि हम शिक्षा में राजनीति नहीं आने देंगे. बताइये वो राजनीति कैसी थी, मैं जनभागीदारी कमेटी का अध्यक्ष था, मेरे आदेश होने के बाद ही कोई खर्चा होता था वहां, तो मैं नहीं देखूंगा तो कौन देखेगा. मैंने शिकायत की लेकिन कोई सुनने वाला ही नहीं था. ऐसा चला भाजपा में मेरे साथ लंबे समय तक.

सरताज सिंह में ऐसी क्या खास बात थी कि उन्हें हर कोई निपटाना चाहता था?

आजकल लोग चापलूसी पसंद हो गए हैं. लेकिन मेरी ऐसी आदत नहीं रही और दूसरी बात कि कई मामलों में मैं बहुत साफ जुबान का नेता हूं जो मुझे ठीक नहीं लगता है, टोक देता हूं.

चार दशक भाजपा की विचारधारा को दिए और अब बिल्कुल विपरीत विचारधारा यानी कांग्रेस में हैं. सामंजस्य बैठाना मुश्किल नहीं होगा?

राजनीतिक दलों में हमारे देश में अगर कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ दें तो कोई विचारधारा नहीं है. आपस में कोई अंतर नहीं है. बस व्यक्ति पर निर्भर करता है कि कौन कैसा प्रदर्शन करता है.

अब देखिए भाजपा राम मंदिर की बात करती है लेकिन राम मंदिर में जो भी काम हुआ, चाहे ताले में बंद राम को निकालना हो या मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन, ये सब तो कांग्रेस के जमाने में हुआ. यहां तक कि बाबरी गिराने का काम भी, अगर कांग्रेस की समिति नहीं होती, नरसिम्हा राव की समिति नहीं होती तो नहीं गिरती.

अब मैं कैसे मान लूं कि ये विचारधारा इनकी है और वो उनकी है. वो तो समय और परिस्थिति के हिसाब से निर्णय होते हैं और हमेशा व्यक्ति के प्रदर्शन को गिना जाता है.

मोदी-शाह की भाजपा और अटल-आडवाणी की भाजपा में क्या अंतर पाते हैं?

अंतर यह पाते हैं कि एक पार्टी के तौर पर भाजपा को खड़ा करने में लोगों ने बहुत त्याग ,तपस्या और बलिदान किया. बहुत ही कठिन जीवन व्यतीत किया, बहुत कठिनाईयां सहीं, उसके बाद यह पार्टी खड़ी हुई. लेकिन, आज इस पार्टी में विकृतियां आ गई हैं. अब ये आराम पसंद लोग हो गए हैं और बड़े ही लैविश (राजसी) तरीके से रहने के आदी हो गए हैं.

कभी आप जबलपुर का भाजपा का संभागीय कार्यालय देखो. वो अभी बना है. और भोपाल का प्रदेश कार्यालय है, बहुत पहले बन गया था. दोनों में काफी अंतर है. उस समय भाजपाईयों को ये हवा नहीं लगी थी, लेकिन अब लग गई.

संभागीय कार्यालय किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं है. ऐसी संस्कृति, कल्चर और सोच पहले तो नहीं थी भाजपा में. आज क्यों आ गई? महंगे-महंगे एसी लगा रखे हैं. मुझे फोटो दिखाई गई कि एक कमरा है और उसमें झूला लगा है. झूले के किनारे भी 70 हजार का एसी लगाया गया है. इतना आरामतलबी पतन की निशानी है.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सरताज सिंह (फोटो साभार: फेसबुक/सरताज सिंह)
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सरताज सिंह (फोटो साभार: फेसबुक/सरताज सिंह)

कहा जाता है कि केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का पार्टी पर एकाधिकार है. क्या यही एकाधिकार शिवराज ने मध्य प्रदेश में पार्टी पर स्थापित कर लिया है?

मुझे ऐसा नहीं लगता. एकाधिकार की कोई बात नहीं है. मोदी और भाजपा के नेतृत्व ने बहुत बड़ा काम करके बताया है, इसलिए मोदी तो सर्वोपरि हैं ही और अमित शाह का योगदान भी कम नहीं रहा.

इसलिए जो उपलब्धि पाता है वो नेता बन जाता है, लेकिन पार्टी के प्रति समर्पित होना चाहिए. भाजापा में जो हालिया गिरावट आई है मैं इसकी बात कर रहा हूं, इसमें किसी नेता का हाथ नहीं है, ये गिरावट समय और परिस्थिति के हिसाब से अब आई है और इसका परिणाम पार्टी को भुगतना पड़ेगा.

पहले त्याग, तपस्या और बलिदान का भाव लेकर चलने वाले भाजपा नेताओं का जीवन सादगीपूर्ण था और उन्होंने अपने मायने में कुछ आदर्श स्थापित किये थे, आज वो बातें समाप्त हो गईं हैं. इसलिए कार्यकर्ता भी तभी प्रेरित होगा जब सामने नेतृत्वकर्ता की जीवनशैली उस पर प्रभाव डाले.

आप सिवनी-मालवा से विधानसभा लड़ते आए हैं, इस बार होशंगाबाद से लड़ रहे हैं. क्या इसकी वजह होशंगाबाद का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की बुधनी सीट से नज़दीक होना है और यह शिवराज को घेरने का प्रयास है?

पास में तो सिवनी-मालवा सीट भी लगी है. इसमें घेरने वाली बात नहीं है. मुझे सिवनी से टिकट देने से भाजपा ने इनकार किया लेकिन जवाब उनके पास एक भी नहीं था. वे कहते थे कि हमने तो तय किया है कि किसी युवा को आगे लाएंगे.

एक ही बात कहते रहे कि आप अपने अलावा कोई दूसरा नाम बता दो. तो मैंने आधे घंटे की बहस के बाद नाम भी बता दिया. दूसरे दिन मेरे बताए नाम का भी उम्मीदवार घोषित नहीं हुआ, उसकी जगह कोई दूसरा आ गया.

फिर मुझे टिकट नहीं दिया तो मैं ऐसी स्थिति में खड़ा हो गया कि 50 साल से सक्रिय एक व्यक्ति घर बैठ जाये. अब मेरे पास कोई काम करने का आधार तो बचा ही नहीं और एक सक्रिय व्यक्ति यदि एकांत में चला जायेगा तो उसमें डिप्रेशन हो जाएगा, बड़ी कुंठा होगी मन ही मन और मुझे ये परिस्थिति मंजूर नहीं थी.

उसके बाद एक मित्र ने कांग्रेस में बात की तो मेरे पास ज्योतिरादित्य सिंधिया और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के फोन आये. सुरेश पचौरी मुझसे मिलने आये.

सबसे बड़ी बात कि अगले दो घंटे में उन्होंने फैसला कर लिया कि हम आपको पार्टी में शामिल करते हैं और होशंगाबाद-इटारसी की सीट देते हैं जबकि कांग्रेस में खुद दावेदारों की लंबी कतार लगी है. बावजूद इसके उन्होंने मेरा सम्मान किया.

कमलनाथ ने होशंगाबाद की आम सभा में जो शब्द मेरे लिए कहे कि हम किसी नेता को पार्टी में लेकर नहीं आये हैं, हम एक समाजसेवी को लेकर आये हैं. यह शब्द मैं अपनी पार्टी (भाजपा) में कभी नहीं सुन सकता था.

मैं एक मैदान का खिलाड़ी हूं और मैदान से दूर नहीं रह सकता है. चुनाव हो रहे हैं और मैं घर बैठूं, ऐसा कैसे होता. कांग्रेस सिवनी सीट पर उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी इसलिए मुझे उन्होंने होशंगाबाद सीट दे दी और मैंने ले ली.

विधानसभा अध्यक्ष सीतासरण शर्मा को राजनीति में आप लेकर आये और आज उन्हीं के खिलाफ खड़े हैं. क्या उनसे संबंधों में खटास आई है? हां तो ऐसा क्यों हुआ?

सीतासरण का बड़ा ही महात्वाकांक्षी परिवार है. उन्हें विधायक मैंने बनाया था, यह बात वो खुद भी स्वीकार करते हैं. यह बात भी सही है कई लोगों के विरोध के बाद उन्हें मैंने विधायक बनाया था.

लेकिन, जब मैंने लोकसभा चुनाव जीता जो कि तब की परिस्थितियों में असंभव-सा था. तब पार्टी ने मुझसे कहा कि आपको अब विधानसभा भी जिताना है तो मैंने अपनी पसंद के प्रत्याशी की मांग की और वह स्वीकार भी ली गई. मैंने सीतासरण को मैदान में उतरवा दिया.

सीतासरण जीत गए, चुनाव के एक महीने बाद उन्होंने एक बैठक बुलाई. चुनाव के समय जो इनके निकट आ गए थे, उन लोगों के साथ ली बैठक में कहा गया कि विधानसभा तो हमने जीत ली है अब लोकसभा देखना है.

सीतसरण के परिवार में सात-आठ लोग ऐसे हैं जो कुछ न कुछ बन सकते हैं और अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण सीतासरण इकलौता वर्चस्व और राष्ट्रीय वर्चस्व चाहते हैं. इसलिए चाहते हैं कि हर पद उनके घर आ जाये. इसलिए इन्होंने मेरा विरोध शुरू कर दिया.

मैं तब से 22 सालों तक इनसे लड़ा. 10 साल इनका टिकट भी काटा. इस ढंग से काटा कि वे जब दावेदार का नामांकन भरने कलेक्टर के यहां पहुंचे थे, तब इनको टिकट कटने का पत्र थमा दिया गया.

फिर मैं सिवनी चला गया. वहां हमारे बीच सीधे टकराव की बात नहीं आती थी. लेकिन यहां ऐसा होता था कि कार्यकर्ता को वे परेशान करते थे और वह मेरे पास आता था. मैं उसे संरक्षण देता था और फिर टकराव होता था. सिवनी में कई दिन तक शांति बनी रही, लेकिन मन में तो आज भी वही भाव है, इसलिए इस चुनाव में हम आमने-सामने हैं.

होशंगाबाद के विकास को किस तरह देखते हैं?

देखिए, काम करना एक व्यक्तिगत क्षमता का प्रमाण होता है. मैं सिवनी गया तो हजारीलाल वहां से एकछत्र नेता थे, मंत्री रहे तीन-चार साल, 35 साल विधायक भी रहे, लेकिन काम नहीं किया क्योंकि काम करने के प्रति रुचि है और जो मेहनत चाहिए वो उनमें नहीं थी.

होशंगाबाद में भी ऐसा ही है कि लोग काम से संतुष्ट नहीं हैं और मेरी तो राजनीति विकास के बल पर चली है. मैंने पांच लोकसभा के चुनाव जीते हैं, 2 विधानसभा के, वो भी बिना जाति, बिना पैसे और बिना बलवाई के आधार पर जीते हैं.

मैंने सारी राजनीतिक मान्यताओं को झुठला दिया और बड़े-बड़े चुनाव जीते. रामेश्वर नीखरा को तीन बार हराया, अर्जुन सिंह को हराया, हजारीलाल को दो बार हराया, बड़े-बड़े दिग्गजों को हराया मैंने. जनता का काम करता हूं इसलिए जनता मुझे समर्थन करती है.

होशंगाबाद नर्मदा किनारे बसा है और पिछले दिनों प्रदेश की राजनीति में नर्मदा बहस का मुद्दा रही है. नर्मदा घाटों के विकास, संरक्षण आदि के अनेक दावे किए. क्या वास्तव में नर्मदा की स्थिति में सुधार हुआ है?

शिवराज सिंह में एक ही कमी है, वे जल्दबाजी में फैसले ले लेते हैं और उस फैसले को लागू करने के लिए आवश्यक जरूरतें पूरी नहीं कर पाते हैं. उन्होंने नर्मदा यात्रा शुरु की और फिर जहन में आया कि हम आठ करोड़ पेड़ लगाएंगे.

ऐसा करने के लिए बेसिक एक्सरसाइज चाहिए कि आपकी नर्सरी में कितने पेड़ उपलब्ध हैं. वहीं, कम से कम दो-तीन साल का पेड़ होता है, वही लगता है. कल का उगाया पौधा नहीं लग पाता. और ऐसे पौधों की संख्या कितनी थी कोई नहीं जानता.

तो उस दौरान की ही बात है कि होशंगाबाद के कमिश्नर का मेरे पास फोन आया कि मैं सिवनी जा रहा हूं, आप भी चलें. मैंने पूछा कि क्यों जा रहे हो? तो बोला कि बीज डालना है. मैंने पूछा कि किसके लिए. कहा कि बीज डालेंगे तो पौधा निकलेगा और फिर हम पेड़ लगाएंगे.

तो बता दूं कि मैं फॉरेस्ट में अधिकारी रहा हूं और मुझे अनुभव रहा है कि पेड़ लगाना कोई आसान काम नहीं है. तीन साल तक एक पेड़ को बच्चे जैसे पालना पड़ता है. खाली हम कह दें कि भैया 8 करोड़ पेड़ लगा दो, ऐसा नहीं होता. इसका नतीजा यह रहा कि 8 हजार भी पौधे नहीं बचे. सारे के सारे मर गए.

इसलिए घोषणाएं करने से कुछ नहीं होता, कार्ययोजना बनानी होती है. अब मान लीजिए कि नर्मदा को पवित्र करना है तो सारे नाले बंद करने पड़ेंगे जो कि नर्मदा से मिलते हैं. तो क्या हमारे पास ऐसा डाटा है कि कितने नाले मिलते हैं.

और नालों को रोकने के लिए क्या करना पड़ेगा. कितना बजट लगेगा. कुछ योजना बनाई, कुछ नहीं. खाली लप्पेबाजी करने से कुछ नहीं होता.

होशंगाबाद में जनता के बीच जाने पर सबकी एक ही समस्या थी अवैध खनन, इस पर क्या कहेंगे?

यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है. यहां अवैध खनन तो हुआ ही लेकिन उस क्षेत्र में बर्बादी बहुत हुई और मजदूरों के साथ न्याय नहीं हुआ. अब वहां रेत की जितनी लोडिंग होती है, जेसीबी से मजदूरों के बगैर होती है और मजदूर बेकार बैठा हुआ है.

वहीं, आपने नर्मदा को 30-30 फीट तक गहरा खोद दिया है. जहां-जहां पानी है उसके नीचे की रेत निकाल ली, जिससे नदी का कटाव शुरू हो गया. सड़कें उखड़कर खत्म हो गईं क्योंकि उन पर बड़े-बड़े डंपर चले. काम तो कोई नहीं हुआ. कमाने वालों ने करोड़ों कमा लिए.

मजदूर के लिए कुछ नहीं हुआ. नदी का कटाव रोकने के लिए पिचिंग नहीं बनाई गईं. अब लोगों का कहना है कि जब करोड़ों आपने कमाये तो कुछ तो काम करते.

अब बताइये कि किसान का क्या कसूर है कि उसकी 150 एकड़ जमीन कट गई. आम आदमी की क्या गलती कि उसके सड़कें उखड़ गईं. मजदूर की क्या गलती है कि आपने उसकी रोजी-रोटी छीन ली तो नाराजगी तो होगी ही न. और इसका बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा इनको.

चूंकि अवैध उत्खनन को संरक्षण ऊपर से था तो अधिकारी क्या बोल सकता था. नतीजा ये हुआ कि मेरे पास इस बात के प्रमाण हैं कि अधिकारियों ने नीति बना ली कि रोक नहीं सकते तो शामिल तो हो सकते हैं और वे भी लूटमार का हिस्सा बन गए.

भाजपा के खिलाफ आप कैसे प्रचार करेंगे? यदि आप पार्टी को गलत बताते हैं तो मतदाता पूछेगा कि अब तक क्यों पार्टी में रहे?

मुझे कैंपेन की जरूरत ही नहीं पड़ी है. मेरे पक्ष में एकदम माहौल हो गया. कारण है कि मेरा 38 साल का राजनीतिक करिअर है तो लोग जानते हैं कि ये ईमानदारी से काम करने वाला व्यक्ति है. और हर आदमी और हर मतदाता ये चाहता है कि हमारा प्रतिनिधि ऐसा हो जो काम करे और ईमानदारी से काम करे.

तो मुझसे अब तक किसी ने नहीं पूछा कि आप भाजपा में थे अब यहां आ गए, अब क्या होगा? पहले भाजपा अच्छी थी और अब बुरी हो गई? मैं कहूंगा कि न भाजपा अच्छा थी और न बुरी.

मेरे साथ तो परिस्थितियां ऐसी बनीं कि आपने मुझे गुमनामी की गलियों में धकेलने की तैयारी कर ली. सिवनी-मालवा मैं  घर बैठे जीतता. मैंने इतना काम किया है वहां. उसके बाद भी आपने मेरा वहां से टिकट काट दिया.

मेरे पास कोई रास्ता नहीं था. या तो घुट-घुट कर मर जाऊं या मैदान-ए-जंग में उतर जाऊं तो मैंने दूसरा तरीका चुना. लेकिन लोगों ने कोई सवाल नहीं किया. सब यह कहते हैं कि आपके साथ अन्याय हुआ और आपने जो किया ठीक किया. यही सुनने मिलता है हर जगह.

लेकिन भाजपा के पास तर्क है कि उसने 75 की उम्र सीमा की नीति बनाई और आप उसमें फिट नहीं बैठते थे.

ऐसा नियम कहां है, वे बता दें. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मना कर दिया कि ऐसा कोई नियम नहीं है. उनसे ऊपर कौन है? शिवराज उनसे ऊपर है क्या? फिर मैंने एक सवाल भी खड़ा किया कि कर्नाटक में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किया, वे उम्र में मुझसे पांच साल बड़े हैं. ये पक्षपात नहीं चलेगा.

इस नियम पर सबसे पहले कलराज मिश्र ने कहा था कि ऐसा कुछ नहीं है. लोगों ने उनसे कहा कि आप भी उसी उम्र के हो आप कैसे बच गए. उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि ऐसा नियम तो मैं पहली बार सुन रहा हूं. इसलिए कोई ऐसा कारण नहीं कि इसे षड्यंत्र न कहा जाये.

प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के तीन बार के कार्यकाल पर क्या कहेंगे?

जल्दबाजी में बिना पूरी तैयारी किए किसी काम की घोषणा कर देना अच्छे लक्षण नहीं होते. बहुत बारीकी से अध्ययन करना होता है, उसका आर्थिक पहलू भी देखना होता है.

जैसा मैंने पहले बताया कि पौधा लगाने के लिए तीन साल तक उसे बच्चों जैसे पालना पड़ता है, ट्री गार्ड भी चाहिए, पानी की व्यवस्था चाहिए, चौकीदार चाहिए लेकिन यह कुछ नहीं. आपने इतनी बड़ी घोषणा तो कर दी. 60-70 रुपये प्रति पेड़ खर्च कर दिया, अब 8 करोड़ पेड़ पर कितना खर्चा हुआ. सब बेकार गया. ऐसी ही नीति अन्य योजनाओं में भी अपनाई जाती है.

(दीपक गोस्वामी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)