केंद्र की मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया गया. जबकि 20 करोड़ विमुक्त और घुमंतू जनजातियों की कोई फ़िक्र किसी भी राजनीतिक दल और सरकार को नहीं है.
जातिवार जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों की आबादी 15 करोड़ है (जबकि वर्तमान समय में इनकी वास्तविक आबादी 20 करोड़ से अधिक है). यह विशाल समुदाय भारत की आज़ादी के बाद भी आज तक सामाजिक न्याय से पूरी तरह वंचित एवं विकास की धारा से कोसों दूर है.
विमुक्त जनजातियों के साथ जो उपेक्षा सरकारों यहां तक कि सामाजिक न्याय के ध्वजवाहकों ने की है, वह वास्तव में चिंता और चिंतन का विषय है.
आख़िर कौन है विमुक्त जनजातियां इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि ब्रिटिश हुकूमत ने जिन कट्टर सशस्त्र विद्रोही समुदायों को क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 के तहत जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था और भारत सरकार ने आज़ादी के 5 वर्ष बाद 31 अगस्त 1952 को ब्रिटिश हुकूमत के काले कानून क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट से मुक्त कर दिया था, अब वे विमुक्त जनजातियां (Denotified Tribes) कहलाती हैं.
अंग्रेजों की प्रसारवादी नीतियों के विरुद्ध स्थानीय कृषक जातियों/जनजातियों ने अपने-अपने स्तर और क्षमता के अनुसार सशस्त्र विद्रोह किए थे. किन्तु इतिहास की पुस्तकों में उन्हें वह स्थान नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था.
भारत सरकार ने कुछ आयोग एवं कमेटियों का गठन किया था. उन्होंने भी यह माना था कि विमुक्त समुदाय एक विशिष्ट वर्ग है, जिन्हें ब्रिटिश विद्रोह के कारण जन्मजात अपराधी के रूप में कलंकित होना पड़ा.
उन्होंने यह भी माना कि इनके उत्थान के लिए अलग से उपाय किए जाने चाहिए. विभिन्न शोधकर्ता, इतिहासकार एवं विद्वान स्पष्टत: यह स्वीकार करते हैं कि विमुक्त जातियां ब्रिटिश हुकूमत की सशस्त्र विद्रोही थीं, ये वास्तविक स्वातंत्र्य योद्धा थे.
इनके ऊपर जन्मजात अपराधी होने का कलंक लगाना अमानवीय है. ये समुदाय ब्रिटिश सरकार की नज़र में अपराधी हो सकते हैं, किंतु भारत के लिए वास्तविक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ही थे.
जबकि घुमंतू जनजातियां भारतीय (हिंदू) संस्कृति की रक्षक थीं और आज भी हैं. घुमंतू समुदाय गाड़िया लोहारों के त्याग, बलिदान और दृढ प्रतिज्ञ हिंदू संस्कृति के महान रक्षकों को कौन नहीं जानता? आज उनकी स्थिति बद से बदतर है किन्तु अधिकांश प्रांतीय सरकारें उन्हें अपने प्रांत का नागरिक भी नहीं मानतीं.
विश्व के लगभग 53 देशों में अंग्रेज़ों का शासन था, लेकिन क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट केवल भारत में लागू किया गया था. इसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों की धारणा यह थी कि जिस तरह से भारत में जातिगत व्यवसाय होते हैं जैसे लोहार का लड़का लोहार होता है, बढ़ई का लड़का बढ़ई, चिकित्सक का लड़का चिकित्सक, इसी तरह अपराधी की संतानें अपराधी ही होती हैं.
इसलिए भारत की लड़ाकू जातियों की संतानों को भी अनिवार्य रूप से जन्मजात अपराधी मान लिया गया था.
क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट इन्क्वायरी कमेटी (अयंगर कमेटी- 1949-50) ने अपना अभिमत व्यक्त किया है कि क्रिमिनल ट्राइब्स को दो भागों में बांटा जा सकता है. एक वह है जो एक ही स्थान पर निवास करते थे और आवश्यकता पड़ने पर ये लोग युद्ध किया करते थे, इनमें से कुछ को आक्रमणों के कारण अपने मूल स्थान से विस्थापित भी होना पड़ा था.
दूसरे जिप्सियों की भांति घुमंतू थे जैसे सांसी, कंजर, नट आदि. साथ ही अन्य जनजातियां जो काम की तलाश में या भिक्षाटन के लिए भटकती रहती थीं, जैसे बेलदार, बंजारा आदि.
विमुक्त जनजातियों के प्रति पूर्वाग्रह
अंग्रेजों द्वारा घोषित की गई अपराधी जनजातियों या विमुक्त जनजातियों (Ex-Criminal Tribes) के बारे में आज भी तथाकथित अभिजात्य वर्ग एवं जन सामान्य का सोच यह है कि यह चोरी-चकारी जैसे आपराधिक कृत्य में संलिप्त जातियां हैं, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है.
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि जीविका के लिए चोरी-चकारी जैसे छोटे अपराधों के कारण क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लागू करना होता तो अंग्रेज़ों ने 1857 के पहले ही कर दिया होता. सच्चाई यह है 1857 की क्रांति विफल होने के पश्चात जब महारानी विक्टोरिया ने कंपनी सरकार से शासन अपने हाथ में ले लिया और उन तमाम विद्रोहियों को क्षमा कर दिया, जिन्होंने क्षमा याचना कर ली थी.
किन्तु भारत में कुछ जन समुदाय ऐसे थे जो समझौतापरस्ती को कायरता समझते थे और प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के लिए सदैव तत्पर रहते थे. ऐसे ही समुदायों की पहचान करने के लिए क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 लागू किया गया था.
यद्यपि 31 अगस्त 1952 को ब्रिटिशकालीन क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त कर दिया गया और तबसे इन भूतपूर्व अपराधी समुदायों को सरकारी दस्तावेज़ों में विमुक्त मान लिया गया है किंतु खेदजनक तो यह है वर्तमान समय में तथाकथित सभ्य समाज के लोग इन समुदायों को जन्मजात अपराधी ही मानते हैं. इस पूर्वाग्रह पूर्ण नज़रिये के कारण ही इन समुदायों के उत्थान के लिए शासक वर्ग ने कोई कारगर उपाय नहीं किए.
अनेक विमुक्त जातियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ा
2008 में भारत की संसद में एक एप्रोप्रियेशन बिल पास हुआ था जिसमें विमुक्त जातियों के हालात पर माननीय सांसदों ने कुछ तथ्यात्मक बातें रखी थीं. ओडिशा के एक सांसद ब्रह्मानंद पांडा ने ज़िक्र किया था कि उनके निर्वाचन क्षेत्र का लोधा समुदाय जो वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उन्हें आज भी समाज एवं शासन सत्ता पर बैठे लोग जन्मजात अपराधी ही मानते हैं.
ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड में लोधाओं का प्रवजन 18वीं शताब्दी में मध्य भारत से हुआ था. सांसद का लोधाओं के बारे में स्वातंत्र्य योद्धाओं संबंधी वक्तव्य गूजर, केवट, मल्लाह, भर, पासी, खटिक, सांसी, सहारिया आदि समुदायों पर भी लागू होता है.
इन समुदायों ने संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और बराड़, बॉम्बे प्रेसीडेंसी एवं बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आने वाले सभी इलाकों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया था.
परिणामत: इन्हें इन सभी तत्कालीन प्रांतों में क्रिमिनल ट्राइब घोषित कर दिया गया था. इसी तरह मद्रास प्रेसीडेंसी के अनेक समुदायों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध किया था.
इस बात के तमाम ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि 1857 के दौरान, तत्कालीन संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और दिल्ली-मेरठ क्षेत्र में लोध/लोधा/लोधी, केवट/मल्लाह, खटिक, पासी, गौड़ एवं गूजर समुदायों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भीषण सशस्त्र विद्रोह किया था.
विद्रोहियों का नेतृत्व इन जनजातियों/जातियों के मुखिया या उनके राजाओं ने किया था. जैसे रानी लक्ष्मीबाई ने कबूतरा (कंजर) और गनेश महतों (लोधी राजपूत) ने अंग्रेज़ों की सरपरस्त चरखारी के किले पर चढ़ाई के लिए कुचबंदिया समुदाय का उपयोग किया था.
इसके परिणामस्वरूप 1857 के दौरान इन समुदायों को जरायम (अपराध) पेशा मानते हुए बेरहमी से दबा दिया गया और बाद में अपराधी जनजाति अधिनियम 1871 के तहत अपराधी जनजाति घोषित किया गया.
नहीं मिला आरक्षण का लाभ
यद्यपि विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों में से बहुतों को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या ओबीसी की सूची में सम्मिलित किया गया और बहुत सी विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को इनमें से किसी भी आरक्षित श्रेणी में नहीं रखा गया है. जबकि पूर्व गठित कमेटियों एवं आयोगों ने स्पष्ट रूप से इन जनजातियों को एक विशिष्ट वर्ग माना था.
यहां तक कि पूर्व योजना आयोग भी इनके लिए अलग से बजट का आवंटन करता था किंतु अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किए जाने से इनको आरक्षण एवं अन्य किसी सुविधा का कोई लाभ नहीं मिल सका.
इसका सबसे बड़ा कारण था कि यह सर्वाधिक पिछड़े विमुक्त समुदाय प्रतियोगिता में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ मुकाबला ही नहीं कर सके.
परिणामत: इनके हिस्से की नौकरियों को एवं इनके उत्थान के लिए आवंटित की गई धनराशि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की संपन्न जातियां हड़पती रही हैं.
आरक्षण भक्षण का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. इस भयंकर विसंगति को दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के उप श्रेणीकरण की जांच हेतु एक आयोग (जस्टिस रोहिणी कमीशन) का गठन किया है, जो शीघ्र ही अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करेगा.
इसी तर्ज़ पर उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 02 मई 2018 को जस्टिस राघवेंद्र कुमार की अध्यक्षता में तीन माह के लिए ओबीसी सामाजिक न्याय समिति का गठन किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट उत्तर प्रदेश सरकार को सौंप दी है.
समिति का गठन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्देश के हवाले से किया गया था, जिसमें याची गण ने मांग की थी कि विमुक्त जातियों को ओबीसी में मिश्रण अवैधानिक है. इसलिए विमुक्त जातियों की 1994 के पहले जैसी पृथक आरक्षण श्रेणी बहाल की जाए.
किन्तु आश्चर्य है कि समिति के संदर्भ बिंदुओं में विमुक्त जातियों से संबंधित कोई विषय/बिंदु शामिल ही नहीं किया गया. इसके पूर्व राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग को तीन चार उपश्रेणियों में विभाजित करने की सिफ़ारिश की थी, इसमें विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को सर्वाधिक पिछड़ा मानते हुए उनके लिए एक अलग उपश्रेणी बनाए जाने की संस्तुति की थी.
विमुक्त जाति विरोधी पूर्वाग्रह और आरक्षण हड़पने की मानसिकता
आज़ादी के पूर्व एवं आज़ादी के बाद भी किसी भी कद्दावर नेता ने इन सर्वाधिक वंचित समुदायों की रहनुमाई नहीं की इसलिए इनकी आवाज़ को हमेशा अनसुना ही किया गया.
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के मंत्री और आईएएस अधिकारी अपनी जाति विशेष के एकाधिकार के लिए ही कटिबद्ध है. वे बिल्कुल नहीं चाहते कि विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को उनके समुदाय के लिए आरक्षित श्रेणी विशेष में सम्मिलित किया जाए.
और वे यह भी नहीं चाहते कि जो विमुक्त या घुमंतू समुदाय पहले से आरक्षित श्रेणी में सम्मिलित हैं, उनके लिए कोई अलग से उपश्रेणी बनाई जाए.
उदाहरण के लिए अनुसूचित जनजाति के कोटे का लगभग सारा हिस्सा केवल मीणा जनजाति के लोग हड़प कर रहे हैं. इसी तरह अनुसूचित जाति के कोटे का अधिकांश भाग चमार (जाटव) जाति के लोग प्राप्त कर रहे हैं और ओबीसी के कोटे का ज़्यादातर हिस्सा केवल दो-एक जाति के लोग पा रहे हैं.
भारत सरकार ने विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों के उत्थान हेतु सुझाव के लिए एक राष्ट्रीय विमुक्त एवं घुमंतू जनजाति आयोग (इदाते आयोग) का गठन किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को 8 जनवरी 2018 को सौंप दी थी.
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने आयोग की 20 सूत्री सिफारिशों पर संबंधित 22 मंत्रालयों, आयोगों, विषय के विशेषज्ञों एवं समस्त राज्य सरकारों तथा नीति आयोग से राय मांगी है. कर्मवीर की उपाधि से विभूषित आयोग के अध्यक्ष दादा इदाते और उनके संगठन के कार्यकतों आयोग की अपनी रिपोर्ट लागू करवाने के लिए प्रयास कर रहे हैं.
अभी हाल में केंद्र सरकार ने आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए, आर्थिक रूप से पिछड़े (आठ लाख रुपये तक वार्षिक आय वाले) सामान्य वर्ग के लिए दस प्रतिशत आरक्षण आननफानन में लागू कर दिया गया. जबकि बमुश्किल एक लाख रुपये वार्षिक आय वाले 20 करोड़ विमुक्त और घुमंतू जनजातियों की कोई फ़िक्र किसी भी राजनीतिक दल और वर्तमान सरकार को नहीं है.
इसकी सबसे बड़ी बजह यह है कि ये विशाल आबादी वाले समुदाय असंगठित हैं इसलिए प्रेशर ग्रुप के तौर पर काम नहीं कर पा रहे हैं.
वर्तमान समय में सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह परिवर्तित हो चुका है. आज विमुक्त और घुमंतू जनजातियों के मूलभूत मानवीय अधिकारों के लिए ऊंची जातियों से इतना ख़तरा नहीं है, जितना कि नव-ब्राह्मणों यानी एससी, एसटी, और ओबीसी की एकाधिकारवादी एवं अभिजन बन चुकी जातियों से है.
इसलिए जब तक कोई सक्षम एवं प्रभावशाली राजनीतिक नेतृत्व विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों के उत्थान के लिए पूरी संवेदनशीलता से ज़िम्मेदारी नहीं निभाएगा तब तक इन सर्वाधिक वंचित समुदायों को सामाजिक न्याय नहीं मिल सकेगा.
विमुक्त जन अधिकार कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण सिंह लोधी दादा के प्रयास से दमोह के सांसद प्रह्लाद पटेल ने लोकसभा में पहली बार विमुक्त जातियों पर चर्चा की और केंद्रीय मंत्री उमा भारती, जो स्वयं क्रांतिकारी विमुक्त जाति की सदस्य हैं, ने इन समुदायों को मुख्यधारा में लाने के लिए राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू एवं अर्ध घुमंतू जनजाति आयोग (इदाते कमीशन) की सिफारिशों को लागू कराए जाने का आश्वासन दिया था, किन्तु अभी तक अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आया है.
बता दें कि उत्तर प्रदेश एक मात्र ऐसा राज्य है जहां विमुक्त जातियों को सीमित जनपदों में जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं. यह एक घोर अन्याय है. ऐसी स्थिति में जो समुदाय अपनी मूलभूत पहचान से ही वंचित है उसे सामाजिक न्याय मिलना बहुत कठिन है.
इस तरह का क्षेत्रीय प्रतिबंध हटाने के लिए अनेक बार राज्य सरकार को लिखा जा चुका है किन्तु सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.
यहां ध्यान देने योग्य यह है कि मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स ने रिमूवल ऑफ एरिया रेस्ट्रिक्शन अमेंडमेंट एक्ट, 1976 के आधार पर अनुसूचित जनजाति के मामले में यह बताया था कि यदि किसी समुदाय को किसी राज्य की केवल एक-दो तहसील या केवल एक दो जनपद में अनुसूचित जनजाति का सर्टिफिकेट दिया जाता है तो अब उस समुदाय को उस प्रांत के प्रत्येक जनपद में अनुसूचित जनजाति का दर्जा देकर प्रमाण पत्र प्रदान किए जाए.
ठीक इसी तर्ज पर विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को भी बिना किसी क्षेत्र प्रतिबंध के भारत के समस्त राज्यों के प्रत्येक जनपद में उन्हें विमुक्त एवं घुमंतू जनजाति का दर्जा दिया जाए, जिन राज्यों में वे रहते हों.
आंख की किरकिरी बना विमुक्त समुदाय
माना कि हम अंग्रेज़ों के दुश्मन थे लेकिन ऐसा क्या गुनाह किया था हमारे पुरखों ने कि जब 15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी मिली हमें क्यों आज़ाद नहीं किया गया? जी हां, अंग्रेज़ों के काले क़ानून (क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871) से मुक्ति मिली तो पूरे पांच वर्ष सोलह दिन बाद 31 अगस्त 1952 को जब अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते (मानव को एक प्रजाति मानने के बजाय अलग-अलग प्रजाति की अवधारणा ख़ारिज किए जाने के कारण) क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त कर दिया गया.
बता दें कि पाकिस्तान में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1948 में ही बेअसर कर दिया गया था. जबकि भारत सरकार ने 31 अगस्त 1952 को मजबूरी में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त ज़रूर किया किन्तु बड़ी युक्तिपूर्वक इसके स्थान पर हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट लागू कर दिया इसका अर्थ यह हुआ कि जो ब्रिटिश विद्रोही समुदाय 1952 तक जन्मजात अपराधी माने जाते थे, वे अब आदतन अपराधी माने जाने लगे.
फ़र्ज़ अदायगी के तौर पर इनके उत्थान के लिए कतिपय कमेटियों और आयोगों का गठन भी किया गया लेकिन किसी की सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया.
इनमें दो प्रमुख राष्ट्रीय आयोग क्रमश: रेनके आयोग ने 2008 में और दादा इदाते आयोग ने जनवरी 2018 में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी थी.
उम्मीद यह थी कि सरकार इदाते आयोग की रिपोर्ट को ज़रूर लागू करेगी, जिसकी प्रथम व प्रमुख सिफारिश थी कि अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग व अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग की भांति विमुक्त और घुमंतू जनजातियों के लिए एक स्थाई राष्ट्रीय आयोग की घोषणा अंतरिम बजट सत्र में कर दी जाएगी किन्तु ऐसा नहीं किया गया.
सरकारों की अनदेखी
इन समुदायों के लिए भी एक स्थाई आयोग का गठन करने की आयोग की रिपोर्ट को तो अभी तक माना नहीं गया. पहले नीति आयोग ने इदाते आयोग की स्थाई आयोग गठन संबंधी सिफारिश पर अपनी सहमति भी दे दी थी लेकिन अंतरिम बजट सत्र में घोषणा यह की गई कि घुमंतू समुदाय जो एससी, एसटी और ओबीसी में नहीं है केवल उनके लिए डेवलपमेंट बोर्ड का गठन किया जाएगा.
विदित रहे कि पहले भी ऐसे विमुक्त और घुमंतू समुदायों के लिए प्री-मैट्रिक और पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति और हॉस्टल योजना लागू की गई थी जो किसी भी आरक्षित वर्ग में नहीं थे, ये दोनों योजनाएं बुरी तरह फ्लॉप हो गईं क्योंकि ये दोनों भी केवल उनके लिए थीं जो किसी रिज़र्व कैटेगरी में नहीं थे.
इसलिए वांछित संख्या में अभ्यर्थी/आवेदक ही नहीं मिले. यह तथ्य विमुक्त जनजाति के विशेषज्ञों और न्यायालयों द्वारा बार-बार रेखांकित किया जा चुका है कि डीएनटी यानी विमुक्त जनजातियां अत्यंत पिछड़ा समुदाय है इसलिए उन्हें किसी अन्य कैटेगरी एससी, एसटी या ओबीसी में सम्मिलित करने से कभी भी हक़ नहीं मिल सकता फिर भी सरकारें इस वास्तविकता की अनदेखी कर रही हैं.
रेनके आयोग ने 2008 में ही सिफ़ारिश की थी कि विमुक्त और घुमंतू जनजातियों को शिक्षा एवं नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जए तब से आज तक उन्हें तो आरक्षण नहीं दिया गया जबकि आठ लाख रुपये सालाना आमदनी वाले (आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों) को 10 प्रतिशत लागू भी कर दिया गया.
इदाते आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत किए भी एक वर्ष बीत गया लेकिन उसे लागू करने के बजाय डीएनटी विकास बोर्ड के गठन का लॉलीपॉप पकड़ा दिया गया.
डीएनटी समुदायों को बहुत उम्मीद थी कि वर्तमान केंद्र सरकार दादा इदाते आयोग की रिपोर्ट को निश्चित लागू करेगी किन्तु प्रस्तावित बोर्ड के गठन की घोषणा से इस विशाल समुदाय में आक्रोश व्याप्त हो गया है.
आज़ादी के बाद से लगातार यही हो रहा है कुल आठ-नौ कमेटियों और दो राष्ट्रीय आयोगों की सिफारिशों के बाद फिर विमुक्त और घुमंतू जनजातियों के विकास के लिए कुछ उल्लेखनीय नहीं किया गया.
(लेखक विमुक्त जन अधिकार संगठन के कार्यकर्ता हैं.)