निषाद पार्टी का सपा से गठबंधन क्यों टूटा

सबसे बड़ा सवाल यह है कि निषाद पार्टी से सपा का गठबंधन टूटने से पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? भाजपा से निषाद पार्टी का गठजोड़ न तो निषाद पार्टी के कार्यकर्ताओं को पसंद आ रहा है और न भाजपाइयों को.

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सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद. (फोटो साभार: पीटीआई/फेसबुक)

सबसे बड़ा सवाल यह है कि निषाद पार्टी से सपा का गठबंधन टूटने से पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? भाजपा से निषाद पार्टी का गठजोड़ न तो निषाद पार्टी के कार्यकर्ताओं को पसंद आ रहा है और न भाजपाइयों को.

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद. (फोटो साभार: पीटीआई/फेसबुक)
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद. (फोटो साभार: पीटीआई/फेसबुक)

गोरखपुर: एक नाटकीय घटनाक्रम में निषाद पार्टी ने सपा-बसपा-रालोद गठबंधन से अलग होने की घोषणा करते हुए भाजपा से हाथ मिला लिया तो सपा ने गोरखपुर से पूर्व मंत्री रामभुआल निषाद को प्रत्याशी घोषित कर दिया.

इस तरह से लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा और निषाद पार्टी के बीच बनी एकता जिसने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, एक वर्ष बाद ही टूट गई.

चार दिन पहले तक एक दूसरे के ख़िलाफ़ ताल ठोक रहे भाजपा और निषाद पार्टी के एक ही पाले में आ जाने से सभी अवाक हैं. इस नए घटनाक्रम से गोरखपुर और आसपास के ज़िलों में राजनीतिक समीकरण उलट-पुलट गए हैं.

निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद ने आरोप लगाया है कि गठबंधन का साथी होने के बावजूद उन्हें सम्मान नहीं दिया जा रहा था. सपा-बसपा-रालोद के गठबंधन के प्रचारात्मक सामग्री में निषाद पार्टी का कोई ज़िक्र तक नहीं किया जा रहा था.

उनके मुताबिक, उनकी पार्टी रालोद से बड़ी पार्टी है लेकिन उन्हें लड़ने के लिए सीट नहीं दी जा रही थी. यहां तक कि उनके बेटे गोरखपुर के सांसद प्रवीण कुमार निषाद जो कि उपचुनाव में सपा के सिंबल पर जीते थे, उनकी भी उम्मीदवारी की घोषणा नहीं की गई.

डॉ. निषाद के अनुसार, वह ख़ुद महराजगंज से निषाद पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन यह सीट दिए जाने के बारे में उन्हें स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया जा रहा था.

डॉ. संजय निषाद का यह भी आरोप है कि बसपा के आगे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने घुटने टेक दिए हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि उपचुनाव में निषाद पार्टी की वजह से जीत हुई थी लेकिन इसका श्रेय उन्हें नहीं दिया जा रहा था.

उधर सपा नेता डॉ. संजय निषाद पर अपनी राजनीतिक हैसियत से अधिक सीट मांगने और सौदेबाज़ी करने का आरोप लगा रहे हैं.

उनका कहना है कि उपचुनाव में सपा-बसपा की एकता और भाजपा विरोधी मतों के ध्रुवीकरण से जीत हुई थी. निषाद पार्टी निषाद मतों पर पूर्ण आधिपत्य का दावा करती है लेकिन उपचुनाव में वह पूरे निषाद वोट नहीं दिला पाई. पिपराइच विधान सभा क्षेत्र जहां सबसे अधिक निषाद मतदाता हैं, वहां भी भाजपा प्रत्याशी को ज़्यादा वोट मिले थे.

सपा के घोषित प्रत्याशी रामभुआल निषाद ने तो निषाद पार्टी पर भाजपा से 50 करोड़ रुपये में सौदा करने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि डॉ. संजय निषाद ने निषाद वोटरों को बेचने का सौदा किया है.

इन आरोप-प्रत्यारोप से अलग गठबंधन टूटने की कहानी दूसरी है. गठबंधन टूटने के लिए निषाद पार्टी की बढ़ती महात्वाकांक्षा तो ज़िम्मेदार है ही सपा-बसपा का अड़ियल रवैया भी ज़िम्मेदार है.

निषाद पार्टी की पहले तो कई सीटों की मांग थी लेकिन आख़िर में वह दो सीटों पर सीमित हो गई थी. वह चाहती थी कि गोरखपुर से निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद के बेटे प्रवीण कुमार निषाद को दोबारा प्रत्याशी बनाया जाए.

प्रवीण निषाद को सपा के सिंबल से लड़ाए जाने पर भी सहमति बन गई थी. डॉ. संजय निषाद ख़ुद महराजगंज से चुनाव लड़ना चाहते थे. उनकी मांग थी कि वह अपनी पार्टी के सिंबल से चुनाव लड़ेंगे और सपा-बसपा उन्हें समर्थन दे.

मोटे तौर पर यह सहमति भी बन गई थी और डॉ. संजय निषाद ने महराजगंज से प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था. उन्होंने गोरखपुर में निषादों के आरक्षण की मांग को लेकर आठ मार्च को एक रैली भी की.

रैली के बाद सांसद प्रवीण निषाद पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ गोरखनाथ मंदिर स्थित सीएम कार्यालय को ज्ञापन देने के लिए चल पड़े. पुलिस ने उन्हें रोका और लाठीचार्ज किया.

लाठीचार्ज में उनके हाथ में भी चोट लगी और उन्हें कुछ घंटे तक हिरासत में रहना पड़ा. इस घटना से भाजपा से पहले से नाराज़ चल रहे निषादों में नाराज़गी और बढ़ गई.

इस घटना को लेकर सपा और निषाद पार्टी ने संयुक्त विरोध प्रदर्शन भी किया था.

यहां तक सब ठीकठाक चल रहा था. भाजपा इस एकता से परेशान थी. उसने पूर्व मंत्री जमुना निषाद की पत्नी पूर्व सपा विधायक राजमति निषाद और उनके बेटे अमरेंद्र निषाद को अपनी पार्टी में शामिल कर निषाद मतों के विभाजन की रणनीति चली.

लेकिन गड़बड़ी तब शुरू हुई जब सपा की ओर से गोरखपुर और महराजगंज में प्रत्याशी घोषित होने में देर होने लगी. गोरखपुर और बस्ती मंडल की नौ लोकसभा सीटों में से छह बसपा के हिस्से में गई हैं जबकि तीन- गोरखपुर, महराजगंज और कुशीनगर सपा के. बसपा ने अपने हिस्से की छह में से पांच सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए लेकिन सपा ने अपने पत्ते नहीं खोले.

इसको लेकर निषाद पार्टी आशंकित होने लगी कि कहीं उसकी मांग को नजरअंदाज करने की कोशिश तो नहीं हो रही है.

इसी को लेकर मार्च के तीसरे सप्ताह के शुरु में निषाद पार्टी ने सपा पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह जल्द गोरखपुर-महराजगंज से प्रत्याशी घोषित करे.

आख़िरकार 26 मार्च को लखनऊ में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पत्रकार वार्ता में घोषणा की कि निषाद पार्टी और डॉ. संजय चौहान की जनवादी पार्टी सोशलिस्ट भी सपा-बसपा-रालोद गठबंधन का हिस्सा है लेकिन यहां भी उन्होंने सीट के बारे में पत्रकारों द्वारा बार-बार पूछे जाने पर भी कुछ नहीं कहा. उन्होंने सिर्फ़ यह कहा कि निषाद पार्टी का पूरा सम्मान होगा.

सपा के कुछ बड़े नेताओं ने बताया कि पार्टी सिर्फ़ गोरखपुर से ही प्रवीण निषाद को टिकट देने पर राज़ी थी. वह भी अपने सिंबल पर. महराजगंज से वह किसी और को प्रत्याशी बनाना चाहती थी.

दरअसल सपा के सामने मुसीबत यह थी कि बसपा ने अपने कोटे में से किसी भी छोटे दल को साझेदार बनाने से साफ इनकार कर दिया था.

सपा को अपने कोटे से रालोद के लिए जगह बनानी पड़ी. अखिलेश यादव को अपने ही परिवार के कई सदस्यों को टिकट देने के लिए मजबूर होना पड़ा. इसके बाद उनके पास बहुत कम सीट बच रही थी जिस पर वह पार्टी कार्यकर्ताओं को लड़ा पा रहे थे.

पार्टी के तमाम नेता टिकट नहीं पाने की आशंका में कांग्रेस की तरफ़ जा रहे थे. सपा अब और छोटे दलों को अपने कोटे में एडजस्ट करने की स्थिति में नहीं पा रही थी.

इसके अलावा गोरखपुर और आसपास के ज़िले के सपा नेताओं का मानना था कि पार्टी बेवजह निषाद पार्टी को ज़्यादा महत्व दे रही है. वे बमुश्किल गोरखपुर सीट ही देने को राज़ी थे. उपचुनाव में भी अखिलेश यादव को अपने नेताओं को मनाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी थी.

आख़िरकार सपा ने निषाद पार्टी की मांग के आगे झुकने से इनकार कर दिया और निषाद पार्टी से उसका गठबंधन टूट गया.

बीते शुक्रवार को लखनऊ में निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की. (फोटो साभार: एएनआई)
बीते शुक्रवार को लखनऊ में निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की. (फोटो साभार: एएनआई)

निषाद पार्टी अपने उभार के साथ ही बड़े दलों से हमेशा सौदेबाज़ी करती रही है. सबसे पहले उसने पीस पार्टी से गठबंधन बनाया. दोनों ने 2017 के विधानसभा चुनाव साथ लड़े थे लेकिन सिर्फ़ एक सीट पर सफलता मिली थी.

पीस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अयूब और निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद ख़ुद भी चुनाव हार गए थे. हालांकि तमाम सीटों पर उन्हें अच्छे-खासे वोट मिले थे.

विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने निषाद पार्टी को अपने पक्ष में लाने की कोशिश की थी लेकिन बात बन नहीं पाई थी.

डॉ. अयूब और डॉ. संजय निषाद ने एक बार मुझसे ख़ुद कहा था कि जब भाजपा ने विधानसभा चुनाव में निषाद पार्टी को साथ आने का ऑफर दिया तो उनसे कहा गया कि आएंगे तो हम दोनों साथ आएंगे. इसके बाद भाजपा से बातचीत बंद हो गई.

विधानसभा चुनाव के बाद भी आरएसएस और भाजपा नेता निषाद पार्टी को अपने साथ लाने की कोशिश करते रहे लेकिन लोकसभा उपचुनाव में निषाद पार्टी का सपा से गठबंधन हो गया.

पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अयूब गर्व से कहते थे कि इस गठबंधन के वही डिज़ाइनर हैं. वह पत्रकारों को बताते रहते थे कि कैसे उन्होंने बसपा सुप्रीमो और सपा प्रमुख को इस गठजोड़ के लिए राज़ी किया जिसका नतीजा गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में ऐतिहासिक जीत में दर्ज हुआ.

वह 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इसी सफल फॉर्मूले पर विपक्षी गठबंधन की हिमायत कर रहे थे लेकिन सबसे पहले सपा-बसपा गठबंधन से उन्हें ही बाहर कर दिया गया.

वह कांग्रेस के पास ठौर तलाशने गए लेकिन उनकी सात सीटों की बड़ी मांग कांग्रेस ने नामंज़ूर कर दी. कांग्रेस ने यह भी कहा कि वह यदि निषाद पार्टी के साथ आएं तो वह दोनों को साथ ले सकते हैं लेकिन तब डॉ. संजय निषाद को भरोसा था कि सपा उनकी मांग पूरी करेगी. इसलिए उन्होंने कांग्रेस के साथ जाने से इनकार कर दिया.

पीस पार्टी अकेले पड़ गई और अंततः उसने शिवपाल यादव की पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया का दामन थाम लिया.

सूत्रों के मुताबिक सपा से गठबंधन टूटने के बाद निषाद पार्टी को भाजपा के साथ लाने में जौनपुर से लड़ने को इच्छुक बाहुबली नेता धनंजय सिंह की बड़ी भूमिका रही है.

इसके साथ ही निषाद पार्टी के पुराने सहयोगी ने भी इसमें अपनी भूमिका निभायी है. धनंजय सिंह वह बहुत पहले से निषाद पार्टी के समर्थन से जौनपुर में चुनाव लड़ना चाहते हैं ताकि वह अपने क्षेत्र में निषाद और बिंद जातियों का वोट पा सके.

निषाद पार्टी और भाजपा में सीट शेयरिंग की जो बात चल रही है, उसमें जौनपुर सीट भी शामिल है.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि निषाद पार्टी से सपा का गठबंधन टूटने से पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? भाजपा से निषाद पार्टी का गठजोड़ न तो निषाद पार्टी के कार्यकर्ताओं को पसंद आ रहा है और न भाजपाइयों को.

डॉ. संजय निषाद ने निषाद पार्टी का जो सैद्धांतिक आधार तैयार किया था उसमें भाजपा-आरएसएस का विरोध केंद्र में था. वह भाजपा को मनुवादी पार्टी और पिछड़ी जातियों का विरोधी कहते थे. वह गोरखनाथ मंदिर को भी निषादों का बताते थे.

इससे योगी आदित्यनाथ के समर्थकों में उनको लेकर काफ़ी नाराज़गी रही है. अब जब दोनों एक ही पाले में आ गए हैं तो दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता व समर्थक स्तब्ध हैं.

सोशल मीडिया पर इसको लेकर तीखी टिप्पणियां की जा रही हैं. यहां तक कहा जा रहा है कि गोरखपुर का उपचुनाव योगी आदित्यनाथ और निषाद पार्टी के बीच फिक्स मैच था.

भाजपा की 26 मार्च को गोरखपुर में हुई विजय संकल्प सभा में सभी भाजपा विधायकों व बड़े नेताओं ने उपचुनाव में भाजपा की हार को कलंक, अपमानजनक, तौहीन बताया था. यहां तक कहा गया कि जो व्यक्ति सांसद बना है कि उसकी शक्ल एक वर्ष बाद भी जनता देख नहीं पाई है.

हालांकि विधानसभा चुनाव, लोकसभा उपचुनाव के बाद से ही निषाद पार्टी से चुनौती मिलने के बावजूद योगी आदित्यनाथ ने अपनी ओर से निषाद पार्टी या डॉ. संजय निषाद के बारे में कुछ बोला ही नहीं है.

विजय संकल्प सभा में भी उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं कहा. अब उनकी इस चुप्पी का अर्थ ढूंढा जा रहा है.

बदली परिस्थिति में यदि प्रवीण निषाद गोरखपुर से भाजपा से लड़ते हैं तो भाजपा कार्यकर्ता उनके लिए उत्साह से प्रचार में लगेंगे, इसमें संदेह है.

उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल के साथ शिद्दत से जुटे ब्राह्मण मतदाताओं के भी बिखरने का ख़तरा है.

निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद को अब निषादों को अपने साथ एकजुट रखने में भारी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा. तीन वर्षों में उन्होंने 80 फीसदी निषादों को अपनी पार्टी के झंडे के तले एकजुट कर लिया था. उनका दायरा लगातार बढ़ रहा था लेकिन भाजपा के साथ जाकर उन्होंने बड़ा नुकसान कर लिया है.

पिछले दो दिन से निषाद पार्टी के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लगातार सफाई दी जा रही है कि डॉ. संजय निषाद ने पार्टी बचाने और निषाद आरक्षण के लिए भाजपा का हाथ थामा है लेकिन समर्थक और पार्टी कार्यकर्ता संतुष्ट नहीं दिख रहे हैं.

कार्यकर्ता कह रहे हैं कि सपा में सम्मान नहीं मिल रहा था तो पार्टी स्वतंत्र रूप से भी लड़ सकती थी. किसी पार्टी का पिछलग्गू बनने की क्या ज़रूरत है? यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा में ओमप्रकाश राजभर का जो हश्र हो रहा है वही डॉ. संजय निषाद का भी होगा.

नई परिस्थितियों में ऐसा लग रहा है कि निषाद वोटर फ्लोटिंग हो जाएगा. भाजपा के साथ जाने से निषाद पार्टी के अंदर भारी अंर्तविरोध पैदा हो गया है जिससे तीन वर्ष पुरानी पार्टी उबर पाएगी, ऐसा नहीं लगता.

इस स्थिति से भाजपा तो प्रसन्न है ही, सपा और बसपा भी ख़ुश हैं क्योंकि सभी के लिए निषादों का एक नई राजनीतिक ताक़त के रूप में उभरना ख़तरनाक लग रहा था.

निषाद पार्टी की बारगेनिंग पावर को वे कम करना चाहते थे. वे जानते थे कि 14 फीसदी निषाद वोटों के साथ निषाद पार्टी की ताक़त चुनाव दर चुनाव बढ़ती जाएगी.

यही कारण है कि सपा और बसपा ने उसे एक सीट से भी ज़्यादा देना गवारा नहीं किया, वहीं बिहार में राजद-कांग्रेस गठबंधन ने मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी को तीन सीटें दीं, जबकि मुकेश साहनी की पार्टी निषाद पार्टी की तरह कैडर बेस्ड पार्टी नहीं है.

सपा-बसपा ने राजभर, निषाद, चौहान, विंद, मौर्य-कुशवाहा, पटेल-कुर्मी आदि जातियों और उनकी पार्टियों को अपने गठबंधन में शामिल किया होता तो यूपी में बीजेपी के लिए बहुत कठिन चुनौती खड़ी होती लेकिन अब इन अति पिछड़ी जातियों की पार्टियां भाजपा, कांग्रेस, सपा-बसपा में बिखर गई हैं.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)