ओम प्रकाश राजभर की राजनीति क्या है?

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. बीते दिनों उन्हें पद से बर्ख़ास्त कर दिया गया.

Lucknow: Sacked Uttar Pradesh minister Om Prakash Rajbhar talks to the media at his residence in Lucknow, Monday, May 20, 2019. (PTI Photo/Nand Kumar) (PTI5_20_2019_000028B)
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर. (फोटो: पीटीआई)

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. बीते दिनों उन्हें पद से बर्ख़ास्त कर दिया गया.

Lucknow: Sacked Uttar Pradesh minister Om Prakash Rajbhar talks to the media at his residence in Lucknow, Monday, May 20, 2019. (PTI Photo/Nand Kumar) (PTI5_20_2019_000028B)
ओम प्रकाश राजभर. (फोटो: पीटीआई)

एग्जिट पोल में नरेंद्र मोदी सरकार की पुन: वापसी और उत्तर प्रदेश में भी बेहतर प्रदर्शन को देखने के बाद गोरखपुर में अपने मठ में गोरखपुर सीट पर हुए चुनाव की समीक्षा कर रहे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्यपाल को कैबिनेट मंत्री (अध्यक्ष सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी- सुभासपा) ओम प्रकाश राजभर को बर्खास्त करने की सिफारिश भेज दी.

एक घंटे में राज्यपाल राम नाइक ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की संस्तुति स्वीकार कर ली और ओम प्रकाश राजभर बर्खास्त हो गए.

कुछ देर बाद राजभर की पार्टी के आधा दर्जन से अधिक नेताओं को विभिन्न निगमों व आयोगों में दिए गए पद से हटा दिया गया. ये पद लोकसभा चुनाव शुरू होने और आचार संहिता लागू होने के कुछ घंटे पहले दिए गए थे.

आचार संहिता लागू होने के कारण ये नेता अपने पदभार संभाल भी नहीं पाए थे. इन नेताओं में ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर, राणा अजित प्रताप सिंह, सुदामा राजभर, सुनील अर्कवंशी, महेश प्रजापति, राधिक पटेल आदि के नाम प्रमुख हैं.

इस तरह कैबिनेट मंत्री पद से बर्खास्तगी के बाद दो वर्ष तक चले भाजपा और सुभासपा गठबंधन का अंत हो गया. ये दो वर्ष ओमप्रकाश राजभर के लगातार सरकार से असंतुष्ट रहने, बयानबाजी करने में बीते.

वह प्रदेश सरकार से इतने नाराज रहे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गाजीपुर रैली में भी नहीं गए. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा की गई दो सुलह बैठक भी असरकारी नहीं रहीं. भाजपा सरकार से ओम प्रकाश राजभर तल्खी बढ़ती ही गई. यह तल्खी इतनी बढ़ी कि उन्होंने प्रदेश की 39 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए.

अब 23 मई के परिणाम बताएंगे कि ओम प्रकाश राजभर की पार्टी ने भाजपा का कितना नुकसान किया या वह इस चुनाव में अप्रासंगिक हो गए.

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी 17 वर्ष पहले बनी थी. ओम प्रकाश राजभर ने सारनाथ के महाराजा सुहेलदेव राजभर पार्क में पार्टी का गठन किया था. राजभर ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1981 में की थी. वह कांशीराम से प्रभावित थे.

उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जॉइन की. वह 1996 में बसपा के वाराणसी के जिलाध्यक्ष बने. बकौल ओम प्रकाश राजभर उनका बसपा से मोहभंग तब हुआ जब मायावती ने मुख्यमंत्री रहते भदोही जिले का नाम संतरविदास नगर कर दिया.

राजभर का कहना था कि भदोही जिला उनकी जाति के इतिहास से जुड़ा हुआ है. उन्होंने इस मुद्दे पर 2001 में बसपा छोड़ दी और सोनेलाल पटेल की पार्टी अपना दल में आ गए लेकिन यहां भी वह टिक नहीं सके. एक साल बाद ही उन्होंने अपनी पार्टी बना ली.

पार्टी बनाने के बाद से उन्होंने राजभर समाज के लोगों को संगठित करना शुरू किया. साथ ही उन्होंने इसके बाद हर चुनाव लड़ा, केवल यूपी ही नहीं बिहार में भी. उनकी महत्वाकांक्षा दोनों प्रदेशों सहित देश के अन्य राज्यों में राजभरों का एकमात्र क्षत्रप बनने की थी.

ओम प्रकाश राजभर वर्ष 2004 का लोकसभा चुनाव यूपी की 14 और बिहार की एक सीट पर लड़े. उन्हें कुल 2,75,267 (0.07) फीसदी वोट मिले और बिहार की एक सीट पर 16,639 वोट (0.06 फीसदी) मिले थे.

इसके बाद वह 2005 में फरवरी और अक्टूबर में हुए बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े. दोनों बार उन्हें एक फीसदी से कम मत मिले.

उन्होंने 2007 के विधानसभा चुनाव में यूपी में 97 स्थानों पर प्रत्याशी खड़े किए. उन्हें कुल 4,91,347 (0.94) मत मिले. दो वर्ष बाद 2009 का लोकसभा चुनाव वह अपना दल के साथ मिलकर लड़े. उन्हें 3,19,307 मत मिले. बिहार विधानसभा चुनाव 2010 में उन्होंने 6 उम्मीदवार खड़ा किए और 15,347 मत प्राप्त किया.

इसके बाद यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में वह मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के साथ लड़े. कौमी एकता दल दो सीटों पर चुनाव जीत गई, लेकिन राजभर 52 सीटों पर लड़कर 4,77,330 मत प्राप्त कर एक भी सीट नहीं जीत सके.

(फोटो साभार: फेसबुक)
(फोटो साभार: फेसबुक)

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव वह 13 सीटों पर लड़े और 0.2 फीसदी यानी 1,18,947 वोट मिले. ओम प्रकाश राजभर खुद देवरिया जिले की सलेमपुर सीट से चुनाव लड़े और 66,068 वोट पाकर चुनाव हार गए.

इन सभी चुनावों में वह या उनकी पार्टी का कोई उम्मीदवार नहीं जीता लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ना नहीं छोड़ा. इसका एक फायदा उन्हें मिला कि उनकी पार्टी की पहचान राजभर समाज में अच्छी तरह से हो गई.

राजभर समाज में उनकी पकड़ को देखते हुए ही भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की मुहिम के तहत 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्हें अपने से जोड़ा. उन्हें आठ सीटें दी, जिसमें से चार स्थानों पर सुभासपा विजयी रही.

ओम प्रकाश राजभर जहूराबाद विधानसभा से जीते तो उनके तीन विधायक रामानंद बौद्ध रामकोला, त्रिवेणी राम जखनिया और कैलाश नाथ सोनकर अजगरा से जीते. पार्टी को 6,07,911 वोट मिले.

इस जीत ने सुभासपा को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. उसने भाजपा से इसकी पूरी कीमत वसूलनी चाही. मंत्रिमंडल में ओम प्रकाश राजभर को जगह तो मिल गई लेकिन उनकी अन्य मांगें- पार्टी के लिए लखनऊ में कार्यालय, पार्टी नेताओं को मंत्री का दर्जा आदि योगी सरकार ने पूरी नहीं की.

इसके साथ ही राजभर अपने प्रभाव वाले जिलों- बलिया, गाजीपुर, भदोही आदि में अपने हिसाब से प्रशासनिक अधिकारियों की तैनाती भी चाहते थे जिसे योगी सरकार ने पूरा नहीं किया. इसकी शिकायत ओमप्रकाश राजभर ने सार्वजनिक रूप से कई बार की.

गाजीपुर के डीएम को हटाने के लिए तो एक बार वह धरने पर बैठने पर अमादा हो गए. राजभर की भाजपा और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से ठनाठनी पूरे वर्ष तक चली.

राज्यसभा चुनाव के दौरान एक विधायक के क्रॉस वोटिंग को लेकर भी आरोप-प्रत्यारोप हुए.

लोकसभा चुनाव आते ही ओम प्रकाश राजभर गठबंधन से अलग होने की धमकी देने लगे. कई बार की बातचीत के बाद भी बात नहीं बनी. आखिरकार वह 13 अप्रैल की मध्य रात्रि अपना इस्तीफा लेकर मुख्यमंत्री के घर पहुंच गए.

अगले दिन उन्होंने प्रदेश में 39 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. उन्होंने गोरखपुर, कुशीनगर, संत कबीर नगर, महराजगंज, देवरिया, सलेमपुर, बलिया, घोसी, गाजीपुर, चंदौली, श्रावस्ती, गोंडा, डुमरियागंज, बस्ती, बांसगांव, लालगंज, आजमगढ़, लखनऊ, वाराणसी, मोहनलालगंज, धौरहरा, सीतापुर, रायबरेली, अमेठी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बांदा, फतेहपुर, फूलपुर, इलाहाबाद, बाराबंकी, फैजाबाद, अंबेडकरनगर, कैसरगंज, जौनपुर, मछलीशहर, चंदौली, भदोही, मिर्जापुर, रॉबर्ट्सगंज आदि से प्रत्याशी उतार दिए. इनमें से सात प्रत्याशियों का नामांकन खारिज हो गया. जिन स्थानों पर प्रत्याशियों का नामांकन खारिज हुआ वहां पार्टी ने गठबंधन प्रत्याशी को समर्थन करने की घोषणा कर दी.

सुभासपा के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि ओम प्रकाश राजभर भाजपा से पांच सीट मांग रहे थे लेकिन आखिर में वह घोसी और चंदौली की सीट पर टिक गए. दोनों सीट वह अपनी पार्टी के सिंबल छड़ी पर लड़ना चाहते थे, लेकिन भाजपा उन्हें एक सीट घोसी ही देने पर राजी थी. वह भी भाजपा के सिंबल कमल के फूल पर. कमल और छड़ी की लड़ाई ही दोनों के अलग होने का कारण बनी.

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री पद की शपथ लेते ओम प्रकाश राजभर. (फोटो साभार: फेसबुक)
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री पद की शपथ लेते ओम प्रकाश राजभर. (फोटो साभार: फेसबुक)

भाजपा ने आखिरी समय तक बात बन जाने की उम्मीद में घोसी सीट पर उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी. जब बातचीत पूरी तरह से खत्म हो गई तो आखिरी समय में घोसी से भाजपा ने अपने मौजूदा सांसद हरि नारायण राजभर को उम्मीदवार बना दिया.

भाजपा राजभर को अपने सिंबल पर इसलिए लड़ाना चाहती थी कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत न मिलने की स्थिति में वह इधर-उधर नहीं जा सकें.

पार्टी ने लोकसभा चुनाव में बिहार में भी 14 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए हैं. सुभासपा नेता राधेश्याम सिंह सैंथवार ने बताया कि पार्टी महाराष्ट्र और गुजरात में भी चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन भाजपा से गठबंधन देर से टूटा, इसलिए पार्टी वहां उम्मीदवार नहीं खड़ा कर पाई.

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सुभासपा का लक्ष्य भाजपा को सबक सिखाना बन गया, इसलिए उसने उन सीटों पर जमकर प्रचार किया जहां पर राजभर समाज के लोग अधिक संख्या में थे.

कुशीनगर, देवरिया, सलेमपुर, बलिया, घोसी, गाजीपुर, चंदौली, भदोही आदि सीटों पर ओमप्रकाश राजभर और उनके बेटे पार्टी के राष्टीय महासचिव अरविंद राजभर ने दर्जनों सभाएं कीं. कुशीनगर, देवरिया में पांच-पांच सभाएं की गईं.

इन सभाओं में ओम प्रकाश राजभर बेहद आक्रामक रहे. मऊ के रतनपुर में सभा के दौरान तो उन्होंने गाली देते हुए भाजपा नेताओं को दस-दस जूते मारने तक कह दिया. इस कारण एक भाजपा नेता ने उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई थी.

राजभर वोटों की ताकत

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का मानना है कि पूरे देश में राजभर 4 फीसदी तो उत्तर प्रदेश में 12 फीसदी हैं. पूर्वांचल में वे राजभर मतदाताओं की संख्या 12 से 22 फीसदी मानते हैं.

पार्टी राजभर जनाधार को घाघरा नदी इस पार और उस पार में बांटकर देखती हैं घाघरा उस पार के जिलों- गाजीपुर, चंदौली, घोसी आदि में राजभर मतदाता की संख्या ढाई से चार लाख मानी जाती है. घाघरा इस पार के जिलों में राजभर मतदाता डेढ़ से दो लाख माने जाते हैं. सलेमपुर और घोसी संसदीय सीट घाघरा नदी के इस पार और उस पार दोनों में आते हैं और इन दोनों स्थान पर राजभर मतदाता सर्वाधिक हैं.

एक अनुमान के मुताबिक पूर्वांचल की दो दर्जन लोकसभा सीटों पर राजभर वोट 50 हजार से ढाई लाख तक हैं. घोसी, बलिया, चंदौली, सलेमपुर, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछलीशहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही राजभर बहुल माने जाते हैं.

पूर्वांचल में राजभरों की अधिक संख्या होने के कारण ही ओम प्रकाश राजभर ने अलग पूर्वांचल राज्य को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया हुआ है.

राजभर समाज अब तक बसपा के सर्वाधिक निकट रहा है और बसपा ने इस समाज के कई नेताओं- सुखदेव राजभर, राम अचल राजभर, रमाशंकर राजभर आदि को आगे बढ़ाया. जहां राजभर जाति के नेता चुनाव नहीं लड़ते थे, वहां इस समाज के लोग भाजपा, सपा व अन्य दलों को भी वोट देते थे.

ओम प्रकाश राजभर (फोटो: फेसबुक)
ओम प्रकाश राजभर (फोटो: फेसबुक)

ओम प्रकाश राजभर ने भाजपा, सपा, बसपा द्वारा राजभर नेताओं की अनदेखी का फायदा उठाया और धीरे-धीरे सुभासपा के पीले झंडे के नीचे एकजुट कर दिया.

आरक्षण और अलग पूर्वांचल राज्य की मांग

उन्होंने राजभर समाज के लिए आरक्षण की मांग को प्रमुखता से उठाया. राजभर ओबीसी में आते हैं. ओम प्रकाश राजभर का कहना है राजभर सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत पिछड़े हुए हैं. उन्हें एससी में शामिल कर एससी का कोटा बढ़ाया जाना चाहिए.

वह कहते रहे हैं कि ओबीसी आरक्षण का लाभ दो-तीन जातियों को ही मिला और राजभर, चौहान, मौर्या, कुशवाहा, प्रजापति, पाल, नाई, गौड़, बांध, केवट, मल्लाह, गुप्ता, चौरसिया, लोहार, अंसारी, जुलाहा, धनिया को ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं मिला.

इसी तरह उनका कहना है कि एससी आरक्षण का लाभ चमार, धुसिया, जाटव को मिला लेकिन अन्य दलित जातियों- मुसहर, बांसफोर, धोबी, सोनकर, दुसाध, कोल, पासी, खटिक, नट को एससी आरक्षण का लाभ नहीं मिला.

ओम प्रकाश राजभर बाद में ओबीसी आरक्षण को तीन भागों- पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा में बांटकर ओबीसी जातियों का उनकी संख्या के अनुसार आरक्षण की मांग को उठाने लगे.

योगी सरकार में वह इस मांग पर हमेशा जोर देते रहे. योगी सरकार ने राजभर की इस मांग से सहमति जताते हुए सामाजिक न्याय कमेटी का गठन किया जिसकी रिपोर्ट चुनाव के पहले आ गई.

इस कमेटी ने भी ओबीसी आरक्षण को तीन भागों में बांटने की सिफारिश की थी, लेकिन योगी सरकार इस रिपोर्ट पर चुप्पी साध गई. ओम प्रकाश राजभर इस मुद्दे को भी भाजपा से अलगाव का प्रमुख कारण मानते हैं.

आरक्षण के अलावा सुभासपा अलग पूर्वांचल राज्य, स्नातकोत्तर तक की शिक्षा को मुफ्त करने, पंचायत चुनाव की तरफ लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आरक्षण लागू करने, प्राथमिक विद्यालय स्तर से तकनीकी शिक्षा शुरू करने, सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्र कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने, हर महीने सभी मतदाताओं को 5 हजार रुपये मतदाता पेंशन देने की भी मांग के प्रमुखता से उठाते रहे हैं.

बड़े दलों के साथ जुड़ना और टूटना छोटे दलों की नियति

कैबिनेट से बर्खास्त किए जाने के बाद ओम प्रकाश राजभर ने कहा है कि वह इस निर्णय का स्वागत करते हैं. भाजपा उनकी पार्टी को खत्म करने की साजिश कर रही थी, जिसे उन्होंने नाकाम कर दिया. उनका यह भी कहना है कि यदि वह एक सीट पर भाजपा के सिंबल पर चुनाव लड़ गए होते तो उनकी पार्टी खत्म हो जाती.

राजभर की तैयारी 2022 की विधानसभा चुनाव के लिए है, जिसमें वह राजभर बहुल सीटों पर अपने बूते लड़कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्वतंत्र हैसियत बनाना चाहते हैं.

निषाद पार्टी के एक नेता ने 2018 के लोकसभा उपचुनाव के दौरान बताया था कि भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह निषाद पार्टी को भी विधानसभा चुनाव में सुभासपा के साथ लेना चाहते थे. स्वयं ओम प्रकाश राजभर ने भी इस संबंध में निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद से बात की थी.

उस समय किसी कारण से निषाद पार्टी और भाजपा का साथ नहीं हो पाया. राजनीतिक परिस्थितियां देखिए दो साल बाद ओम प्रकाश राजभर भाजपा से अलग हो गए और निषाद पार्टी भाजपा से जुड़ गई.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में छोटे दलों की शायद यही नियति है. अपनी-अपनी जातियों की पार्टी बनाने वाले ओम प्रकाश राजभर, डॉ. संजय निषाद (निषाद पार्टी), डॉ. संजय चौहान (जनवादी पार्टी सोशलिस्ट), डॉ. अयूब (पीस पार्टी), बाबू सिंह कुशवाहा (जन अधिकार पार्टी) आदि नेताओं की समस्या यही है कि बड़े दल चाहे वह भाजपा हो या सपा, बसपा, कांग्रेस उन्हें कभी भी स्वतंत्र रूप से खड़ा नहीं होने देना चाहते, क्योंकि इन दलों के स्वतंत्र रूप से मजबूत होने से उनकी राजनीति को खतरा पहुंचेगा.

इसलिए ये इन्हें अपने साथ लाकर इनके फैलाव को सीमित करने की कोशिश करते हैं. बड़े दलों के साथ जुड़ना और टूटना अपनी स्वतंत्र हैसियत बनाने की ही छटपटाहट है.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

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