नवंबर, 1930 में भगत सिंह ने मुल्तान जेल में बंद अपने साथी बटुकेश्वर दत्त को लिखा था कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर हर मुसीबत का मुक़ाबला भी कर सकते हैं.
विशेष: भगत सिंह चाहते थे कि स्वतंत्र भारत प्रगतिशील विचारों पर आधारित ऐसा देश बने, जिसमें सबके लिए समता व सामाजिक न्याय सुलभ हो. ऐसा तभी संभव है, जब उसके निवासी ऐसी वर्गचेतना से संपन्न हो जाएं, जो उन्हें आपस में ही लड़ने से रोके. तभी वे समझ सकेंगे कि उनके असली दुश्मन वे पूंजीपति हैं, जो उनके ख़िलाफ़ तमाम हथकंडे अपनाते रहते हैं.
अगस्त 1929 में जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में हुई एक जनसभा में उस समय जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह और उनके साथियों के साहस का ज़िक्र करते हुए कहा कि ‘इन युवाओं की क़ुर्बानियों ने हिंदुस्तान के राजनीतिक जीवन में एक नई चेतना पैदा की है... इन बहादुर युवाओं के संघर्ष की अहमियत को समझना होगा.’
शादमान चौक पर 23 मार्च 1931 को अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाया था. उस दौरान यह चौक एक जेल का हिस्सा था.
राजगुरु के परिजनों का कहना है कि वह समस्त देश के क्रांतिकारी थे और उनका नाम किसी ख़ास संगठन से नहीं जोड़ा जाना चाहिए.
भगत सिंह ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि उनके फांसी देने की जगह गोलियों से भून दिया जाए. सावरकर ने अपील की उन्हें छोड़ दिया जाए तो आजीवन क्रांति से किनारा कर लेंगे.
राज्यसभा में सदस्य ने कहा, भारत को आज़ाद हुए करीब 70 साल हो रहे हैं, लेकिन सरदार भगत सिंह को अब तक शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है.
पाकिस्तान सरकार से लाहौर के शादमान चौक पर भगत सिंह की प्रतिमा लगाने की भी मांग की गई है.