दुनिया की एक बड़ी आर्थिक शक्ति होने को लेकर भारत का दावा और शोर-शराबा ज़मीनी हक़ीक़त से मेल नहीं खाता.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि गांधी जी के ‘जंतर’ से निर्देशित उनकी अंतरात्मा उन्हें दुनिया की 50 फीसदी आबादी और वैश्विक जीडीपी और व्यापार के एक तिहाई से ज्यादा का योगदान देने वाले दुनिया के सबसे बड़े मुक्त व्यापार ब्लॉक- क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग समझौता (आरसीईपी) पर दस्तखत करने की इजाजत नहीं देती.
कोई चाहे तो यह तर्क दे सकता है कि प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था के गहरे और संरचनागत कमजोरी को छिपाने के लिए महात्मा गांधी का इस्तेमाल कर रहे हैं और उन्हें मुक्त व्यापार ब्लॉक से फायदा उठा पाने का भरोसा नहीं है.
अगर सच कहा जाए, तो दुनिया की एक बड़ी आर्थिक शक्ति होने को लेकर भारत का दावा और शोर-शराबा जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाता. आरसीईपी में शामिल होने जैसा का प्रस्ताव सामने आने पर यह भारत के लिए एक गहरी दुविधा का सबब बन जाता है, क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर तो यह सबके लिए फायदेमंद होने का वादा करता है.
एक देशव्यापी साझा बाजार का निर्माण करने वाले, क्षमता का विकास करने वाले और देश के सभी 29 राज्यों में उत्पादकता बढ़ाने वाले वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का तर्क एशिया-पैसिफिक की 16 अर्थव्यवस्थाओं के भीतर बेरोक-टोक व्यापार पर भी लागू होता है, जहां वास्तविक विकास अगले 20 सालों में दिखाई देगा.
आरसीईपी में शामिल न होने के फैसले से अगर हम सहमत भी हो जाएं, तो भी ईमानदारी के साथ इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि आखिर क्यों भारत को यह यकीन नहीं है कि आरसीईपी इसके किसानों, अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों और छोटे और मझोले उद्योगों- जो फायदेमंद मगर असमान वितरण वाले आर्थिक भूमंडलीकरण के समय में सबसे कमजोर हैं- के लिए लाभकारी होगा.
वास्तव में यहां यह सवाल मुनासिब है कि क्या गांधी जी के ‘जंतर’ ने सचमुच प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को भारत के कृषि क्षेत्र, मझोले, छोटे और सीमांत उद्यमों और काम की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्यों में जाने वाले स्वरोजगार में लगे लाखों सेवा प्रदाताओं को मजबूत बनाने के लिए घरेलू नीतिगत सुधारों के लिए प्रेरित किया है?
ये सबसे ज्यादा कमजोर तबके हैं और मुक्त व्यापार समझौते का फायदा इन्हें निश्चित तौर पर मिलना चाहिए. हकीकत यह है कि भारत इससे पहले कभी भी बड़े-बड़े दावों और कड़वे यथार्थ के बीच इस तरह से नहीं पिसा था.
भाजपा भ्रामक गणनाओं के आधार पर पिछले पांच सालों में किसानों की आय को दोगुना कर देने का दावा करती है. अगर वास्तव में ऐसा है तो फिर प्रधानमंत्री गांधी जी का हवाला देकर यह क्यों बताना चाहते हैं कि किसान जोखिम में हैं?
बात यह है कि भाषणबाजी और जुमले घरेलू राजनीति में ही कारगर होते हैं, जहां सत्ताधारी दल और उसके नेता आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर ‘ऑल इज वेल’ का दावा करते हैं.
और विपक्षी दलों की स्थिति को देखते हुए मोदी और उनके महाशक्तिशाली जनसंपर्क कर्ताधर्ताओं के लिए लोगों का ध्यान आर्थिक संकट से हटाकर कश्मीर और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनसीआर) के इर्द-गिर्द बुने उग्र राष्ट्रवाद की ओर मोड़ना और भी आसान है.
लेकिन मोदी जब चीन के नेतृत्व वाले 15 एशिया पैसिफिक देशों के शीर्ष नेताओं के साथ बैठते हैं, तब अर्थव्यवस्था को लेकर बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले दावे काम नहीं आते हैं और फैसले लेते वक्त उन हकीकतों की ओर ध्यान देता पड़ता है, जिसका सामना देश के 1.3 अरब लोग कर रहे हैं. उस समय महात्मा गांधी ही नैया पार लगाते हैं!
सवाल है कि आखिर खुद को धोखा देने का यह खेल कब तक चलेगा? इसी बिंदु पर जरूरी है कि मोदी मजबूत नेतृत्व शक्ति दिखाएं और दुनिया के नेताओं से कहे कि भारत एशिया पैसिफिक के सबसे बड़े मुक्त व्यापार ब्लॉक का हिस्सा बनने से डरता नहीं है. साथ ही अपने जोखिमग्रस्त किसानों और छोटे व्यापारियों की रक्षा भी करें. लेकिन आज भारत इनमें से कोई भी काम नहीं कर पार रहा है. भारत के आरसीईपी से बाहर रहने का यह सबसे त्रासद पहलू है.
अलग-थलग रहने की अपनी नीति का समय से पहले जश्न मनाना गलत होगा. यह सही है कि आरसीईपी का विरोध करनेवाली विपक्षी पार्टियां, स्वदेशी जागरण मंच और अन्य- इनमें से कुछ के विरोध का तर्क वाजिब भी था- इस बात का श्रेय लेंगे कि उन्होंने मोदी को महात्मा गांधी के जंतर की याद दिला दी.
लेकिन महात्मा गांधी भी वैश्विक मेलजोल से स्थायी तौर पर बाहर रहने की तरफदारी नहीं करते. हमारे राजनीतिक नेताओं द्वारा बार-बार जिस वसुधैव कुटुंबकम का हवाला दिया जाता है, उसका निर्माण निष्पक्ष और बराबरी वाले नियमों के आधार पर किया जा सकता है, जो कि किसी भी बड़े परिवार को चलाए रखने के लिए जरूरी है.
इसके लिए सरकार को कहीं ज्यादा उत्साह और ईमानदारी के साथ घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और छोटे किसानों, स्वरोजगार में लगे उद्यमियों और सूक्ष्म और छोटे उद्योगों के जोखिमग्रस्त तबकों को वैश्विक बाजार में प्रतियोगिता कर पाने में सक्षम बनाने के लिए काम करना होगा.
इस संदर्भ में आरसीईपी में भारत द्वारा उठाए गए कुछ बिंदु वाजिब हैं. आज भारत का कृषि और डेयरी क्षेत्र सबसे ज्यादा जोखिमग्रस्त है और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिक पाने लायक बनने के लिए बड़े परिवर्तनों की दरकार है.
ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और मलेशिया जैसे आरसीईपी में शामिल दूसरे देशों ने कृषि, खाद्य तेल और डेयरी उत्पादों के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा क्षमता में जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की है. इनकी तुलना में भारत आज भी कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा क्षमता विकसित करने के मामले में काफी पीछे है और यह जीविकोपार्जन अर्थव्यवस्था के ही दौर में है.
भारत अपने कृषि क्षेत्र को खोलने के लिए थोड़ा समय मांग सकता है और यह शी जिनपिंग और मोदी की हालिया मुलाकात के दौरान तय की गई भारत और चीन के बीच संरचनागत द्विपक्षीय वार्ता में किया जा सकता है.
भारत के वित्त मंत्री और चीन के उप-प्रधानमंत्री के बीच हुई संरचनागत वार्ता में भारत और चीन के बीच व्यापार में असंतुलन और बढ़ते हुए व्यापार घाटे पर विचार किया जाएगा, जो 70 अरब अमेरिकी डॉलर से ऊपर पहुंच गया है.
भारत आरसीईपी के भीतर चीन को एक बड़े खतरे के तौर पर देखता है और उसे यह डर है कि चीन उद्भव के निमयों (रूल्स ऑफ ओरिजिन) को तोड़-मरोड़कर अपने सामानों को भारत में डंप कर करेगा, जिससे हमारे छोटे उद्यमों को नुकसान पहुंचेगा. सच कहा जाए, तो कुछ हद तक ऐसा नेपाल जैसे तीसरे देश के रास्ते पहले से ही हो रहा है.
चीन से मुकाबला करने का एक तरीका यह है कि स्थानीय उद्यमियों वाले संयुक्त उपक्रमों में बड़े चीनी निवेशों को आकर्षित किया जाए. इस तरह से घरेलू रोजगार का भी सृजन होगा और भारत से बाहर की ओर निर्यात होगा.
एक चीज हम अक्सर भूल जाते हैं कि व्यापार काफी मात्रा में निवेश से संचालित होता है. भारत आज एक बड़ा ऑटोमोबाइल निर्यातक है, तो इसलिए कि सुजुकी से शुरू होकर अनेक प्रमुख वैश्विक ऑटो कंपनियों ने 1980-90 के दशक में भारत को अपना बेस बनाया और यहां एक ऑटो हब का निर्माण किया.
यह भारत के द्वारा करके दिखाई गई एक एक बड़ी सफलता की कहानी है. सफलता की इस कहानी को फिर से कुछ चीनी कंपनियों के साथ उन नए उत्पादों और तकनीकों में क्यों नहीं दोहराया जा सकता है, जिनमें चीन दुनिया में सबसे आगे है?
आरसीईपी की एक और बड़ी खामी, निश्चित तौर पर यह है कि सेवाओं- खासतौर पर कुशल और अर्धकुशल कामगारों की गतिशीलता- के व्यापार में लगातार अवरोध खड़े किए गए हैं, जो भारत की सबसे बड़ी शक्ति है. भारत के पास शारीरिक श्रम और गैर-शारीरिक श्रम क्षेत्र (Blue and white collar job) में स्वरोजगार वाले उद्यमियों की एक बड़ी संख्या है.
वस्तु एवं सेवा में किसी भी मुक्त व्यापार समझौते के लिए कामकाजी वीजा (वर्क वीजा) तक उनकी पहुंच एक जरूरी शर्त है. यह एक राजनीतिक मसला है, जिसमें राष्ट्रवादी लोकलुभावनवाद के दौर में और वृद्धि हो जाती है. आरसीईपी जैसे समझौतों पर वार्ता के दौरान सभी देशों को इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए. भारत को भी अपनी घरेलू राजनीति में ऐसी भवनाओं को हवा न देने को लेकर सचेत रहना चाहिए.
कुल मिलाकर आरसीईपी जैसे समझौतों के लिए एक निश्चित मात्रा में तार्किक मिजाज की जरूरत होती है. साथ ही सभी देशों को दुनिया की आधी आबादी के हित में थोड़ी मात्रा में अपनी आर्थिक संप्रभुता का समर्पण करने के लिए तैयार रहना चाहिए.
ऐसा तभी हो सकता है जब इन 16 देशों की घरेलू राजनीति और अर्थव्यवस्था में एक ही स्तर का साम्य हो. ऐसी समानता के लिए बड़ी राजनीतिक दूरदर्शिता की दरकार होती है- खासकर जब बात भारत और चीन जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देशों की हो.
आखिर में, ऐसी व्यवस्था से अलग रहना और अपने रास्ते पर चलना काफी आसान होता है. वास्तव में चीन ने 21वीं सदी की शुरूआत में डब्ल्यूटीओ में अपने प्रवेश का इस्तेमाल सुधारों और अपनी अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धा क्षमता में बदलाव लाने के लिए किया.
भारत के पास भी आरसीईपी एक ऐसा ही मौका लेकर आया है, बशर्ते भारत ऐसे बदलावों के प्रति ईमानदार हो. यह सच है कि इस समय भारत इसके लिए तैयार नहीं है और इसे आरसीईपी से जुड़ने को लेकर विचार करने के लिए समय चाहिए. लेकिन आरसीईपी से बस अलग रहना, एक आलसी काम होगा.
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