मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ कई बार प्रदेशाध्यक्ष का पद छोड़ने की बात कह चुके हैं. लेकिन सरकार बनने के लगभग साल भर बाद भी पार्टी को नया प्रदेशाध्यक्ष नहीं मिला है.
मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों के छह माह पहले 26 अप्रैल 2018 को कमलनाथ को मध्य प्रदेश कांग्रेस समिति (एमपीसीसी) का अध्यक्ष बनाया गया था. कांग्रेस का यह दांव सटीक बैठा और 15 सालों बाद राज्य की सत्ता में उसकी वापसी हो गई.
इस सफलता के इनाम के एवज में कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए. मुख्यमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी के बाद पार्टी संगठन में जो पहला प्रश्न उठा, वह था कि अब नया प्रदेश अध्यक्ष कौन होगा?
बता दें कि प्रदेश कांग्रेस हमेशा से ही गुटबाजी का शिकार रही है. इसलिए जब नये प्रदेश अध्यक्ष की बात चली तो पार्टी का हर गुट अपने-अपने नाम आगे बढ़ाने लगा. छह माह के अंदर ही लोकसभा चुनाव होने थे. इसी गुटबाजी के चलते किसी एक नाम पर सहमति बनाना पार्टी के लिए चुनौतीपूर्ण था.
कमलनाथ जैसा कोई ऐसा चेहरा पार्टी को नहीं मिला जो पार्टी की प्रदेश इकाई के हर गुट को साध सके, सत्ता और संगठन के बीच समन्वय बनाए रख सके, लिहाजा लोकसभा चुनावों तक तात्कालिक समाधान के तौर पर मुख्यमंत्री कमलनाथ को ही प्रदेशाध्यक्ष बनाए रखना तय हुआ.
अब लोकसभा चुनाव हुए छह माह बीत चुके हैं. कमलनाथ कई बार खुलकर भी कह चुके हैं कि वे प्रदेशाध्याक्ष पद छोड़ना चाहते हैं, लेकिन पार्टी अब तक नये प्रदेशाध्यक्ष का चेहरा तय नहीं कर पाई है.
इस बीच, प्रदेशाध्यक्ष पद की दौर में कई नाम भी चले. पार्टी के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत, गृह मंत्री बाला बच्चन, वन मंत्री उमंग सिंघार, उच्च शिक्षा एवं खेल मंत्री जीतू पटवारी, लोक निर्माण मंत्री सज्जन सिंह वर्मा, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के नाम प्रमुख रहे.
लोकसभा चुनाव के बाद से ही नये प्रदेशाध्यक्ष की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी. लेकिन मामले ने तब अधिक तूल पकड़ा जब ज्योतिरदित्य सिंधिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के लिए उनके समर्थक प्रदर्शन पर उतर आए.
समूचे ग्वालियर-चंबल संभाग सहित सिंधिया जिन-जिन क्षेत्रों में प्रभाव रखते थे, वहां उनके समर्थकों ने नारेबाजी, पोस्टरबाजी, रैली, धरना, पार्टी आलाकमान को पत्राचार का सहारा लिया. राजधानी भोपाल में भी प्रदर्शन हुए. सिंधिया समर्थक विधायक और मंत्री खुलकर मांग के समर्थन में आ गये.
हालांकि, स्वयं सिंधिया की ओर से कभी प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने की मांग नहीं की गई. ऐसी अफवाहें भी उड़ीं कि सिंधिया पार्टी में अपनी अनदेखी के चलते भाजपा में जाने का मन बना रहे हैं, जिन्हें खारिज करने के लिए सिंधिया स्वयं सामने आए.
उसी समय पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बनाम वन मंत्री उमंग सिंघार विवाद ने भी तूल पकड़ा. इस विवाद की जड़ में भी प्रदेश अध्यक्ष पद की रेस को कारण माना गया.
प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित के मुताबिक, उमंग सिंघार प्रदेश अध्यक्ष पद की दौड़ में थे. वे राहुल गांधी के भी करीबी हैं, लेकिन दिग्विजय सिंघार को पसंद नहीं करते थे और उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने की राह में अड़ंगा लगा रहे थे. वास्तव में इसी के चलते उमंग सिंघार ने दिग्विजय के खिलाफ मोर्चा खोला था.
बहरहाल, ये घटनाएं सितंबर माह की थीं. इनके कारण पार्टी की प्रदेश ही नहीं, देश भर में किरकिरी हुई थी. तब पार्टी आलाकमान सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के चलते सभी पक्ष शांत हो गये थे. साथ ही, नये प्रदेशाध्यक्ष चुने जाने की कवायद भी ठंडे बस्ते में चली गई थी.
इस दौरान पार्टी की प्रदेश इकाई के नेताओं का पूरा ध्यान झाबुआ विधानसभा उपचुनाव पर लगा रहा. 24 अक्टूबर को चुनावी नतीजे आए और कांग्रेस जीत दर्ज करके विधानसभा में बहुमत के आंकड़े पर पहुंच गई. चुनाव की समाप्ति के बाद फिर से प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है.
उपचुनाव में झाबुआ सीट जीतने वाले कांतिलाल भूरिया को भी अब प्रदेश अध्यक्ष बनाने की मांगें उठने लगी हैं. उनके पक्ष में तर्क दिया जा रहा है कि वे पहले भी प्रदेशाध्यक्ष रहे हैं. साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों में मंत्री भी रहे हैं. वरिष्ठता और कांग्रेस का आदिवासी चेहरा होने के चलते उन्हें अध्यक्ष बनाया जाए.
इस बीच सिंधिया समर्थक पहले की तरह खुलकर तो नहीं, लेकिन दबी जुबां में सिंधिया को अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं. हालांकि, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और अजय सिंह इस पर चुप्पी साधे हैं लेकिन प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया का कहना है कि जल्द दिल्ली से प्रदेशाध्यक्ष के नाम पर मुहर लग जाएगी.
दीपक बावरिया ने द वायर से कहा, ‘पहले लोकसभा के चुनाव बीच में पड़ गए, जो अब हो चुके हैं और हम अब इस पर काम कर रहे हैं, लेकिन इसी बीच झाबुआ में उपचुनाव आ गया जिससे निर्णय टाल दिया गया. अब किसी भी समय प्रदेशाध्यक्ष की घोषणा हो सकती है.’
हालांकि, मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छ्त्तीसगढ़ में भी मध्य प्रदेश के साथ ही चुनाव हुए थे और वहां भी प्रदेशाध्यक्ष (भूपेश बघेल) को ही पार्टी ने मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन, छत्तीसगढ़ में नये प्रदेशाध्यक्ष पर फैसला जून माह में ही हो चुका है.
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की जगह मोहन मरकाम को नया प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया है. और ऐसा भी नहीं है कि वहां कोई उपचुनाव न हुआ हो इसलिए कांग्रेस फैसला ले पाई. मध्य प्रदेश में तो केवल झाबुआ सीट पर ही उपचुनाव हुआ है, लेकिन छत्तीसगढ़ में तो बीते छह माह में दो बार उपचुनाव हो चुके हैं.
पहले दंतेवाड़ा सीट पर और फिर चित्रकोट सीट पर. इसलिए मध्य प्रदेश के संदर्भ में कांग्रेस का यह तर्क कि उपचुनाव के चलते प्रदेशाध्यक्ष पद पर फैसला नहीं हो सका, गले नहीं उतरता. फिर मध्य प्रदेश के मामले में वो क्या कारण हैं कि पार्टी अनिर्णय की स्थिति में है?
राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘वर्तमान में छत्तीसगढ़ में एक ही बड़ा नेता है भूपेश बघेल. वहां उनके समकक्ष कोई अन्य नेता खड़ा नजर नहीं आता. लेकिन मध्य प्रदेश में समान कद के तीन नेता हैं. यहां बड़े नेताओं की संख्या अधिक होना ही फैसला न हो पाने के पीछे का सबसे बड़ा कारण है.’
स्वयं दीपक बावरिया भी इस पर मुहर लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस में जो भी निर्णय लिया जाता है, हमेशा पार्टी प्रमुख द्वारा लिया जाता है. लेकिन अभी दृष्टिकोण पर मतभेद हैं, नामों के अंतिम चयन पर मतभेद हैं. आप मध्य प्रदेश के हालात और जमीनी हकीकत जानते ही हैं. वहां तीन मेजर लीडरशिप हैं.’
यही वजह है कि गिरिजा शंकर मानते हैं कि हाल-फिलहाल में प्रदेशाध्यक्ष पर कोई फैसला हो पाएगा, ऐसा नहीं लगता है. इसके पीछे वे तर्क देते हैं, ‘सच तो यह है कि कांग्रेस मुख्यमंत्री के समानांतर एक नेतृत्व खड़ा करना नहीं चाहती. और न ही ऐसा मुख्यमंत्री कमलनाथ चाहते हैं. इसलिए इस मुद्दे पर वे चुप हैं और यही हाल पार्टी के राष्ट्रीय संगठन का है. अभी कोई ऐसी अर्जेंसी भी नहीं है कि कोई चुनाव सामने हो या अन्य कोई स्थिति हो. इस कारण भी यह पार्टी की प्राथमिकता में नहीं आता.’
राकेश दीक्षित भी ऐसा ही सोचते हैं. वे कहते हैं, ‘झाबुआ उपचुनाव में मिली जीत और अदालत से दो साल की सजा पाने वाले भाजपा विधायक प्रहलाद लोधी की पवई सीट खाली हो जाने से कमलनाथ मजबूत से और मजबूत होते जा रहे हैं. वहीं, प्रदेश के साथ-साथ अब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद कांग्रेस के पक्ष में थोड़ी हवा दिखने लगी है ,तो सिंधिया भी भाजपा में जाने की कहकर ब्लैकमेल नहीं करेंगे. वैसे भी भाजपा में जाकर उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा. इसलिए अब अध्यक्ष बदलने की अर्जेंसी न दिखने के चलते इस पर ढील पड़ी है.’
साथ ही वे कहते हैं, ‘प्रदेशाध्यक्ष की घोषणा करके पार्टी एक नये विवाद को भी अकारण ही जन्म देना नहीं चाहती. कमलनाथ एक वरिष्ठ नेता और मुख्यमंत्री हैं, पार्टी के हर धड़े में उनकी स्वीकार्यता है. बतौर अध्यक्ष कमलनाथ पर भरोसा बनने का कारण भी है, झाबुआ जीत के पूरे आर्किटेक्ट कमलनाथ ही हैं. पार्टी से बगावती हुए जेवियर मेढ़ा को उन्होंने ही साधा. सारे संसाधन और नीतियां उन्हीं के थे. विरोधी चाहे सिंधिया हों या उनके समर्थक, कमलनाथ के अध्यक्ष रहते उनकी हिम्मत नहीं हो पाती कि वे उनकी अध्यक्षता पर सवाल उठाएं.’
जानकारों के मुताबिक, कमलनाथ सरीखे विकल्प की तलाश में ही कांतिलाल भूरिया का नाम चला, वे भी वरिष्ठ हैं. साथ ही पहले भी प्रदेशाध्यक्ष रह चुके हैं. लेकिन अभी निकट भविष्य में कोई बड़े चुनाव नहीं हैं इसलिए पार्टी आदिवासी कार्ड खेलने का बहाना नहीं बना सकती.
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना भी इसी ओर इशारा करते हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक सत्ता और संगठन की बात है तो कमलनाथ जी दोनों दायित्वों का निर्वहन बहुत अच्छी तरह कर रहे हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, झाबुआ उपचुनाव मे पार्टी की भारी मतों से जीत. कमलनाथ जी ने जिस तरह दोनों दायित्वों का निर्वहन किया है, वो अनुकरणीय है. निश्चित रूप से देर-सबेर एक नये अध्यक्ष की प्रदेश में दस्तक होगी. उसके लिए कांग्रेस हाईकमान में मंथन चल रहा है.’
बहरहाल, कांग्रेस का यह लंबा चलता मंथन विपक्षी भाजपा को रास नहीं आ रहा है. इसका कारण है कि विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस भाजपा पर तो नेता प्रतिपक्ष के नाम की घोषणा करने में देरी का आरोप लगा रही थी, लेकिन आज वह स्वयं अनिर्णय की स्थिति में है.
प्रदेश भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं, ‘भाजपा में छोटा हो या बड़ा निर्णय, कभी देरी नहीं होती. हमने विधानसभा और लोकसभा चुनावों के टिकट वितरण समय पर किए. नेता प्रतिपक्ष के मामले में भी कोई देरी नहीं हुई, उतना ही समय लगा जितना कि संगठन में चर्चा में लगता है. लेकिन कांग्रेस में तो विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री के नाम पर कशमकश सबने देखी. तब से अब तक प्रदेशाध्यक्ष को लेकर बाकी राज्यों में फेरबदल हो गए, लेकिन मध्य प्रदेश में फैसला नहीं हो पा रहा.’
वे आगे कहते हैं, ‘कारण स्पष्ट है, ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष नहीं बनने देना है लेकिन सिंधिया समर्थक उन्हें ही बनाने पर अड़े हैं. इसलिए अनिर्णय की स्थिति उनकी भीतरी गुटबाजी के चलते है. बता दूं कि ऐसे दो बड़े निर्णय हैं जो प्रदेश में कांग्रेस के अंतर्विरोध को बढ़ाएंगे, धड़ेबाजी में बंटी सरकार पर संकट खड़ा होगा. वे दो निर्णय हैं, मंत्रिमंडल का विस्तार और प्रदेशाध्यक्ष का चयन.’
हालांकि, दीपक बावरिया का कहना है, ‘व्यवस्था में हर किसी का बराबर का हिस्सा होना चाहिए. प्रदेशाध्यक्ष चुने जाने की प्रक्रिया में यह प्रमुख विचारों में से एक है.’
बहरहाल, प्रदेश में कुछ ही माह में निकाय चुनाव होने हैं. इसलिए जानकारों का मानना है कि कांग्रेस को फैसला टालने के लिए एक और बहाना मिल गया है.
राकेश कहते हैं, ‘कांग्रेस का काम करने का एक धर्रा है. उमंग सिंघार और दिग्विजय सिंह के बीच विवाद कितने लंबे समय पहले हुआ था, लेकिन उस संबंध में एक्शन के लिए अब जाकर पूर्व लोकसभा अध्यक्षों मीरा कुमार और शिवराज पाटिल की समिति बनाई है जो अब से प्रदेश में पार्टी संबंधित मामलों का निपटारा किया करेगी. इसलिए अपने ढर्रे पर चल रही कांग्रेस को शायद लग रहा है कि प्रदेशाध्यक्ष पर फैसला लंबित रखना ही ठीक है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)