एक धर्म की आस्था की निशानी को जमींदोज़ कर उस पर दूसरे धर्म के आस्था का प्रतीक स्थापित करने से स्थायी शांति आएगी, ऐसा भ्रम पालना हानिकारक साबित होगा.
अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इतने विरोधाभासों से भरा है कि न्याय के किसी भी तर्क से उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता. फिर भी, उसे सिर्फ इस आधार पर स्वीकार करने की अपील की जा रही है ताकि हिंदू-मुस्लिम सौहार्द बना रहे और मंदिर-मस्जिद के जिस विवाद ने पिछले 30 सालों से भारत की राजनीति पर कब्ज़ा जमा रखा है, उसका अंत हो और देश विकास की राह पर आगे बढ़े.
सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने आदेश में पैराग्राफ 799 पेज 922 पर कहा भी है कि व्यापक शांति बनाए रखने के मद्देनजर हाई कोर्ट [इलाहाबाद] का जमीन को तीन भागों में बांटे जाने का फैसला व्यवहारिक नहीं है. और इससे किसी भी पार्टी का हित नहीं सधेगा और न ही इससे स्थायी शांति और तसल्ली की भावना आएगी.
अगर वाकई में ऐसा होता है तो फिर इसे जरूर मंजूर किया जाना चाहिए. लेकिन वास्तव में ऐसा होगा, ऐसा लगता तो नहीं है.
इसका प्रमुख कारण है: सुप्रीम कोर्ट के पास यह मामला अपील के रूप में जमीन का टाइटल तय करने के लिए आया था, लेकिन टाइटल सूट में जमीन जीतने वाले किसी एक पक्ष को सौंपने की बजाय और जमीन बंटवारे को अव्यवहारिक बताकर, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रस्ट के रूप में मंदिर निर्माण की सारी बागडोर विवादित और अधिग्रहित सारी जमीन (जो इस सूट का हिस्सा थी ही नहीं) एक ऐसी सरकार को सौंप दी है, जो इसकी राजनीति के जरिए ही सत्ता में आई है.
और राम मंदिर निर्माण जिसके घोषणापत्र का हिस्सा है. इतना ही नहीं, बाबरी मस्जिद को गिराए जाने में उसके बड़े नेताओं की भूमिका बहुत साफ़ है, जिसे लेकर वो आपराधिक मामले में आरोपी भी हैं.
सुप्रीम कोर्ट तो आदेश देकर अलग हट गया, अब आगे तो मंदिर निर्माण के सारे काम एक ट्रस्ट के जरिए मोदी सरकार को ही देखना है.
ट्रस्ट कैसा हो इस बारे में निर्मोही अखाड़े को जगह देने से ज्यादा कोर्ट ने कुछ नहीं कहा. इस ट्रस्ट के जरिए 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए मंदिर-मस्जिद की राजनीति को एक नया कलेवर मिल जाएगा.
फर्क सिर्फ इतना होगा, जहां पहले अवतार में मस्जिद को गैर-कानूनी रूप से गिराकर विगत तीस वर्षों से यह राजनीति हो रही थी, वहीं 2.0 अवतार में अब वो कानूनी तौर पर मस्जिद को ध्वस्त कर और उस जगह पर भव्य मंदिर बनाकर होगी.
हिंदुत्व की राजनीति करने वाले खुल कर कह रहे हैं- सुप्रीम कोर्ट ने हमारे मत को सही ठहराया. और जैसा राम मंदिर आंदोलन के सबसे बड़े नेता रहे लालकृष्ण अडवाणी ने कहा, ‘मेरे रुख कि पुष्टि हुई, मैं अपने आपको धन्य महसूस कर रहा हूं.’
और ऐसा हो भी क्यों नहीं? अयोध्या मामले में अपने फैसले के पैराग्राफ 798 पेज 922 पर सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया है कि मस्जिद से मुसलमानों का कब्ज़ा और इबादत का अधिकार 22 और 23 दिसंबर 1949 के दरम्यानी रात तब छीना गया, जब उसे हिंदू देवताओं की मूर्तियां स्थापित कर अपवित्र कर दिया गया.
उस समय यह कानून के तहत नहीं बल्कि एक सोची-समझी चाल के तहत किया गया था. इसी पैराग्राफ के अंत में उन्होंने यह भी स्वीकारा है कि जब दावे अदालत में लंबित थे, तब एक सोचे-समझे तरीके से इबादत के एक सार्वजानिक ढांचे को ढहाया गया. इसके साथ ही मुस्लिमों को 450 साल पहले बनाई गई मस्जिद से गैरकानूनी तरीके से वंचित किया गया.
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद को उसके पुराने रूप में लौटाने की बजाय उसका संपूर्ण अस्तित्व ही मिटाने का आदेश दे दिया.
कानूनी तौर पर मस्जिद गिराए जाने पर भाजपा क्या कहने वाली है इसका इशारा भाजपा के महासचिव और इंडिया फाउंडेशन के निदेशक राम माधव द्वारा इंडियन एक्सप्रेस में 10 नवम्बर को ‘राम टेम्पल स्ट्रगल इज ओवर, लेट अस होप फॉर द हारमनी’ शीर्षक से लिखे लेख से मिल जाता है.
इस लेख में वो बाबरी मस्जिद गिराए जाने को नहीं बल्कि उसे बनाए जाने को बर्बरता और हिंदुओं के पवित्र धार्मिक को स्थानों को भंजित करने वाला कार्य बता रहे हैं. यहां तक कि इस लेख में उन्होंने महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती पर रामजन्मभूमि को उनके सपने के रामराज्य से जोड़ दिया.
मतलब जब बाबरी मस्जिद को आधिकारिक तौर पर गिराकर मंदिर के लिए समतल भूमि में तब्दील किया जाएगा, तब उसे हिंदू धर्म स्थान पर हमला करने वाले आक्रांता (यानी मुस्लिम बाबर) की निशानी को मिटाने वाला बताया जाएगा.
मतलब जब भव्य मंदिर बन जाएगा और श्रीराम को मोदीजी की उपस्थिति में उनके कथित जन्म स्थान पर विराजा जाएगा, तब उन्हें राम के जन्म स्थान को आक्रांता के चंगुल से मुक्त कराने वाले सदी के सबसे बड़े महानायक के रूप में पेश किया जाएगा.
जब गैर-कानूनी रूप से जुड़ी भीड़ ने ‘हिंदुत्व के हथौड़े’ से मस्जिद को गिराया था, तब सिर्फ मुस्लिमों को नहीं मगर देश के हर न्यायपसंद लोगों को उम्मीद थी, एक दिन कानून सब ठीक कर देगा; अंतत: न्याय की जीत होगी.
लेकिन, अब जब ‘कानून के हथौड़े’ से मस्जिद को गिराया जाएगा, और उसकी तस्वीरें मीडिया चैनलों और अख़बारों में पूरी कमेंट्री के साथ प्रसारित करेंगे, तब क्या होगा?
अनेक चैनल हैं, जो इसे ‘आक्रांताओं’ के पूरे इतिहास के साथ परोसेंगे. तब क्या उसका जश्न नहीं मनेगा? क्या तब यह सब वॉट्सएप पर नहीं चलेगा?
संविधान लागू होने के बाद, एक धर्म की आस्था की निशानी को जमींदोज़ कर उस पर दूसरी धर्म के आस्था का प्रतीक स्थापित करने से स्थायी शांति आएगी और लोगों को तसल्ली मिलेगी ऐसा भ्रम पालना हानिकारक साबित होगा.
आस्था के एक प्रतीक को गिराकर उसके ऊपर आस्था के दूसरे चिह्न खड़ा करने से दुनिया में कभी भी कहीं भी शांति नहीं आई. और जिस स्थायी शांति और आम तसल्ली के नाम पर हमें इस फैसले को स्वीकार करने के लिए तैयार किया जा रहा है, वो ऐसे तो कभी नहीं आएगी.
कम से कम हमारे सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश तो इस भ्रम का शिकार नहीं हो सकते. बेहतर होगा किसी और का इंतजार करने की बजाय सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर स्वयं ही पुनर्विचार करे.
वैसे भी जिस अयोध्या विशेष क्षेत्र जमीन अधिग्रहण कानून, 1993 की धारा 6 और 7 के तहत केंद्र सरकार को ट्रस्ट बनाकर मंदिर निर्माण के लिए योजना बनाने को कहा गया है, वो समझ से बाहर है.
क्योंकि इन धाराओं के तहत केंद्र उसी जमीन की व्यवस्था के लिए ट्रस्ट बना सकता है, जो उक्त कानून की धारा 3 के तहत उसने अधिग्रहित की है और जिसका मालिकाना हक़ उसके पास है.
अब जो जमीन ना तो उसने अधिग्रहित की है न ही जिसका मालिकाना किसी कोर्ट ने उसे दिया है; सुप्रीम कोर्ट ने भी नहीं, तो उस जमीन के प्रबंधन के लिए धारा 7 के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग वो कैसे कर सकता है? इस पर कानूनी जानकर ही ज्यादा रोशनी डाल सकते हैं.
अंतत: एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि पिछले कई दशकों में इस मुद्दे से हिंदुओं की आस्था और भावना इतनी ज्यादा जुड़ गई है कि उसका समाधान जरूरी है.
और यह भी सही है कि यह मुस्लिमों के लिए हिंदुओं की तरह कोई बड़ा तीर्थ स्थल नहीं है. मगर उनके लिए भी उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का मुद्दा तो बन ही गया.
ऐसे में, बेहतर तो यही होता कि दोनों धर्म के लोगों को इसका निकाल निकालने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता. और इसे एक समय सीमा में तय करना ही ऐसा कोई दबाव या आग्रह नहीं रखा जाता.
आख़िरकार यह दो धर्मों की आस्था से जुड़ा सवाल था. बेहतर होता वो दोनों ही उसे सुलझाते. जो मुद्दा 1856-57 यानी ब्रितानी सरकार के समय चल रहा है, वो थोड़ा समय और रुक जाता तो कौन सा तूफ़ान आ जाता. इसका तुरंत निकाल किसे और क्यों चाहिए था?
क्योंकि, जब दोनों समाज के लोग बैठकर इसका कोई निकाल निकालते, तभी स्थायी शांति और तसल्ली की भावना व्याप्त होने और इस पर राजनीति खत्म होने की उम्मीद की जा सकती थी.
(लेखक समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)